शिक्षा का अधिकार 2009 एक विश्लेषण

भारत सरकार ने सन 2009  में "नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा संबंधी बाल अधिकार कानून को पुरे देश में लागू किया. इसके तहत 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को नि: शुल्क व अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हुआ. इससे पहले  सन 1947 में ही शिक्षा सुविधा को कार्यान्वित करने के लिए सविंधान द्वारा सरकार को 10 वर्ष का समय भी दिया था जिसमें देश के सभी बच्चों को शिक्षा सुविधा मुहैय्या कराने की बात कही गयी थी. 1993 में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक क्रांतिकारी फैसले से तत्कालीन सरकार को जगाया. न्यायालय ने कहा कि संविधान में "जीवन के अधिकार" का अर्थ तो तभी है जब व्यक्ति को शिक्षा का अधिकार मिला हो. इस फैसले के तहत सरकार को 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा का अधिकार देना आवश्यक था. मजबूर होकर कांग्रेस सरकार ने सैकिया कमेटी का गठन किया जिसने 1997 में संविधान में उपयुक्त बदलाव करने का सुझाव दिया.

सन 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने संविधान में उपयुक्त बदलाव कर 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया. साथ ही शिक्षा की गुणवत्ता, अध्यापकों के वेतनमान, आदि अन्य सुविधाओं के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता से बचा गया. यहाँ तक की बच्चों की शिक्षा के लिए अभिभावकों को जिम्मेवार ठहराया गया. केंद्र तथा राज्यों के बजट घाटे तथा अनावश्यक मुकदमों से बचाव को ध्यान में रखते हुए सरकार का यह एक सूझ-बूझ भरा निर्णय था.

सन 2009 के "शिक्षा अधिकार" क़ानून के विविध प्रावधानों को समझने के लिए देश की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को समझना होगा. साथ ही शिक्षा तंत्र से देश एवं समाज की अपेक्षाओं को भी जानना होगा. सन 2010-11 में किये गए एक सर्वे के अनुसार देश में लगभग 79 प्रतिशत सरकारी विद्यालय हैं परन्तु सरकारी विद्यालयों में अधिक खर्च, अच्छी सुविधाओं तथा अध्यापकों के अच्छे वेतनमानों के बावजूद निजी विद्यालयों के तुलना में शिक्षा की गुणवत्ता अच्छी नहीं है. सरकारी विद्यालयों के अधिकाँश विद्यार्थियों को प्राइवेट ट्युशन्स में पढना पड़ता है. यहाँ तक की गाँवों में सरकारी विद्यालय होने के बावजूद माता-पिता बच्चों को निजी विद्यालयों में पढाना पसंद करते हैं.  यदि केंद्र सरकार वास्तव में कमज़ोर तथा ग्रामीण वर्ग के कल्याण की मंशा रखती है तो सुशासन के प्रति कटिबद्ध होकर सरकारी विद्यालयों की व्यवस्था को सुधारना ही होगा.

उच्चतम न्यायालय के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा अधिकार क़ानून में प्रावधान किया गया है कि देश में सभी को समान शिक्षा मिले (Common School System - CSS). आज देश में ऐसे विद्यालयों की कोई कमी नहीं जहाँ आधुनिक शिक्षा के लिए 5 से 7 लाख रुपये सालाना फीस लेते हैं. इन विद्यालयों में बच्चों को आधुनिक शिक्षा प्रदान की जाती है. इसलिए क़ानून में यह प्रावधान किया गया कि प्राइवेट विद्यालयों में 25 प्रतिशत सीटें कमज़ोर वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित की जायेंगी. इसके लिए सरकार उन्हें प्रति बच्चा 19000 रुपये तक का सालाना मदद भी करेगी. यह सर्वविदित है की निजी विद्यालय स्वयं  को कैसे इन कानूनों से अपने को मुक्त करने में सक्षम रहते हैं.

आज यह सोचने का विषय है कि क्या देश को CSS की आवश्यकता भी है? देश का विकास करने के लिए विभिन्न कौशल (Skill) विकास कार्यक्रम की योजना बने. ग्रामीण क्षेत्रों के लिए कुछ ऐसे कौशल विकास शिक्षा कार्यक्रम हैं, जिनकी शहरी स्कूलों में शिक्षा कराने की कोई आवश्यकता नहीं है. आदिवासी क्षेत्रों की शिक्षा अन्य क्षेत्रों से भिन्न होनी ही चाहिए. इस बात को एक साम्य (analogy) से समझा जा सकता है. प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था एक ऐसी मशीन है जिसके कच्चे माल में बहुत विविधता है और साथ ही तैयार माल भी अनेक प्रकार का चाहिए. देखा जाये तो राज्यों को यदि CSS से मुक्त किया जाये तो वे क्षेत्रों की आवश्यकतानुसार अपनी शिक्षा प्रणाली को बेहतर तरीके से व्यवस्थित कर सकते हैं.
 
अब ज़रा शिक्षा क़ानून-2009 पर होने वाले खर्च की समीक्षा करें. इस क़ानून के अनुसार  प्राथमिक शिक्षा में लगे सभी अध्यापकों को छठे वेतनमान आयोग की अनुशंसा के हिसाब से वेतन देना होगा. तीन वर्ष के भीतर सरकार को प्रत्येक शिशु के लिए उसके नजदीक में स्कूल उपलब्ध कराना होगा. फिर जब जबाबदेही अभिभावक की न होकर सरकार की हो तो शिक्षा तंत्र के नियंत्रण पर भी खर्च करना होगा. सरकार प्राथमिक शिक्षा के ऊपर जीडीपी का लगभग 6 प्रतिशत खर्च करती है. इस अधिकार को प्रभावी रूप से क्रियान्वित करने के लिए सरकार को एक अनुमान के अनुसार जीडीपी का 15 प्रतिशत खर्च करना पड़ेगा. राजकोष में पर्याप्त धन न होने के कारण सरकार शिक्षा में निवेश के लिए विभिन्न मार्गों की तलाश में है.

कुछ लोगों ने यह आरोप भी लगाया है कि शिक्षा अधिकार क़ानून -2009 लाकर सरकार प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलना चाहती थी. भारत में स्कूली शिक्षा क्षेत्र एक 20 लाख करोड़ रुपये का व्यवसाय है, जिसकी प्रति वर्ष वृद्धि दर भी 16 प्रतिशत है. यह एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें कीमत बढाने पर भी मांग कम नहीं होती. इसलिए यह विदेशी शिक्षा संस्थानों द्वारा निवेश के लिए उपयुक्त क्षेत्र भी था.

किसी भी देश का शिक्षा क्षेत्र व्यवसाय के अलावा भी बहुत कुछ होता है. 19 वीं शताब्दी में देश के मानस पर कब्ज़ा करने के लिए मैकॉले ने शिक्षा का ही सहारा लिया था. गांधीजी ने समाज के सात विकारों के बारे में लिखा है, जिनमें से तत्व विहीन राजनीति, बिना नीति का व्यापार, एवं चरित्र विहीन ज्ञान को इस देश में भ्रष्टाचार के रूप में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.

देश के प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र को विदेशी निवेश से मुक्त रखा जाए. सरकारी स्कूलों के प्रदर्शन तथा गुणवत्ता को सुशासन द्वारा सुधारा जाये. देश तथा समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक शिक्षा तंत्र में आवश्यक बदलाव किया जाना आवश्यक है.


कन्हैया झा
(शोध छात्र)
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, मध्य प्रदेश
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भूमि अधिग्रहण बिल और विकास समस्या

भूमि अधिग्रहण बिल केंद्र सरकार ने 5 सितम्बर 2013 में पास कर दिया है. जिस प्रकार खाद्य सुरक्षा बिल के पीछे सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की प्रतिष्ठा जुडी थी उसी प्रकार भूमि अधिग्रहण बिल से राहुल गांधी की प्रतिष्ठा जुडी है. पिछले कुछ समय से वे कुछ किसानों के आन्दोलनों पर राजनीती करते रहें हैं, जिसके कारण सम्बंधित राज्य सरकार तथा पुलिस से टकराव की स्थिति भी बनी थी. मीडिया के माध्यम से गरीबों के घर में रात बिताने आदि से चर्चा में रहे हैं. इससे उनका किसानों से एक भावनात्मक जुड़ाव दर्शाने प्रयास किया गया है. देश का विकास भावना से अधिक अनुभव मांगता है. दुर्भाग्य से राहुल गाँधी के पास एक पार्टी में पैतृक जिम्मेदारी तथा सांसद बनने के अलावा देश चलाने का अनुभव बिलकुल भी नहीं है. 

उद्योग जगत ने इस बिल का स्वागत नहीं किया है. देश की उद्यमी वर्ग की प्रतिनिधि संस्था फिक्की ने कहा है कि इस बिल के आने से अचल संपत्ति के दामों में बहुत अधिक वृद्धि होगी. भूमि अधिग्रहण में अब 4 से 5 साल लगेंगे जिससे प्रोजेक्ट्स निवेश पर प्रतिफल की दृष्टि से अनुपयुक्त हो जायगा. इस वित्तीय वर्ष की पिछली तिमाही में अच्छी मानसून के बावजूद विकास दर गिरी है. इस बिल के आने से विकास दर की और गिरने की सम्भावना बढ़ेगी. 

विकास के लिए भूमि अधिग्रहण एक हमेशा से एक समस्या रही है. देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति रतन टाटा को अपनी नैनो कार प्रोजेक्ट के लिए जमीन मिलने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. यहाँ तक की राज्य सरकारों को भी अपनी सिंचाई, बिजली आदि योजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण में मुश्किलों का सामना करना पड़ता रहा है. नर्मदा परियोजना के विरोध में भी विस्थापितों की समस्या को लेकर आन्दोलन होते रहे. इस कानून से देश के विकास में और भी मुश्किलें आएँगी.

इस कानून के अनुसार जिस क्षेत्र में भूमि अधिगग्रहण किया जा रहा है, वहां की 70 से 80 प्रतिशत जनता की अनुमति लेना जरूरी हो जाएगा अर्थात विकास योजनायें अब राजनीति का अखाडा बन जायेंगी, जिसमें केंद्र तथा राज्य के अनेक कुटिल राजनीतिज्ञ अपने वोट बैंकों की स्वार्थ पूर्ति के लिए खुल कर हिस्सा लेंगे. 

प्राइवेट उद्योगपतिओं के लिए तो प्रोजेक्ट लगाना और भी मुश्किल हो जायेगा. भूमि अधिग्रहण से पहले सरकार की कोई कमेटी योजना के सामाजिक प्रभाव का अध्ययन करेगी, फिर राज्य सरकार उसका मूल्यांकन करेगी और तब ही जमीन बेचीं जा सकेगी. इसके अलावा उनको योजना के हर स्तर पर राज्य सरकार या उनकी विभिन्न कमेटियों या नौकरशाही से अनुमति लेनी होगी. इस बिल से तो लाइसेंस-परमिट राज दुबारा वापिस आ जाएगा जिसने 1991 तक देश के विकास को रोके रखा था. 

इस बिल के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि के लिए मार्किट मूल्य से चार गुना पैसा देना होगा. इससे सिंचाई योजनाओं को पूरा करने में मुश्किलें आएँगी. राज्य सरकारों के पास सीमित बजट होता है. उन्हें अधिकांश कर शहरी क्षेत्रों से मिलता है. इसलिए उन्हें शहरी क्षेत्रों की सुविधाओं पर भी खर्च करना पड़ता है. यहाँ भी भूमि अधिग्रहण में मार्किट मूल्य से दोगुना पैसा देना होगा. 

इस बिल का पूरा नाम “भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास, पुनर्स्थापना में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार बिल” है. इस बिल से पहले जो अनुबंध एक किसान तथा एक उद्योगपति के बीच तय कर लिया जाता था, अब उसके तय होने में राजनीतिज्ञों, तथा नौकरशाहों के होने से भ्रष्टाचार बढेगा, तथा किसान को मुआवजा पहले जितना ही मिल जाए इसकी संभावनाएं भी बहुत कम हैं. अनुबंध में पारदर्शिता होना तो असंभव है. किसान तथा उद्योगपतियों के लिए अधिक सम्भावना है कि अनुबंध कोर्ट-कचहरिओं के चक्कर में सालों-साल फंसा रह जायेगा. देश के विकास को ठप्प करने का इससे बढ़िया और कारगार तरीका और कोई हो नहीं सकता.

भूमि अधिग्रहण बिल 2013 अंग्रेजों द्वारा बनाये गए सन 1894 के बिल की जगह लेगा. नए बिल में विस्थापन एवं पुनर्वास तथा सामाजिक प्रभाव अध्ययन को अनिवार्य कर दिया गया है, जिनका प्रावधान पहले के बिल में नहीं था. वास्तव में सरकार को आज़ादी के समय ही एक भूमि उपयोग बिल लाना चाहिए था, जिससे कि कृषि योग्य भूमि पर शहर न बसते. उद्योगों को भी बसती से दूर रखा जा सकता था. बड़े बांध तथा माइनिंग के प्रोजेक्ट्स में विस्थापन एवं पुनर्वास का प्रावधान होता ही है, जिसे सरकार को ही मॉनिटर करना था. इसके अलावा अधिकाँश किसानों के पास तकनीकी ज्ञान न होने के कारण उन्होंने भूमि से प्राप्त मुआवज़े का दुरुपयोग ही किया है. 

यह तो सभी जान रहे हैं कि घोटालों के घोर आकंठ में घिरी केंद्र की यूपीए सरकार 2014 के चुनावों को ध्यान में रख कर ही इस प्रकार के बिल ला रही है. चुनावों के नजदीक होने से इन बिलों पर न तो सही चर्चा हुई और न ही सही वोटिंग हो सकी. भूमि अधिग्रहण बिल से किसानों को लुभाया जा रहा है. कुछ लोगों का तो यहाँ तक कहना है की अगली सरकार के लिए यह एक टाइम बम साबित हो सकता है. केद्र में गठबंधन सरकारों के कारण कोई भी सहयोगी अपने वोट बैंक की स्वार्थ पूर्ति के लिए देश के विकास में बाधा डाल सकता है.




 कन्हैया झा
(शोध छात्र)
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, मध्य प्रदेश
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