अप्रैल 2013, सरिता ब्रारा के
एक लेख के अनुसार देश के ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 5 करोड़ लोगों को
पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है. मणिपुर, त्रिपुरा, ओडिशा, मेघालय, झारखंड एवं
मध्यप्रदेश राज्यों में प्रभावित परिवारों की संख्या बहुत ज्यादा है. केन्द्रीय
पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल मिशन (NRDWP) के लिए ग्यारहवीं
पञ्चवर्षीय योजना (2007-12) में 40 हज़ार करोड़ पैसा खर्च किया है.
पीने के पानी के लिए गाँवों में लगभग 85 प्रतिशत संसाधन
भूजल पर आधारित हैं. देश में 80 प्रतिशत पानी की खपत सिंचाई के लिए है, जिसके लिए
भूजल का भी खूब उपयोग हो रहा है. इस कारण
से अनेक राज्यों में भूजल स्तर तेज़ी से गिर रहा है. जैसे-जैसे गहरी खुदाई करते है
आर्सेनिक, फ्लोराइड आदि के प्रदूषण से पानी पीने लायक नहीं रहता. इसके चलते
बारहवीं पंचवर्षीय योजना में भूजल की बजाय सतही पानी (surface water) का उपयोग कर उसे
पाइपों द्वारा घर-घर पहुंचाने का प्रस्ताव है. अभी देश के केवल चार राज्यों में ही
यह व्यवस्था है.
इस विषय पर गंभीरता से विचार कर निर्णय
लेने की आवश्यकता है. भूजल किसी भी राष्ट्र की नयी पीढ़ी के लिए जमा की गयी पूंजी
है. इस विषय पर सन 1989 में एक शोध-पत्र जल-संसाधन पर छठी विश्व कांग्रेस
में मंजूर किया गया था. शोध पत्र का शीर्षक "Dams, the Cause of
Droughts and Devastating Floods" अर्थात बड़े बाँध सूखा एवं बाढ़ दोनों ही
लाते हैं, कुछ चौंकाने वाला था. लेकिन यह भारतीय चिंतन के अनुरूप था. इस देश ने
कभी भी नदियों की अविरल धारा को अवरुद्ध नहीं किया. उनमें स्नान, उनकी पूजा वास्तव
में उनका संरक्षण था. संक्षेप में नदियों की प्राकृतिक बाढ़ से दूर-दूर तक के
प्रदेशों में हर वर्ष भूजल स्तर कायम रहता था और जमीन में नमी बने रहने से सूखे के
प्रकोप से भी रक्षा होती थी. उचित गहराई पर भूजल के प्रवाहित होने से जमीन की
धुलाई होती थी और उसकी उपजाऊ शक्ति वर्ष दर वर्ष बनी रहती थी. नहरी पानी की सिंचाई
से धुलाई नहीं हो पाती और धीरे-धीरे जमीन के नमकीन होने से उसकी उर्वरक शक्ति का
भी ह्रास होता है.
निरीह नदियों पर किये गए अत्याचारों का फल
तो इस देश की जनता को जरूर भोगना पडेगा. ग्रामीण इलाके इस पाप कर्म से बच सकते
हैं. सरकार भी इस दिशा में सोचे. अपनी जमीन खराब कर प्याज आदि खाद्य पदार्थों का
निर्यात करना कहाँ की समझदारी है ! नव-निर्वाचित सभी सांसदों से बात कर उन ग्रामीण
क्षेत्रों को चिन्हित किया जाए जहां पर पीने के पानी की गंभीर समस्या है.
राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल मिशन के देशव्यापी प्रस्ताव की जगह स्थानीय समाधानों को
तलाशा जाय. सामाजिक कार्यों के लिए यदि गैर सरकारी संस्थाओं को धन दिया जा सकता है
तो राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों को क्यों नहीं ! सांसद निधि में
पैसा देने की जगह उन्हें इस प्रकार के मिशन के लिए पैसा दिया जाय. किसी भी पार्टी
के लिए क्षेत्र में अपना प्रभाव बढाने का इससे बेहतर और क्या तरीका हो सकता है.
एक खबर के अनुसार (Indian
Express. मई 18,
2014) विश्व की सबसे बड़ी स्वयं
वित्त पोषित संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) में भी चुनाव परिणामों को
लेकर एक जोश है. उनके एक वरिष्ठ स्वयंसेवक के अनुसार:
"नयी
सरकार को १२५ करोड़ देशवासियों में जाती, धर्म आदि किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं
करना चाहिए. हमारा विश्वास है की अब चुनावों के बाद सभी भाई-चारे की भावना से
प्रेरित हो राष्ट्र निर्माण में लगेंगे."
उसी खबर में एक पोस्टर का मजमून भी छापा
गया जो यह था:
"हम
लाये हैं तूफानों से नौका निकाल के, बढेगा देश अब सेवा आधार पे."
Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National University of Journalism and Communication
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