विकेंद्रीकरण के सन्दर्भ में ब्राजील का अध्ययन

बीसवीं शताब्दी में ब्राजील का आधुनिकरण तीन स्तंभों आर्थिक विकास, औद्योगीकरण, एवं शहरीकरण पर आधारित था. सन 1980 में कृषि एवं खनन (प्राथमिक क्षेत्र) में संलग्न जनता का प्रतिशत घटते-घटे केवल 30 रह गया था. गरीब एवं अति-गरीब का प्रतिशत 35 होने से ब्राजील उस समय सबसे अधिक असमान देश था. उसी सदी के 50 से 80 के दशक के बीच जिस तेज़ी से शहरी जनसंख्या बढी, शहरी सुविधायें उस रफ़्तार से नहीं बढीं. ब्राजील के सबसे संपन्न इलाके में साफ़ पानी की सुविधा 80 प्रतिशत, और सीवर की सुविधा केवल 55 प्रतिशत लोगों तक थी.

अस्सी के दशक तक जनता भी संगठित नहीं थी. जन-सुविधाओं के वितरण में राजनीतिक दलालों का बोल-बाला था. परंतू इसी दशक से ब्राजील में बदलाव शुरू हुआ. जनता ने पड़ोस-मंडलियाँ (Neighborhood Associations) बनाईं, जो की अ-राजनैतिक होने की वजह से सत्ता से स्वतंत्र थीं. यदि प्रशासन उन्हें जन-सुविधायें दे रहा था तो उनपर कोई उपकार नहीं कर रहा था. मजदूरों की पड़ोस-मंडलियों ने राजनीतिक पार्टियों के कब्ज़े वाली ट्रेड-यूनियनों के खिलाफ विद्रोह किया. अन्य मध्य-वर्गीय व्यावसायिक (Professional) समूहों जैसे डाक्टर, वकील आदि ने भी पड़ोस-मंडलियों की उपयोगिता को समझा. इन आन्दोलनों से सत्ता पर लम्बे समय से काबिज़ राजनीतिक पार्टी की हार हुई.

नयी पार्टी के आने से राज-तंत्र में दलाली का वातावरण बना रहा. वास्तव में कार्यपालिका 'सरकारी बजट' नाम के ब्रह्मास्त्र से सभी अपने एवं विपक्षी सांसदों को मुट्ठी में रखती थी. स्थानीय स्तर के प्रशासनिक अधिकारियों की मिली-भगत से सामाजिक क्षेत्र की एवं जन-सुविधा योजनाओं का पैसा जनता की बजाय मंत्रिओं एवं सांसदों की जेबों में पहुंचता था. इस कुटिल-तंत्र को तर्कसंगत तथा निरपेक्ष बनाने में कार्यपालिका योजना मंत्रालय का पूरा उपयोग करती थी.

सन 1990 में पहली बार ब्राजील में पहली बार सत्ता में आयी मजदूर पार्टी ने बजट बनाने में जनता को भागीदार बनाया. बजट बनाने की यह प्रक्रिया दो चरणों में होती थी. पहले चरण में अ-राजनैतिक पडोसी-संगठनों से विचार विमर्श होता था, तथा दूसरे चरण में स्थानीय चुने हुए जन-प्रतिनिधियों को शामिल किया जाता था. ये विचार-विमर्श सत्र के शुरू में ही पूर्ण कर लिए जाते थे. इनमें पिछले वर्ष में हुए कामों पर चर्चा होती थी तथा नए वर्ष के लिए प्रत्येक कालोनी में दी जाने वाली जन-सुविधाओं की प्राथमिकता तय की जाती थी.  

ब्राजील द्वारा आर्थिक विकास, औद्योगीकरण, एवं शहरीकरण पर आधारित विकास का प्रतिमान भी सही नहीं था. नयी सरकार ने सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए जन-सुविधाओं में खेल-कूद, विश्राम एवं मनोरंजन, स्वास्थय आदि को भी शामिल किया.  
बड़े शहरों में जन-सुविधाओं की कमी से कमज़ोर वर्ग की या तो गन्दी बस्तियां (slums) या फिर अनधिकृत कालोनियां बन गयीं थीं. अभी तक प्रशासन शहरों को विश्व-स्तरीय सुन्दर बनाने की योजना के अंतर्गत शहर से बाहर विस्थापित करते थे जहां पर सालों-साल ये बिना जन-सुविधाओं के रहते थे. नयी मजदूर पार्टी की सरकार ने अनाधिकृत कालोनियों को मान्यता दी तथा गंदी बस्तियों में भी जन-सुविधाओं का विस्तार किया.


भारत में भी सन 1993 में 73 वे तथा 74 वे संविधान संशोधन से देश में शासन का तीसरा स्तर जोड़ा गया था. आदिवासी क्षेत्रों को छोड़कर गाँवों में पंचायतें तथा शहरों में नगरपालिकाओं को चुनावों द्वारा बनाना राज्य सरकारों के लिए अनिवार्य था. परंतू शासन में जनता की भागीदारी दो दशकों के बाद भी नगण्य है. दिल्ली विधानसभा के दिसंबर 13 के चुनावों में एक नयी पार्टी ने शासन सम्भाला है जिन्होनें घोषणा की है कि वे प्रदेश में जनता का शासन स्थापित करेंगे. अन्य प्रदेशों के मुकबले राजधानी क्षेत्र होने से जनता में अपने अधिकारों को लेकर सजगता भी अधिक है. यदि दिल्ली प्रदेश के मुख्यमंत्री ब्राजील के अनुभवों को गहराई से समझ अभी से प्रयास करें तो अगले वर्ष के बजट में प्रदेश की जनता का सहयोग सुनिश्चित कर सकते हैं.

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
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दिल्ली विधानसभा में विकेंद्रीकृत विकास हेतु संचार प्रतिमान की आवश्यकता

विकेंद्रीकृत शासन के लिए देश में किये गए प्रयास
      भारत में सदिओं से पंचायतों ने ही स्वायत्त ग्राम इकाईयों द्वारा पूरे देश का शासन चलाया था. ये पंचायतें गाँव वाले स्वयं ही बिना किसी चुनाव के बना लेते थे. गांधीजी ने केंद्रीकृत (Centralized)  ब्रिटिश संसद प्रणाली को एक "बिना आत्मा की मशीन" कहा था. आज़ादी के पहले की कांग्रेस सरकारों के अनुभव से उनका यह निश्चित मत बना था की सत्ता के केन्द्रीकरण से भ्रष्टाचार बढेगा. इसलिए उन्होंने स्वायत्त ग्राम इकाईयों के आधार पर विकेंद्रीकृत (Decentralized)  शासन तंत्र स्थापित करने की बात कही थी.

      संविधान के पार्ट IV में पंचायतों की भूमिका गांधीजी के "ग्राम स्वराज" से भिन्न रखी गयी. डाक्टर अम्बेडकर के अनुसार गाँवों के जाती-पांति आदि आधारों पर बंटे होने के कारण पंचायतें स्वराज के लिए सक्षम नहीं थी.  सन 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद् ने बलवंत राय मेहता कमेटी की सिफारिशों को मानकर त्रि-स्तरीय पंचायती राज्य संस्था के गठन को स्वीकृति दी. शासन के इस तीसरे स्तर पर सबसे नीचे गाँवों में ग्राम-पंचायत तथा नगरों में नगरपालिकाएं एवं वार्ड्स रखे गए. मध्य स्तर पर ग्रामीण क्षेत्र के लिए ग्राम-समितियां तथा शहरों में नगर निगम अथवा नगर पंचायत को बनाना था. पंचायती राज्य संस्था के शीर्ष पर जिला परिषद् बनाने का प्रावधान था. यह पूरी पंचायती राज संस्था (PRI) राज्य सरकार के नियंत्रण में रखी गयी.

सन 1993 में 73 तथा 74 वें संविधान संशोधन से चुनाव द्वारा पंचायतों के गठन को अनिवार्य किया गया. इस क़ानून में उन्हें विकास तथा सामजिक न्याय के लिए सत्ता एवं जिम्मेवारी देने का प्रावधान था. इसके अलावा संविधान के 11 वें शिडयूल में दिए गए 29 विषयों के क्रियान्वन की जिम्मेवारी भी उन्हें दी गयी परन्तु पंचायतों के अधिकारों का मामला राज्य सरकारों पर ही छोड़ दिया गया. देश के 15 राज्यों में किये गए एक अध्ययन (EPW: July 5,2003) के अनुसार राज्यों द्वारा पंचायतों को जिम्मेवारियां तो दी गयीं परंतू सत्ता का उचित हस्तांतरण नहीं किया गया है.

            शहरों में भी आज़ादी के समय से आज तक ब्रिटिश शासन से विरासत में मिला केंद्र-राज्य-नगरपालिका ढांचा ही चल रहा है. राज्य सरकारें वो ही नीतियाँ चला रही जो ब्रिटिश सरकार चलाती थी. नगरपालिकाओं के चुनाव होते हैं, मेयर का भी चुनाव होता है, सत्ता राज्य सरकार के अधीन एक प्रशासनिक अधिकारी कमिश्नर के हाथ में रहती है. जनता के प्रति जबाब  देही से बचने के लिए ब्रिटिश सरकारें ट्रस्ट आदि बनाती थीं, जिन्हें भूमि अधिग्रहण क़ानून 1894 के अंतर्गत किसी भी मजदूर बस्ती (slums) को उजाड़ने का अधिकार होता था. आज राज्य सरकारें भूमि विकास, पानी की सप्लाई एवं निकासी, औद्योगिक क्षेत्र, विशिष्ट निर्यात सेज (SEZs) आदि अनेक विषयों के लिए नए संस्थान बना कर प्रशासनिक अधिकारी कमिश्नर आदि  के नियंत्रण में रखती हैं, जिनकी नगर पालिका में चुने हुए प्रतिनिधिओं के प्रति कोई जिम्मेवारी नही होती.

      केन्द्रीकरण की जो प्रक्रिया राज्य स्तर पर है वही केंद्र स्तर पर भी आज़ादी के समय से ही चल रही है. सन 1991 में नव-उदारवाद अपनाने के बाद तो इसमें और गति आयी. केंद्र से राज्यों को उनके बजट में सहयोग एक फार्मूले के तहत मिलता है. इस राशि में केंद्र की अपनी महत्वपूर्ण (Flagship)  योजनाओं का भी पैसा होता है. 11वीं पंचवर्षीय योजना में यह राशि बढ़ते-बढ़ते कुल बजट सहयोग के 42 प्रतिशत तक पहुँच गयी थी. केन्द्रीकरण राष्ट्रीय विकास परिषद् में भी केंद्र एवं राज्यों के बीच टकराव का विषय बना रहा है. फिर सरकार द्वारा गठित अनेक कमीशनों ने भी इस विषय पर अपनी चिंता व्यक्त की है.

विकास के कुछ प्रतिमान
            1930 के दशक में पश्चिमी राष्ट्रों में मंदी का दौर था. सामान्य उपयोग की वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे थे. ऐसे में विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स ने आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोचकर यह कहा कि वह दिन दूर नहीं जब सभी अमीर होंगे. और जब सब अमीर हो जायेंगे तो अमीर-गरीब का झगड़ा भी ख़त्म होगा और सब जगह शान्ति हो जायेगी. उनका यह विश्वास उत्पादन तंत्र की शक्ति पर आधारित था. इसके लिए त्याग, चरित्र आदि भली चीज़ों की कोई आवश्यकता नहीं होगी. बल्कि लालच, ईर्ष्या, सूदखोरी पर आधारित उत्पादन तंत्र उपभोग की सभी वस्तुएं प्रचुर मात्रा में और सस्ते दामों में उपलब्ध कराएगा. कीन्स की थीसिस के 80 वर्ष पश्चात भी सभी के अमीर होने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आती.

      सन 1993 विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शूमाखर ने अपनी थीसिस Small is Beautiful में विकास के लिए आवश्यक तीन पूंजियों की चर्चा की जो पृथ्वी पर केवल सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं. ये पूँजियाँ हैं खनिज ईंधन, प्राणियों की प्रदूषण सहन करने की क्षमता तथा मनुष्य का स्वयं का सत्व. आधुनिक उत्पादन तंत्र इस तीनों को पूंजी न मानकर आय मानता है और भविष्य की चिंता न करते हुए लगातार उनका उपभोग कर रहा है. शुमाखर ने एक नए उत्पादन तंत्र की कल्पना दी जिसमें बड़ी पूँजी एवं बड़ी योजनाओं के स्थान पर छोटी पूँजी तथा छोटी योजनाओं को अपनाने की सलाह दी. बिजली उत्पादन, सिंचाई आदि के लिए उन्होनें बड़े बांधों की जगह छोटी परियोजनाओं के निर्माण पर बल दिया. घरेलु उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन एवं उपभोग स्थानीय स्तर पर सीमित कर माल की ढुलाई को कम किया जाए. उन्होनें सिद्ध किया कि इस प्रकार के विकेन्द्रित विकास से उपरोक्त तीनों पूंजियों का कुछ हद तक संरक्षण हो सकेगा.

      जल्दी से अमीर बनने के लोभ में लगभग सभी राष्ट्रों ने पश्चिमी देशों द्वारा सुझाए गए नव-उदारवाद को चुना. उत्पादन तंत्र की विनाशकारी गति को खनिज ईंधन के उपयोग के आंकड़ों से ही सिद्ध किया जा सकता है. सत्तर के दशक में विश्व में प्रतिवर्ष 700 करोड़ टन कोयले के बराबर ईंधन का उपयोग होता था जो लगभग 30 वर्ष में अर्थात सन 2000 में तिगुना होकर 2100 करोड़ टन कोयले के बराबर हो गया और सन 2030 तक यह फिर तिगुना हो कर 6300 करोड़ टन प्रतिवर्ष हो जाएगा.

      पिछले दो दशकों के नव-उदारवाद (Neo Liberalism) ने विकासशील देशों को लगभग उपनिवेश ही बना ही दिया है. उपनिवेश पूंजीपतियों के लिए कई महत्वपूर्ण संसाधन जैसे कि सस्ते मजदूर, जमीन, जंगल, आदि उपलब्ध कराते थे. साथ ही पूंजी के लिए निवेश तथा "बहु संख्या उत्पादन" अर्थात mass production के लिए बाज़ार भी उपलब्ध कराते थे. आज  पश्चिमी देश मनचाहा लाभ कमाने के लिए बड़ी पूंजी से पूरे विश्व के बाज़ार पर अपना वर्चस्व बनाने में लगे है. साथ चीन आदि कुछ देशों में वहाँ के सस्ते मजदूरों का उपयोग कर घरेलु उपयोग की वस्तुओं का mass scale पर उत्पादन कर पूरे विश्व में बेच रहे हैं.

जनता का शासन
      उपरोक्त वैश्विक सन्दर्भ में भविष्य को ध्यान में रखते हुए उपरोक्त तीनों पूंजियों के संरक्षण के लिए जनता को भी कुछ अधिक जिम्मेवारी ले सरकार की सहायता करनी होगी. जनता वोट देकर राज्यों तथा केंद्र में सरकार बनाती है और फिर अगले चुनावों तक उसका किसी भी सरकार से कोई संवाद नहीं रहता. सरकारें अपने हिसाब से विकास की प्राथमिकताएं तय करती, वार्षिक बजट में उनके लिए धन निश्चित करती हैं और राजस्व के लिए नए टैक्स लगाती हैं. यद्यपि सरकार के सभी खर्चों का नियमित रूप से प्रशासनिक लेखा-जोखा अर्थात audit होता है, इसके बाद भी भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है, जिसमें जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की लिप्तता भी बढ़ती जा रही है.

      यह पैसा जनता के विकास के लिए खर्च होता है, इसलिए यह जनता का कर्तव्य बनता है कि वह प्रशासन की उपरोक्त प्रक्रिया पर सतत नियंत्रण रखे. जनता सरकार का चुनाव अवश्य ही पार्टी आधार पर करती है, किन्तु यह आवश्यक है कि प्रशासन पर उपरोक्त नियंत्रण      अ-राजनैतिक हो. नियंत्रण के लिए धन अथवा खर्चे की राशि जितनी छोटी होगी उतना ही अच्छा होगा. इस प्रकार देश के विकास के किये ऐसे जन-संचार तंत्र का स्वरुप भी विकेंद्रीकृत होगा.

संचार के लिए उपयुक्त प्रतिमान   
      विकेंद्रीकृत विकास के लिए यह जनता तथा सरकार के बीच संचार की समस्या है. बड़ी एवं घनी आबादी वाले इस देश में प्रत्येक व्यक्ति सरकार से संवाद करे यह संभव नहीं है. दिल्ली प्रदेश की आबादी लगभग 1.5 करोड़ है. विधानसभा क्षेत्र में भी औसतन 2 लाख लोग रहते हैं. प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र कुछ 8 से 10 कालोनियों में बंटा हुआ है. यदि कालोनियों को संवाद के लिए एक यूनिट मानें तो प्रति यूनिट लगभग बीस हज़ार की आबादी बनती है. उसी प्रकार प्रत्येक ग्राम को भी एक यूनिट मानें तो भी अधिक से अधिक इतनी ही आबादी बनेगी. सरकार से संवाद की सुविधा के लिए इन्टरनेट टेक्नोलोजी का उपयोग कर सूचना को कांट-छांट के लिए कालोनी, क्षेत्र तथा प्रदेश के स्तर पर एकत्रित करना होगा.

      जनता के सन्देश को सरकार गंभीरता से ले इसके लिए प्रत्येक यूनिट में कुछ निःस्वार्थी एवं प्रबुद्ध व्यक्तियों का होना जरूरी है जो पहले तो कालोनी के विकास की दीर्घ-कालीन जरूरतों को समझें और फिर आपस में विचार विमर्श कर वार्षिक योजनायें बनाएं. इन्टरनेट के माध्यम से वे कालोनी के अन्य लोगों से अपनी योजनाओं पर राय भी ले सकते हैं. एक कालोनी में एक से अधिक समूह होने से सन्देश की गहनता में बढ़ोतरी ही होगी. 

      कालोनी के स्तर पर योजनायें बनाने के लिए यूनिटों को सरकार की विकास योजनाओं के बारे में अनेक सूचनाओं की आवश्यकता होगी जिन्हें वे सूचना अधिकार (RTI) के अंतर्गत सरकार से प्राप्त कर सकते हैं. सरकार को भी बजट का विवरण बनाते हुए उसे अधिक विस्तृत बनाना पडे.

      दिल्ली विधानसभा के दिसंबर 2013 के चुनावों में एक नयी पार्टी ने शासन सम्भाला है जिन्होनें घोषणा की है कि वे प्रदेश में जनता का शासन स्थापित करेंगे. पिछले कुछ वर्षों में देश में अनेक घोटाले हुए जिनमें जन-प्रतिनिधियों की भी लिप्तता साबित हुई. प्रतिक्रिया रूप में लोकपाल बिल के लिए आन्दोलन हुआ, जिसके बिल के तहत लोकपाल को शासन के किसी भी अधिकारी के खिलाफ जनता की शिकायत पर कार्यवाही करने का अधिकार दिया जाना था. इस बिल को केंद्र सरकार ने पारित कर दिया है. दिल्ली विधानसभा के लिए भी लोकपाल बिल लाने की बात हो रही है. इसी सन्दर्भ में किसी भी जन-प्रतिनिधि को वापिस बुलाने का अधिकार अर्थात Right to Recall की भी बात चल रही है. इस प्रकार दिल्ली क्षेत्र में उपरोक्त शोध के लिए अनुकूल राजनीतिक वातावरण उपलब्ध है. अन्य प्रदेशों के मुकबले राजधानी क्षेत्र होने से जनता में अपने अधिकारों को लेकर सजगता भी अधिक है. तकनीकी द्रष्टि से आम जनता में इन्टरनेट का उपयोग भी उचित है.

      प्रयोग के लिए प्रदेश के 70 विधानसभा क्षेत्रों में कुछ पर यह प्रयोग हो सकता है. यह प्रयोग ग्रामीण तथा शहरी दोनों स्तरों पर होना आवश्यक है. विधानसभा क्षेत्र की दीर्घकालीन एवं वार्षिक योजना बनाने के लिए पूरे क्षेत्र की सामाजिक एवं आर्थिक जानकारी आसानी से एकत्रित की जा सकती है. प्रदेश की विभिन्न योजनाओं एवं बजट प्रक्रिया को समझ यूनिटों की रचना की जानी चाहिए. सरकार एवं क्षेत्रों के बीच संवाद के लिए एक वेबसाइट बनायी जा सकती है. इस प्रक्रिया के दौरान प्राप्त हुए अनुभवों से अन्य प्रदेशों के लिए उपयुक्त जन-संचार तंत्र का निर्माण संभव है.


सुन्दर पृथ्वी की तीन पूंजीयां (संसाधन, स्वास्थ्य और सत्व)

1930 के दशक में पश्चिमी राष्ट्रों में मंदी का दौर था. सामान्य उपयोग की वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे थे. ऐसे में विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स ने आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोचकर यह कहा की कि वह दिन दूर नहीं जब सभी अमीर होंगे और जब सब अमीर हो जायेंगे तो अमीर-गरीब का झगड़ा भी ख़त्म होगा और सब जगह शान्ति हो जायेगी. उनका यह विश्वास उत्पादन तंत्र की शक्ति पर आधारित था. इसके लिए त्याग, चरित्र आदि भली चीज़ों की कोई आवश्यकता नहीं होगी. बल्कि लालच, ईर्ष्या, सूदखोरी पर आधारित उत्पादन तंत्र उपभोग की सभी वस्तुएं प्रचुर मात्रा में और सस्ते दामों में उपलब्ध कराएगा. विश्व में सभी मनुष्य अनेक सदियों तक पूर्ण भोग करते हुए रह सकेंगे. कीन्स की बात के 80 वर्ष पश्चात भी सभी के अमीर होने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आती. बल्कि 70 के दशक में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शुमाखर की चेतावनी सही साबित हुई कि मध्य एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका के देश उत्पादन तंत्र की जरूरत खनिज ईंधन भण्डार की वजह से अनेक युद्धों की विभीषिका झेलेंगे.  

उत्पादन तंत्र की तीन पूँजियाँ  
पिछली तीन सदियों से उत्पादन के तरीकों में जबरदस्त सुधार हुए हैं, परन्तु अभी तक ऐसा उत्पादन तंत्र नहीं बन पाया जिसमें प्रथ्वी की सुन्दरता बनी रहे. उत्पादन में प्रयोग आने वाले कच्चे माल के लिए हर वर्ष जंगल काटे जा रहे हैं. खनिज ईंधन के उपयोग से बडे शहरों में प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है, क्योंकि  उत्पादन तंत्र - बिजली संयंत्रों आदि के लिए खनिज ईंधन का उपयोग बढ़ता जा रहा है. जंगलात, खनिज ईंधन, कच्चा माल आदि को खनन कंपनी वाले अपने निवेश पर आय समझते हैं, परंतू धरती में इनकी सीमित मात्रा होने की वजह से इन्हें पूंजी मानना चाहिए, जो मानव जाति को उधार रूप में प्राप्त हुई है. आज उपभोग के लिए उत्पादन तंत्र से कारें, हवाई जहाज, कम्पयूटर्स आदि उपलब्ध हैं, जिनका अधिक से अधिक उत्पादन कर विश्व के सभी देशों में कुल उत्पाद अर्थात जीडीपी बढाने की होड़ है. परंतू स्वस्थ विकास के लिए प्रथ्वी को सुन्दर रखने की भी होड़ होनी चाहिए.  

पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में अर्थशास्त्री शुमाखर ने अपनी थीसिस Small is beautiful में खनिज के साथ-साथ दो और पूंजियों का भी ज़िक्र किया. प्रदूषण का कारण केवल खनिज ईंधन नहीं हैं. उत्पादन तंत्र के अनेक प्रकार के कचरे को या तो जमीन में दबा दिया जाता है या नदियों अथवा समुद्र में बहा देते हैं. नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों का कचरा तो इतना भयावह है कि केंसर जैसी बीमारियों का कारण बन सकता है, और हठी इतना है की २५ हज़ार साल प्रथ्वी में दबा रहने के बाद भी हानिकारक ही रहता है.   मनुष्य के साथ-साथ प्रत्येक जीव-जंतु एक निश्चित मात्रा से अधिक प्रदूषण नहीं झेल सकता. इस प्रकार सभी प्राणियों का जीवन भी एक पूंजी बन जाता है. जीव-जंतुओं की विविधता तथा सभी प्राणियों से आत्मीय सम्बन्ध बनाने का अवसर - इन सब के कारण ही तो प्रथ्वी पर जीवन सुन्दर है. देखा जाए तो प्रथ्वी पर इस पूंजी के अलावा और है क्या? इसी आनंद के विस्तार के लिए ही तो भारतीय जीवन दर्शन सभी प्राणियों में एक ही परम आत्मा के दर्शन करने की सलाह देता है. उत्पादन तंत्र से निकलने वाले कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है, और इस प्रकार मानव जाति की इस पूंजी का भी सही उत्पादन तंत्र न होने के कारण ह्रास हो रहा है.   

तीसरी बड़ी पूंजी उत्पादन की दौड़ में लिप्त मनुष्य स्वयं खुद है. क्या कोई व्यक्ति ख़ुशी-ख़ुशी उन खानों में काम करने जाएगा जहां हर समय जान का ख़तरा बना हुआ है. अधिक लाभ के लिए उत्पादकता बढ़ाने पर जोर देना, मजदूरों को नियंत्रण में रखने के लिए अनेक कूटनीतियाँ - उत्पादन में लगे मालिक, मजदूर सभी इन दबावों में रोजाना अप्राकृतिक व्यवहार करते-करते स्वयं विकृत होने लगते हैं. फिर ये व्यवहार कार्य-स्थल तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि परिवार में विशेषकर बच्चों को, समाज में मिलने-जुलने वालों को 'प्रदूषित' करते हैं. उत्पादन प्रक्रिया के कारण तनावों को समाज में बढते हुये अपराध, नशाखोरी, तोड़-फोड़, विद्रोह आदि से जोड़ा जा सकता है. पारिवारिक हिंसा इन्हीं तनावों का छिपा हुआ लक्षण है. बच्चों की शिक्षा से इस प्रदूषण का फैलाव कम किया जा सकता है. परन्तु आज की युवा पीढ़ी में बढ़ती हुई असामाजिक प्रवृत्तियाँ किसी राहत की ओर इशारा नहीं करतीं. मनुष्यत्व या मनुष्य का सत्व अथवा साधारण भाषा में चरित्र प्रथ्वी वासियों के लिए एक पूंजी है. इस पूंजी के ह्रास को नापने का कोई पैमाना नहीं है, परंतू यह निश्चित है कि उत्पादन प्रक्रिया से इस पूंजी का भी ह्रास हो रहा है.

Small is Beautiful
शुमाखर ने एक नए उत्पादन तंत्र की कल्पना दी जिसमें बड़ी पूँजी, बड़ी योजनाओं के स्थान पर छोटी पूँजी तथा छोटी योजनाओं को अपनाने की सलाह दी, जिसको विकासशील देश आसानी से अपना भी सकते थे. परन्तु जल्दी से अमीर बनने के लोभ में लगभग सभी राष्ट्रों ने पश्चिमी देशों द्वारा सुझाए गए नव-उदारवाद को चुना, तथा उपरोक्त तीनों पूंजियों की अवहेलना की गयी. उत्पादन तंत्र की विनाशकारी गति को खनिज ईंधन के उपयोग के आंकड़ों से ही सिद्ध किया जा सकता है. सत्तर के दशक  में प्रतिवर्ष 700 करोड़ टन कोयले के बराबर ईंधन का उपयोग होता था जो लगभग 30 वर्ष में अर्थात सन 2000 में तिगुना होकर 2100 करोड़ टन कोयले के बराबर हो गया, और सन 2030 तक यह फिर तिगुना हो कर 6300 करोड़ टन प्रतिवर्ष हो जाएगा.

आज विकास की महत्वाकांक्षाएं - जीडीपी की दहाई में विकास दर आदि, मालिक बनकर पूरे उत्पादन तन्त्र को ठेल रहीं हैं. उस विकास दर को पाने के लिए यदि पूरी ऊर्जा नहीं मिली तो उत्पादन बढाने के लिए विदेशी निवेश नहीं मिलेगा. फिर ऊर्जा के लिए यदि जंगलों की कटाई जरूरी है तो वह करनी ही होगी चाहे उसके लिए असंख्य लोग बेघर हो जाएँ अर्थात विकास की महत्वकांक्षा पाप में धकेल रही है.

वर्णाश्रम व्यवस्था
वस्तुतः भोगों की उचित मात्रा तो तय करनी ही होगी. इस विषय पर अपने ही देश में सदियों से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को समझा जाए उसे आज के अनुरूप बनाया जा सकता है. वर्णाश्रम व्यवस्था में चार आश्रम एवं चार वर्णों का योग है. इस के साथ चार पुरुषार्थ भी जुड़ें हैं:-
            ब्रहमचर्य      शूद्र          धर्म
            गृहस्थ       वैश्य         अर्थ
            वानप्रस्थ      क्षत्रिय        काम
            संन्यास       ब्राह्मण       मोक्ष


इस व्यवस्था में एक मुख्य बदलाव तो यह किया जाए कि वर्णों को जन्मजात न  माना जाये. अर्थात जन्म के समय हर मनुष्य शूद्र हो, क्योंकि वह अभी अज्ञानी है. ब्रहमचर्य में प्रथम पचीस वर्ष शिक्षा प्राप्त कर वह धनोपार्जन के लिए तथा परिवार चलाने के योग्य बने. पुरुषों के विवाह के लिए २५ वर्ष की आयु उपयुक्त है. अगले पचीस वर्ष गृहस्थ में वह पूरी शक्ति से धन कमाए. २५ वर्ष में इतना धन कमाया एवं बचाया जाना चाहिए जिससे बाकी के जीवन में कमाई के लिए अधिक प्रयास न करते हुए भी निर्वाह हो सके. वानप्रस्थ का समय देश, समाज एवं विश्व के लिए कुछ करने के लिए होना चाहिए. देश ने शिक्षा व्यवस्था के द्वारा ज्ञान दिया, समाज ने परिवार का सुख दिया. यह सही है कि अपनी आय में से सरकार को टैक्स दिया. परंतू अपने ५० वर्ष के अनुभव का लाभ देश आदि को मिले, जिससे कि आगे आने वाली पीढ़ी बेहतर प्रथ्वी की हकदार बने. सन्यासी के पास तो और भी अधिक अनुभव है, जो की वास्तव में देश, समाज एवं विश्व की पूजी है. सरकार को इस पूंजी का उपयोग नयी पीढ़ी की शिक्षा के लिए कर सकती है, और इसके बदले उसे उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करनी चाहिए. इस व्यवस्था से पूरे देश एवं समाज के भोगों पर भी एक नियंत्रण रहेगा. यदि ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ भोग में हैं तो वानप्रस्थ एवं संन्यास भोग छोड़ रहे हैं.