महंगाई के कारण यह भी हैं!

भारत में पिछली शताब्दी के प्रारम्भ से ही अनाज के व्यापार में आढती शामिल हो गए थे. फसल आने से पहले ही ये किसानो से तथा खाद्यान प्रोसेसर  जैसे  कि बिस्कुट आदि के उत्पादक, आदि से सौदा कर लेते थे. इससे किसानों को भी उचित दाम मिल जाता था तथा खाद्यान प्रोसेसर भी निश्चित मूल्य पर अपना सामान बेच पाते थे. परंतू सन 1990 से अनाज मार्केट के वेश्वीकरण होने से अनाज के स्थानीय एवं वैश्विक दामों में अंतर कम होने लगा तथा सटोरिये भी इस व्यापार में अपना पैसा लगाने लगे. भारत सरकार ने सन 1993 में काबरा कमेटी बनायी जिसकी रिपोर्ट के आधार पर 17 मुख्य खाद्य पदार्थों को सट्टा गतिविधियों के लिए खोल दिया गया, परंतु गेहूं, दालें, चाय, चीनी आदि घरेलू उपयोग की वस्तुओं को प्रतिबंधित ही रखा.

सन 1996 में विश्व बैंक तथा अंकटाड (UNCTAD) की एक संयुक्त रिपोर्ट ने सटोरिओं के इस व्यापार को सरकार के नियंत्रण से बाहर रखने की सलाह दी. सन 2003 में खाद्य पदार्थों के सट्टाबाज़ार को जबरदस्त बढ़त मिली जब भारत सरकार ने घरेलू उपयोग की वस्तुओं गेंहू आदि के लिए भी इस व्यापार को छूट दे दी. इस सदी के शुरू में अमरीकी सरकार ने वित्तीय सेवाओं को अनाज व्यापार में पैसा लगाने के लिए मुक्त कर दिया था. डॉट.कॉम बाज़ार के फेल होने से मुख्यतः पश्चिमी देशों के बड़े बैंक, विश्व विद्यालयों के पेंशन फण्ड आदि अपने पैसे को अनाज के व्यापार के सट्टे में लगाने लगे. अमरीकी कांग्रेस के सामने दिए गये एक बयान के अनुसार सन २००३ से २००८ के बीच १९०० प्रतिशत की वृद्धि होकर अनाज के सट्टे में लगने वाले वाला पैसा २०० बिलियन डालर हो गया था.

इस व्यापार के ७० प्रतिशत भाग को अमरीका के  केवल चार संस्थान नियंत्रित करते हैं. निवेश को लम्बे समय तक रोके रखने की क्षमता की वजह से यह अनाज की जमाखोरी ही है, जो हमेशा से घरेलु बाज़ार में दाम बढ़ने का मुख्य कारण होती रही है. अनेक अध्ययनों से भी यह पुष्टि हुई है कि विश्व स्तर की इस सट्टाबाजरी से अनाज के दामों में तेज़ी से वृद्धि हुई है (EPW July 9, 2011). देसी बाज़ार में अनाज की किल्लत पैदा कर दाम बढाने में हमारे अपने निर्यातकर्ता भी सहयोग करते हैं, जो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेज़ी होने का फायदा उठा कर निर्यात करते रहे हैं.  

यही हाल विश्व के पेट्रोलियम मार्केट का भी हुआ है. सन 2000 में अमरीका सरकार ने ऊर्जा तथा धातु के सट्टा बाज़ार में पैसा लगाने के लिए भी अपने वित्तीय संस्थानों को मुक्त कर दिया था. पेट्रोलियम मार्किट की सट्टाबाजारी से दामों में इतने उतार-चढ़ाव आये जितने सन 1973 के झटके के समय भी नहीं आये थे. संयुक्त राष्ट्र संघ की एक संस्था के अध्ययन से भी यह सिद्ध हुआ है कि सटोरिओं की गतिविधिओं से पेट्रोलियम के दामों में तेज़ी आती है.

भारत सरकार ने भी देशी तथा विदेशी सटोरिओं की सुविधा के लिए सन 2003 में मुंबई तथा अहमदाबाद    में तीन इन्टरनेट सुविधा से लैस इलेक्ट्रॉनिक्स एक्सचेंजेस स्थापित किये थे. तब से अनाज का यह व्यापार 0.67 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर सन 2010 में 9.02 लाख करोड़ रुपये हो गया था. मध्यप्रदेश के सोयाबीन पैदा करने वाले धार क्षेत्र के लिए किये गए एक अध्ययन में इन नए एक्सचेंजेस का वहां के आढती व्यापार पर प्रभाव जाना गया (EPW July 31, 2010). इन नए एक्सचेंजेस के साथ व्यापार करने के लिए इन्टरनेट सहित केवल एक कंप्यूटर की जरूरत होती है. शुरू में लोगों में बड़ा उत्साह था, परंतू एक बड़े लगभग १० करोड़ के झटके ने आढती व्यापार की कमर तोड़ दी.
आढती व्यापारियों को सोया प्रोसेस करने वाली कम्पनिओं से माल का बाज़ार मूल्य मिल जाता था. बाज़ार में माल के आने पर अपने लाभ को ध्यान में रखते हुए बोली लगाकर वे माल खरीदते थे. सरकारी अफसर की निगरानी के कारण आढती दामो को ज्यादा नीचे नहीं गिरा सकते थे. अब आढती इन नए एक्सचेंजेस के साथ व्यापार करने के लिए बिलकुल भी इच्छुक नहीं हैं. यदि माल की गुणवत्ता में जरा से भी फेर-बदल होती है तो सटोरी माल को रिजेक्ट कर देते हैं, जबकि पहले प्रोसेस कम्पनियां  कुछ पैसे काट कर इन्हें पेमेंट कर देती थी.


देश में सोयाबीन की कुल पैदावार लगभग 70 हज़ार टन है, जबकि सट्टा बाज़ार में रोज़ ७२ हज़ार टन का कारोबार होता है. सटोरिये बाज़ार की उठा-पटक से कहीं ज्यादा मुनाफा कमाते हैं, न की माल के लेन-देन से, ओर अपनी हरकतों से बाज़ार को अन्य सभी के लिए खराब कर देते हैं. बाज़ार को सटोरिओं के नियंत्रण पर छोड़, अपने हाथ कटा कर, सरकार महंगाई को कैसे नियंत्रित कर सकती है.   

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
+919958806745, (Delhi) +918962166336 (Bhopal)
Email : kanhaiya@journalist.com
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अगला प्रधानमंत्री कैसा हो?

मई 2014 में देश के नए प्रधानमंत्री संविधान के अनुसार काम करने की शपथ लेंगे. आज देश की जनता के सामने महंगाई तथा भ्रष्टाचार दो मुख्य मुद्दे हैं. लगभग 15 करोड़ नए युवा अपने नए प्रधानमंत्री का चुनाव करने के लिए पहली बार अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे. नवयुवकों के लिए विकास मुख्य मुद्दा है, तथा कामक़ाज़ी महिलाएं शासन से सुरक्षा की अपेक्षा रखती हैं. जनता की आशंकाएं इस बात को लेकर अधिक हैं कि क्या नए प्रधानमन्त्री उनकी आकांक्षाओं पर खरे उतरेंगे.

जनता से अपील
जनता से भी यह अपेक्षा है कि इस अंतरिम समय में चेतन होकर अपने मत के बारे में जरूर सोचें. चुंकि इस बार प्रधानमन्त्री पद के लिए विकल्पों की घोषणा लगभग हो चुकी है, इसलिए उन्हें अपने मत को निश्चित करने में आसानी होगी. साझा सरकारें देश की अपेक्षा पर पूरी तरह से खरी नहीं उतरी हैं.  बहुमत वाली पार्टी के लिए पांच वर्ष तक बहुमत बनाये रखने के लिए अन्य घटकों से गुप्त समझौतों के कारण प्रधानमन्त्री के हाथ बंधते हैं. वे भ्रष्टाचार के मामलों में मजबूती से कार्यवाही नहीं कर सकते. यूपीए-1 मंत्रिमंडल बनाने के समय घटकों से समझौते करने की मुश्किलें राडिया टेप्स प्रकरण से प्रकाश में आयी. इसलिए जनता से भी अपेक्षा है कि एक पार्टी को बहुमत देकर प्रधानमन्त्री को एक मजबूत चार पाये का सिंहासन दें.

राजनैतिक पार्टीयों से अपेक्षा  
देश की बड़ी राजनैतिक पार्टीयाँ  भारत की विशिष्ट सभ्यता को समझकर अगली लोकसभा के लिए अपनी मानसिकता  बनाएं. देश की समस्त जनता को रामराज्य जैसी राजनीतिक व्यवस्था पर हमेशा से विश्वास रहा है. उन्ही मान्यताओं के चलते देश की अधिकाँश जनता प्रधानमंत्री को राजा के रूप में देखती है. वह केवल प्रधानमंत्री को जानती है. यहाँ तक की समस्त राज्यों की जनता भी प्रधानमंत्री की ही ओर उन्मुख होती है. प्रधानमन्त्री किस पार्टी से सम्बन्धित हैं यह भी जनता के लिए कोई ख़ास मायने नहीं रखता. देश की वरिष्ठ पार्टीयाँ प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय करते समय यह निश्चित करें कि उम्मीदवार के लिए सभी सम्प्रदाय तथा जाति एक समान हैं. "एकं सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति" अर्थात विभिन सम्प्रदायों एवं जातिओं आदि के महापुरुष केवल सच के पुजारी रहे थे. इसलिए इस देश में सभी सम्प्रदायों एवं जाति का सम्मान बराबर रूप से होना चाहिए.  

प्रधानमन्त्री पार्टी द्वारा जनता को दिया गया एक नायाब तोहफा हो, जिसे देने के बाद पार्टी उसे स्वयं से मुक्त कर देश को सौंप दे. पार्टी उसे अपना मंत्रिमंडल बनाने की पूरी स्वतंत्रता दे. अगले पांच वर्ष पार्टी प्रधानमन्त्री का कवच बनकर विपक्ष से लोहा ले तथा पार्टी को अनुशासित कर बहुमत बनाए रखे. 


प्रधानमन्त्री से संघर्ष की अपेक्षा
देश में केवल एक नेता होता है. प्रधानमन्त्री के रूप में संविधान उसे कार्यपालिका के प्रमुख का दर्ज़ा देता  है. सभी कार्य प्रधानमन्त्री नहीं कर सकते इसलिए मंत्रिमंडल में कार्य को विभागों में विभाजित कर प्रत्येक विभाग का एक मंत्री बनाया जाता है. मंत्रिमंडल के सदस्य चर्चा के लिए अपने-अपने विषयों पर योजनाएँ बना कर लाते हैं. प्रधानमन्त्री धैर्यपूर्वक विषयों को पूरी तरह समझकर, स्वयं का मत बनाकर ही  चर्चा आरम्भ करें. भगवान् महावीर के "अनेकान्तवाद" सिद्धांत के अनुसार सच के लिए संघर्ष जरूरी है. जब तक किसी विषय पर विरोधी मत नहीं आता सच दिखाई नही देता. इसलिए मंत्रिमंडल के सदस्य भी ऐसे हों कि मतैक्य बनाना प्रधानमन्त्री के लिए एक चुनौती हो. वे लचीलापन भी दिखायें, मत विभाजन भी करायें, परंतु तब तक संघर्ष करते रहे जब तक कि बहुमत उनके पक्ष में न आ जाये. किसी भी विषय पर यदि बहुमत उनके पक्ष में नहीं है तो दबाव में बात मानने की बजाय पद छोड़ने में संकोच न करें. मंत्रिमंडल से किसी को बाहर करना तो उनके अधिकार में है ही.  

यजुर्वेद में कहा है कि यदि भूमि से उपज लेनी है तो उसे खोदना जरूरी है, परन्तु इसके बाद उसे चेतन समझ उसका उपचार करना भी जरूरी है. इसलिए मंत्रिमंडल में संघर्ष के बाद सौहार्द को वापिस लाना भी प्रधानमन्त्री का ही दायित्व है.


भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए विकेंद्रीकरण
देश में भ्रष्टाचार का मुख्य कारण प्रशासन में जनता की भागीदारी है, जो बहुत कम है. आज़ादी के पूर्व से चली आ रही ब्रिटिश शासन की मानसिकता को तिलांजलि दे, सन 1993 में संविधान के 73 तथा 74 वें संशोधनों द्वारा ढाई लाख से ऊपर पंचायतों तथा चार हज़ार नगरपालिकाओं को सत्ता में भागीदार बनाकर शासन में एक तीसरा स्तर जोड़ा गया था. परन्तु केंद्र सरकार तथा लगभग सभी राज्य सरकारों ने पिछले बीस वर्षों में सत्ता के विकेंद्रीकरण का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया. किसी भी ईमानदार नेता के लिए भ्रष्टाचार मजबूरी ना बने इसकी पर्याप्त व्यवस्था करना आवश्यक है.

महंगाई के कारणों को जानने के लिए वैश्विक बाज़ार को भी समझना जरूरी है. विश्व बैंक आदि वैश्विक संस्थाएं पिछले बीस वर्षों से लगातार सभी देशों को अपने बाज़ारों को मुक्त करने के लिए वहाँ की सरकारों पर दबाव डालती रही हैं. इसका लाभ उठाकर कुछ पश्चिमी देशों ने विश्व के मुख्यतः खाद्यान्न तथा पेट्रोलियम बाज़ारों पर अपना कब्ज़ा कर रखा है. उनकी बड़ी पूंजी की उठा-पटक ने देश के खाद्यान्न क्षेत्र के पारंपरिक आढती व्यापार को बहुत नुकसान पहुंचाया है. साथ ही विश्व स्तर पर भी उपरोक्त पदार्थों के दामों में  वृद्धि हुई है. देश की केंद्रीभूत सत्ता इन दबावों का प्रतिकार करने में असमर्थ रही है, जिसके चलते भ्रष्टाचार से भी महंगाई बढी है.

विकास के गतिरोध  
शुद्ध वायु के रोम-रोम में प्रवेश से ही एक स्वस्थ शरीर तैयार होता है. विकेंद्रीकरण से देश के शासन तंत्र को वैसी ही शक्ति मिलेगी जो देश के तीव्र विकास के लिए बहुत आवश्यक है. गांवों के स्तर पर अभी शासन कौशल की बहुत कमी है. साथ ही कम्प्यूटर तथा इंटरनेट आदि आधुनिक संचार साधनों के उपयोग में भी उन्हें प्रशिक्षित करना जरूरी है. राज्य सरकारों को प्रशिक्षण की यह सुविधा ग्राम स्तर पर ही उपलब्ध करानी होगी. प्रधानमन्त्री राष्ट्रीय विकास परिषद् में इस विषय पर बातचीत कर राज्यों को एक समय सीमा में इस काम को पूरा करने का दायित्व दे सकते हैं. इस एक कदम से वे देश की 60 से 70 प्रतिशत जनता के चहेते बन जायेंगे. 

शहरों की समस्या भिन्न है. मुंबई आदि महानगर देश के विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं. देश के मुख्य निर्यात उद्योग आईटी, कार उत्पादन इन्ही शहरों से चलते हैं. देसी तथा विदेशी निवेश भी इन्ही शहरों में आता है. इसलिए उद्योगों के लिए जरूरी कुशल कारीगर , भूमि, बिजली, अन्य  नागरिक सुविधाओं को उपलब्ध कराना और उनका रख-रखाव, बहुत जरूरी हो जाता है. परन्तु ब्रिटिश शासन शासन काल से ही महानगरों के योजनाबद्ध विकास पर ध्यान नहीं दिया गया है. सन 1993 के 74 वे संशोधन द्वारा महानगरों के योजनाबद्ध विकास के लिए राज्यों को महानगर योजना कमेटीयों का गठन कर उचित सत्ता हस्तान्त्तरण के लिये कहा गया था. परन्तु राज्य सरकारें ने इन शहरों पर अपना वर्चस्व कम होने की आशंका से पिछले बीस वर्षों में इस दिशा में कोई कारगर प्रयास नहीं किया है.

देश में लगभग 8 हज़ार छोटे शहर हैं. इनकी आबादी भी तेज़ी से बढ़ रही है. साथ ही पिछले दो दशकों में तकनीकी तथा प्रबंधन शिक्षा के अप्रत्याशित विकास ने इन शहरों को भी विकास की ओर उन्मुख कर दिया है. इन 8 हज़ार छोटे शहरों में से केवल 4 हज़ार ही विधिवत स्थापित हैं अर्थात उनमें नगपालिकाएं हैं. परंतू इन विधिवत स्थापित शहरों की भी सफाई आदि नागरिक सुविधाओं को देने में प्रशासन के सामने राजनीतिक हस्तक्षेप, कर्मचारिओं की यूनियन, जनता के प्रतिनिधिओं से ताल-मेल आदि अनेक समस्याएं रहती हैं. इन समस्याओं के समाधान पर EPW March 22, 1997 में प्रकाशित हुई सूरत शहर के कायापलट की कहानी प्रशासनिक अधिकारिओं के अलावा देश के नए नेताओं के लिए भी शिक्षाप्रद होगी. प्रस्तुत लेखक ने इस कहानी का हिदी रूपांतर "शहरी प्रशासन के विवाद बिंदु" नाम से प्रकाशित किया है.

अन्य 4 हज़ार छोटे शहर जो देश के विकास में और अधिक योगदान दे सकते हैं. परन्तु पंचायतों के भरोसे न्यूनतम नागरिक सुविधाओं से वंचित होने से कुछ अधिक करने में असमर्थ हैं. इनपर राज्य सरकारों का अधिकाँश में कोई ध्यान नहीं है.

विकास कार्यों की समीक्षा
निचले स्तर पर सत्ता के कार्यों की समीक्षा प्रधानमन्त्री तथा उनके मंत्रिमंडल का मुख्य कार्य होना चाहिए. संविधान में चुनाव आयोग (EC), केन्द्रीय सतर्कता आयोग (CVC) तथा कैग Comptroller and Auditor General) को स्वायत्ता दी हुई है. केन्द्रीय जांच विभाग (CBI)  गृह मंत्रालय के अंतर्गत होते हुए भी काफी हद तक स्वायत्त है. विकेंद्रीकरण के चलते उपरोक्त संस्थाओं का जबरदस्त विस्तार कर देश के कोने-कोने की खबर रख भ्रष्टाचारिओं को सख्त सज़ा देने से जनता पूरे उत्साह से विकास में तत्पर होगी. महाभारत में युद्धोपरांत युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने सुशासन के लिए दंड की महिमा का वर्णन किया था.

महिला सुरक्षा
खाली दिमाग शैतान का घर होता है. महिलाओं के प्रति अपराधों के पीछे नौजवानों में बढती हुई बेरोज़गारी एवं नैतिक मूल्यों का ह्रास है. आज देश में अनेकों नौजवान तकीनकी तथा प्रबंधन की शिक्षा पाकर भी खाली बैठे हैं, जिनमें से अनेक तो गाँवों से हैं. आज ढाई लाख पंचायतें तकनीकी एवं प्रबंधन ज्ञान की कमी से देश के विकास में योगदान नहीं दे पा रहीं हैं. बेरोज़गारी दूर करने के अन्य प्रयत्नों से महिलाओं के प्रति अपराधों में भी कमी आएगी.  

आखिर में प्रधानमन्त्री पद के संभावित उमीदवारों के लिए एक सुझाव: इसमें कोई शक नहीं कि उच्चतम पदों पर काम करने में जबरदस्त दबाव झेलने पड़ते हैं, जाने-अनजाने गलतियाँ होना भी स्वाभाविक है. जेल जाने की आशंका से पद छोड़ने में भी डर लगता है. परन्तु यदि आपको अपनी गलतियों का अहसास है, और आप वास्तव में सर्वोपरि, सर्व सामर्थ्य युक्त जनता से क्षमा माँगना चाहते हैं तो विश्वास करें इस देश की जनता विशाल हृदय की है, वह तालिबानी क़ानून नहीं मानती, वह आपको अवश्य माफ़ कर आगे काम करने के लिए प्रोत्साहित करेगी.   


अगले 7-8 महीने बाद जब जनता अगली सरकार चुनेगी तो निश्चित ही उसके मानस पटल पर ये एजेंडे भी होंगे. 

Kanhaiya Jha
(शोध छात्र)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
+919958806745, (Delhi) +918962166336 (Bhopal)
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सत्ता का विकेंद्रीकरण

किसी भी विकास का आधार ग्राम इकाई होती है. राज्य सरकारें बड़े आकार के बावजूद ग्राम स्तर पर जन सेवाएँ जैसे बिजली, पानी, अच्छी सड़क - यहाँ तक की आवारा मवेशियों को हटाना, आदि समस्याओं को सुलझाने में भी अक्षम नज़र आती हैं. यह इसलिए क्योंकि ग्राम स्तर पर धन, स्टाफ आदि की व्यवस्था तथा प्रबंध सही नहीं है.

भारत में सदिओं से पंचायतों ने ही स्वायत्त ग्राम इकाईयों द्वारा पूरे देश का शासन चलाया था. गाँव के प्रमुख लोग स्वयं आपस में बैठकर बिना किसी चुनाव के पंचायत का निर्माण कर लेते थे. गांधीजी ने केंद्रीकृत (Centralized) ब्रिटिश संसद प्रणाली को एक "बिना आत्मा की मशीन" कहा था. आज़ादी के पहले की कांग्रेस सरकारों के अनुभव से उनका यह निश्चित मत बना था की सत्ता के केन्द्रीकरण से भ्रष्टाचार बढेगा. इसलिए उन्होंने स्वायत्त ग्राम इकाईयों के आधार पर विकेंद्रीकृत (Decentralized) शासन तंत्र स्थापित करने की बात कही थी. प्रजातंत्र में प्रजा को शासन का अधिकार देकर सशक्त करना चाहिए. पिछले 66 वर्षों  के अनुभव से यह कहा जा सकता है की केवल वोट के अधिकार से प्रजा सशक्त नहीं होती जिससे वह सत्ता की मनमानी को रोक सके.

संविधान के पार्ट  IV में पंचायतों की भूमिका गांधीजी के "ग्राम स्वराज" से भिन्न रखी गयी. डाक्टर अम्बेडकर के अनुसार गाँवों के जाति-पांति आदि आधारों पर बंटे होने के कारण पंचायतें स्वराज के लिए सक्षम नहीं थी. नेहरूजी ने भी ग्राम पंचायतों की जगह सांसदों एवं विधायकों को ही प्राथमिकता दी.

सन 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद् ने बलवंत राय मेहता कमेटी की सिफारिशों को मानकर त्रिस्तरीय पंचायती राज्य संस्था के गठन को स्वीक्रति दी. शासन के इस तीसरे स्तर पर सबसे नीचे गाँवों में ग्राम-पंचायत तथा नगरों में नगरपालिकाएं एवं वार्ड्स रखे गए. मध्य स्तर पर ग्रामीण क्षेत्र के लिए ग्राम-समितियां तथा शहरों में नगर निगम अथवा नगर पंचायत को बनाना था. पंचायती राज्य संस्था के शीर्ष पर जिला परिषद् बनाने का प्रावधान था. यह पूरी पंचायती राज संस्था (PRI) राज्य सरकार के नियंत्रण में रखी गयी. सन 1950 के दशक में सभी राज्य सरकारों ने इस व्यवस्था को मान लिया था और पंचायतों को स्थापित करने के लिए क़ानून भी बनाये थे, किन्तु सत्ता का कोई विकेंद्रीकरण नहीं हो सका.

सन 1993 में 73 तथा 74 वें संविधान संशोधन से चुनाव द्वारा पंचायतों के गठन को अनिवार्य किया गया. इस क़ानून में उन्हें विकास तथा सामजिक न्याय के लिए सत्ता एवं जिम्मेवारी देने का प्रावधान था. इसके अलावा संविधान के 11 वें शिडयूल में दिए गए 29 विषयों के क्रियान्वन की जिम्मेवारी भी उन्हीं दी गयी. ब्लाक स्तर पर क्षेत्र के सांसद तथा विधायकों को भी समिति में रखा गया तथा ब्लाक विकास अधिकारी को समिति का प्रशासक बनाया गया. जिला स्तर पर भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के किसी अफसर को पूरी व्यवस्था का प्रशासक बनाया गया.  क़ानून में पंचायत को भी टैक्स आदि लगाने का अधिकार दिया गया.

परंतू पंचायतों के अधिकारों का मामला राज्य सरकारों पर ही छोड़ दिया गया. देश के 15 राज्यों में किये गए एक अध्ययन (EPW: July 5,2003) के अनुसार राज्यों द्वारा पंचायतों को जिम्मेवारियां तो दी गयीं परन्तु सत्ता का उचित हस्तांतरण नहीं किया गया. गोवा में राज्य स्तर पर 50000 प्रशासनिक अधिकारिओं का वेतनमान 250 करोड़ रूपये है. परंतू राज्य की 67 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के शासन के लिए निर्वाचित 188 ग्राम पंचायतों के लिए कर्मचारी बहुत ही कम हैं. यहाँ पर तीन पंचायतों के बीच एक सचिव तैनात किया गया है. इस कारण से टैक्स वसूली, जो की उनका मुख्य कार्य है, वह भी नहीं हो पाता. इस प्रकार संविधान की अवहेलना हो रही है.  

केन्द्रीकरण की जो प्रक्रिया राज्य स्तर पर है वही केंद्र स्तर पर भी आज़ादी के समय से ही चल रही है. सन 1991 में नव-उदारवाद अपनाने के बाद तो इसमें और गति आयी. केंद्र से राज्यों को उनके बजट में सहयोग एक फार्मूले के तहत मिलता है. इस राशि में केंद्र की अपनी महत्वपूर्ण (Flagship) योजनाओं का भी पैसा होता है. 11 वीं पंचवर्षीय योजना में यह राशि बढ़ते-बढ़ते कुल बजट सहयोग के 42  प्रतिशत तक पहुँच गयी थी. केन्द्रीकरण राष्ट्रीय विकास परिषद् में भी केंद्र एवं राज्यों के बीच टकराव का विषय बना रहा है. फिर सरकार द्वारा गठित अनेक कमीशनों ने भी इस विषय पर अपनी चिंता व्यक्त की है.

शासन यदि संविधान के अनुसार चले तभी सुशासन कहलायेगा. जब संविधान में पंचायती राज्य संस्थाएँ बनाने के बारे में लिखा है तो केंद्र का यह कर्तव्य बनता है की उन संस्थाओं को एक निश्चित सीमा में बनवाया जाए. यदि कोई राज्य सरकार जान बूझ कर कोताही करती है तो उसके खिलाफ कार्यवाही की जाए. अच्छा तो यह हो की जो विषय केवल केंद्र की लिस्ट में आते हैं उनकी योजनायें भी नीचे के स्तर के सहयोग से बनाई जायें.  
Kanhaiya Jha
(शोध छात्र)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
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जनता सर्वोपरि है

ये विचार सुप्रीम कोर्ट के हैं. सन 1991 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना कर मेघालय सरकार को धारा 356 के अंतर्गत बर्खास्त कर दिया गया था. मामले को तुरंत संज्ञान में लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के गवर्नर को भी कुछ हिदायतें भेजी थीं. परंतू दोनों सदनों से स्वीकृति होने पर राष्ट्रपति की  घोषणा पर विधान सभा बर्खास्त कर दी गयी. यह मामला बोम्मई बनाम भारत सरकार (1994) नाम से जाना जाता है. इस पर निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की घोषणा को निरस्त कर दिया था. कोर्ट के सामने विपक्ष ने यह दलील दी कि कार्यपालिका का भाग होने से गवर्नर आपके आदेशों को मानने से इनकार कर सकता था. इस पर तीव्र प्रतिक्रिया करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने धारा 144 की याद दिलाई जिसके तहत सभी नागरिक एवं न्यायिक अधिकारिओं का यह दायित्व है की वे सुप्रीम कोर्ट तथा उसके निर्देशों के पक्ष में कार्य कर उनके क्रियान्वन में सहायता करें. इसी मामले में एक प्रश्न पर कि सरकार के तीनों अंगों - न्यायपालिका, कार्यपालिका, तथा विधानपालिका में कौन बड़ा है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा की यह बेकार की बहस है, हाँ इसमें कोई शक नहीं कि जनता सर्वोपरि है.

यह सच है की सुप्रीम कोर्ट के ऐसे निर्णयों से जनता सर्वोपरि महसूस करती है. जनता की ख़ुशी ही न्यायाधीशों को शक्ति देती है. प्रजातंत्र में सुशासन का आधार सरकार के तीनो अंगों के मध्य संघर्ष है. भगवान् महावीर के "अनेकान्तवाद"  सिद्धांत के अनुसार सच के लिए संघर्ष जरूरी है. संसद में भी सच के लिए पक्ष तथा विपक्ष के बीच संघर्ष जरूरी है. जब तक किसी विषय पर विरोधी मत नहीं आता सच दिखाई नही देता. यदि सरकार का कोई अंग संघर्ष से विरत होता है तो सुशासन को धक्का लगता है. साथ ही वह अंग जनता का विश्वास भी खो बैठता है. जनता का विश्वास कि देश में क़ानून का राज्य चलता है - यह ही केवल उसकी शक्ति है, जिसकी वजह से ही वह सर्वोपरि है.
नरसिम्हा राव के शासन के दौरान (1991-96) तांत्रिक चंद्रास्वामी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अनेक वर्षों से लंबित अपराधिक मामलों की जांच-पड़ताल सरकार की तीन संस्थाएं - सीबीआई, राजस्व विभाग तथा दिल्ली पुलिस, कर रहीं थीं. सुप्रीम कोर्ट की अनेक चेतावनीयों के बाद भी ये अपनी जांच पूरी नहीं कर रहे थे, तथा चंद्रास्वामी को गिरफ्तार करने से कतरा रहे थे. राजस्व सचिव, जिनका विभाग फेरा के अंतर्गत करोड़ों रुपये के घोटालों की जांच कर रहा था, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को जबाब देते हुए कहा कि आप हमसे किसी चमत्कार की आशा न करें, आपके चाहने पर भी हम उनके खिलाफ तुरंत कार्यवाही नहीं कर सकते.

सीबीआई ने भी कुछ संतोषजनक जबाब नहीं दिया था. सुप्रीम कोर्ट के अलावा सीबीआई के कुछ पूर्व अधिकारिओं का, जिन्होंने पहले इन मामलों में जांच-पड़ताल की थी, यह निश्चित मत था कि सीबीआई जान-बूझ कर देरी कर रही है. मार्च 1991 में संस्था के एक सह-निदेशक जब इसी मामले की जांच पूरी करने वाले थे तो उनका अचानक तबादला कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने संस्था द्वारा जांच-पड़ताल में की जा रही देरी पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि वे लोग जिनके "विशेष सम्बन्ध" हैं कुछ भी कर के बच जाते हैं.   
उस समय चंद्रास्वामी के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव से सम्बन्ध जग-जाहिर थे. श्री राव पर भी अविश्वास प्रस्ताव के विरुद्ध अपनी सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को रिश्वत देने के आरोप लगे थे. इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने सन 1997 में, जब श्री राव प्रधानमन्त्री नहीं थे,  उन्हें तथा उनके 18 सहयोगी राजनेताओं को न्यायिक जांच के समक्ष पेश होने को कहा था. श्री राव ने संविधान से सांसदों को प्राप्त विशेषाधिकार का हवाला देते हुए कोर्ट का आदेश मानने से इनकार कर दिया था. सन 2000 में अनेक वर्षों की न्यायिक प्रक्रिया के बाद इसी मामले में श्री राव एवं उनके एक वरिष्ठ मंत्री को सज़ा भी मिली थी.

देश के राजनीतिक वातावरण से सभी परिचित थे. जिसके बारे में बाद में पूर्व राष्ट्रपति श्री एपीजे अब्दुल कलाम ने सांसदों को इंगित कर कहा था कि "सरकार के लिए उपयुक नंबर जुटाने के लिए वैधानिक सीटों को खरीदना एक मजबूरी है. ये सीटें भी संदिग्ध एवं अलोकतांत्रिक तरीकों से हासिल की जाती हैं, जिसकी वजह से जनता अनेक बार प्रजातंत्र के प्रति आशंकित होती रही है". सभी जांच संस्थाएं किसी न किसी मंत्रालय के अंतर्गत आती थीं. यह सही है कि किसी निर्दोष को सजा न मिले, परन्तु यह भी जरूरी था कि न्यायालय की अकर्मण्यता के सन्देश से अन्य "विशेष सम्बन्ध" वाले व्यक्ति क़ानून की अवहेलना करने लगें. सुप्रीम कोर्ट अपने पूर्व निर्णयों के अनुसार सरकार के किसी भी अंग के कामों की समीक्षा करने के लिए अधिकृत था, जिससे सभी को उपयुक्त सन्देश भेजा जा सकता था.

क़ानून में जनता के विश्वास के लिए अन्याय का तुरंत प्रतिकार करना बहुत जरूरी होता है. यह सही है कि मेघालय सरकार वाला मामला धारा 356 से सम्बन्धित होने के कारण एक गंभीर मसला था और सही निर्णय के लिए तीन वर्ष लगे. यदि राष्ट्रपति की विधान सभा बर्खास्त करने की घोषणा को किसी तरह भी नहीं रोका जा सकता था तो तुरंत मीडिया का सहारा लेकर सुप्रीम कोर्ट को जनता का विश्वास अवश्य ही जीतना चाहिए था.
संविधान की धारा 32 के माध्यम से न्यायालय जनता से जुड़ता है. इसके अंतर्गत न्यायालय किसी भी अन्याय का स्वयं संज्ञान लेकर कार्यवाही कर सकता है. शास्त्रों में इसकी उपमा राजा इंद्र की हज़ार आँखों के रूप में मिलती है, जिनका उपयोग कर वह ऋषिओं की तपस्या की भी समीक्षा करता था. अन्याय की शुरुआत बहुत ही अहानिकारक रूप में होती है, जिसकी अनदेखी करने पर वह बहुत तेज़ी से वट वृक्ष बन सकता है. सुप्रीम कोर्ट से जनता ऐसी ही सूक्ष्म दृष्टि की अपेक्षा रखती है, जिसका परिचय वह चंद्रास्वामी की जांच कर रहे पूर्व सहनिदेशक के तबादले पर स्टे आर्डर दे कर, कर सकता था.     


आज निचले स्तर की अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक असंख्यों मामले निपटारे के लिए पड़े हैं. यदि सुप्रीम कोर्ट कथनी के साथ-साथ करनी में भी विश्वास करता है तो जनता को सर्वोपरि करने के लिए समस्या का समाधान भी उसे ही करना होगा. न्यायिक प्रक्रिया में वरिष्ठ होने के नाते यह उसका ही दायित्व है. भारतमाता की रक्षा के लिए सीमा पर लड़ने वाला एक साधारण सैनिक भी गोली लगने के डर से यदि फ्रंट छोड़ दे तो पूरा देश युद्ध हार सकता है. यह जनता ही वह भारतमाता है जिसका विश्वास बनाए रखना के लिए संघर्ष तो करना ही होगा.

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
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देश के विकास में मीडिया का ऐसा भी उपयोग हो

विकेंद्रीकरण के लिए
      विश्व में सूचना एवं तकनीकी क्रांति के कारण संवाद का स्वरुप बदल गया है. आज भारत के पास अत्याधुनिक सूचना एवं संचार के साधन उपलब्ध हैं, इस कारण से किसी भी विकासशील देश को भारत से ईर्ष्या हो सकती है. संचार तकनीकी का सरकार देश के विकास के लिए कितना उपयोग करती है या प्रभावी रूप से क्या बदलाव किये जा सकते हैं.? आल इंडिया रेडियो 23 भाषाओं तथा 146 बोलियों में लगभग पूरे देश में प्रसारण करता है. अभी हाल में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में दंगे हुए. ऐसे माहौल में अफवाहों का तुरंत प्रतिकार, भड़काऊ भाषण देने वालों को दंड का भय, आदि अनेक ऐसे उपाय हैं जिनके लिए शासन रेडियो का उपयोग कर सकता है. तुरंत प्रतिकार के लिए क्षेत्र के बारे में पल-पल की सूचना रखना शासन, प्रशासन, एवं नेताओं की जिम्मेदारी में आता है. समाचार पत्रों की ही तरह रेडियो स्टेशन्स को भी अपने रिपोर्टर्स एवं भेदिये रखने की सुविधा दी जा सकती है, जिससे विकट एवं आकस्मिक घटना के समय जिम्मेदार रेडियो स्टेशन को  अपने विवेक से प्रसारण का अधिकार दिया जा सकता है.
      ग्रामीण क्षेत्रों में देश की लगभग 60 प्रतिशत जनता रहती है, परंतू आज़ादी के 66 वर्ष बाद भी उसकी आय नगरों की तुलना में केवल 20 प्रतिशत है. नगर पालिकाओं को राज्य सरकारों द्वारा उचित अधिकार न देने के कारण वहां भी विकास अव्यवस्थित हुआ है, जिसके कारण पिछड़े क्षेत्रों तथा स्लम्स में रहने वाली जनता को प्राप्त बिजली, पानी आदि नागरिक सुविधायें की स्थिति खस्ता हाल में हैं. इन्ही सब समस्याओ को देखते हुए केंद्र सरकार ने सन 1992 में 73 वें तथा 74वें संविधान संशोधन से सत्ता का विकेंद्रीकरण किया. गाँवों तथा शहरों - दोनों ही जगह पूरे देश में इस विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को सशक्त करने में केंद्र एवं राज्य सरकारें दोनों ही मीडिया का उपयोग कर सकती हैं.
                पश्चिमी बंगाल की 40 ग्राम सभाओं पर 2011 में एक अध्ययन के अनुसार पंचायत पर ग्राम सभा (जिसमें गाँव के सभी वोटाधिकारी होते हैं) के नियंत्रण के लिए सूचना बहुत जरूरी है. ग्रामवासी यदि राज्य एवं केंद्र स्तर के शासन तंत्र को भली-भाँती जानेंगे तो पंचायत सभाओं में उनके प्रश्न भी सटीक होंगे. व्यर्थ के प्रश्नों से गाँव में अनावश्यक तनाव बढ़ता है. आज टेलीविजन भी क्षेत्रीय भाषाओं में प्रसार करते हैं. फिर शासन तथा ग्राम सभा सदस्यों के बीच वार्तालाप भी हो. आज मोबाइल फोन के होने से यह सब संभव है. पिछले कुछ वर्षों में तकनीकी एवं प्रबंधकी शिक्षा के जबरदस्त विस्तार से अब तो गाँवों में भी शिक्षित युवक उपलब्ध हैं, जिन्हें रोज़गार देकर पंचायतें योजनाओं का बेहतर क्रियान्वन कर सकती हैं. ऐसे में जब पंचायतें योजनाओं का कुशलता से समापन करने लगेंगी तो क्षेत्र की आवश्यकताओं को देखकर स्वयं भी अपनी योजनाओं को बना सकेंगी.
      नगर के स्तर पर भी शासन तथा जनता के बीच वार्तालाप की बहुत कमी है. यहाँ पर चुने हुए प्रतिनिधियों की जगह सत्ता राज्य सरकार द्वारा नियुक्त प्रशासनिक अधिकारी कमिश्नर के हाथ में होती है. फिर प्रांत की राजधानी में राजनीतिक सत्ता के पुंजीभूत होने से शहरी प्रशासन के पास भी सीमित अधिकार हैं. वाराणसी शहर के मध्य वर्गीय समुदायों के लिए किये गए एक अध्ययन के अनुसार सीमित अधिकारों के होने से प्रशासन अधिकाँश मुद्दों पर असहाय नजर आता है.
सामजिक समरसता के लिए  
      2013 के एक विश्लेषण से मुजफ्फरनगर दंगो के कुछ सामाजिक कारण भी सामने आये. कुछ वर्षों से मुसलमानों के बीच जाति के आधार पर पिछड़े वर्ग में पस्मीदा क्रांति अभियान चल रहा था. उन्होंने अपने एक प्रचार पत्र में हिन्दू एवं मुसलमान पिछड़े वर्ग को जोड़कर एक राजनीतिक वर्ग बनाने की बात लिखी. इसी विश्लेषण से यह तथ्य भी सामने आया की दंगे में मरने वालों में अधिकाँश पिछड़े वर्ग के थे. एक अन्य सामाजिक अभियान तब्लीघी जमात ने धार्मिक कट्टरता के तहत अनुयायिओं को एक विशेष प्रकार के रहन-सहन की सलाह दी, जो की तालिबानों से मेल खाती थी. दंगों से कुछ महीने पहले तब्लीघी जमात के अनुयायिओं पर समुदाय विशेष द्वारा टीका-टिप्पणी भी बढी. अवश्य ही केंद्र एवं राज्य सरकार के सूचना मंत्रालय अथवा विभाग इन सामाजिक गतिविधियों का अत्याधुनिक मीडिया संसाधनों द्वारा प्रतिकार कर सकते थे. ऐसे संवेदनशील विषयों पर प्रशासन भी देश हित में संविधान के अनुसार काम करने के लिए स्वतंत्र है, जिसके लिए उसे कार्यपालिका से भी अनुमति की आवश्यकता नहीं. 
देश की अखंडता के लिए
      देश के कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व राज्यों में विघटनकारी शक्तियां प्रबल हैं. हालांकि देश के शीर्ष नेताओं ने संविधान के अंतर्गत समस्या के समाधान की वचनवद्धता दर्शाई है, परंतू अनेक वर्षों के बाद भी स्थिति में कोई ख़ास सुधार नहीं है. कश्मीर में सेना भी सदभावना के लिए प्रयास करती है परंतू क़ानून व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेवारी होने के कारण जनता का उसपर विश्वास कभी नहीं बन सकता. केंद्र एवं राज्य सरकार के पास मीडिया के उपयोग के अलावा और कोई चारा नहीं है, परंतू यह कैसे किया जाए इस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है. वैसे प्रत्येक नागरिक धार्मिक स्वतंत्रता के साथ-साथ विकास भी चाहता है.
उत्तर पूर्व में अलगाव वाद की समस्या के समाधान के लिए अनेक स्वायत्त परिषदें बनाई गयीं हैं परन्तु यहाँ भी केंद्र द्वारा सत्ता के उचित हस्तांतरण से विकास में गति आएगी. राज्यों को विकेंद्रीकरण कर स्थानीय संस्थाओं - पंचायतों एवं नगरपालिकाओं को सशक्त करने से भी विकास तेज़ होगा. यहाँ की दूसरी मुख्य समस्या अवैध बांग्लादेशी घुसपेठियों की है. असम में तो मूल निवासी 35 प्रतिशत से भी कम रह गए हैं. सरकारों को, अन्य उपायों के अलावा, मीडिया का उचित उपयोग कर राज्यों के मूल निवासिओं की आशंकाओं को तो निर्मूल करना ही चाहिए.   
                सरकारें यदि देश के अत्याधुनिक तथा सब जगह उपलब्ध होने से सशक्त मीडिया का विकास के लिए उपयोग न करे, तो यह उसी प्रकार से है जैसे कोई पहलवान अपनी ह्रष्ट-पुष्ट बाजुओं का तकिया लगाकर सारे समय सोता ही रहे. जनता के पैसे से बनाए तथा चलाये जा रहे मीडिया का यदि सरकार उपयोग नहीं करेगी तो "अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार" की आड़ में उसके दुरूपयोग को रोकना मुश्किल होगा. देश के विकास में सहयोग को तो प्राइवेट चैनल्स भी सहर्ष तैयार हो जाएँगी.

 कन्हैया झा
(शोध छात्र)
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, मध्य प्रदेश
+919958806745, (Delhi) +918962166336 (Bhopal)
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जनता का पैसा

भारत सरकार पर जनता के पैसे को खर्च करने की जिम्मेवारी  होती है, जिसे वह अनेक प्रकार के टैक्स के रूप में जनता से वसूल करती है. केंद्र तथा राज्य सरकारें मिलकर एक साल में लगभग 15 से 16 लाख करोड़ रुपये खर्च करती हैं, जिसमें 60 प्रतिशत केंद्र द्वारा तथा 40 प्रतिशत राज्यों द्वारा खर्च होता है. इस पैसे का लेखा-जोखा (audit) रखने की जिम्मेवारी Comptroller and Auditor General (CAG, कैग) पर होती है. संविधान द्वारा स्थापित चुनाव आयोग (EC), केन्द्रीय सतर्कता आयोग (CVC) तथा कैग- इन तीन संस्थाओं पर शासन की गुणवत्ता निश्चित करने की जिम्मेवारी होती है. इनकी प्राथमिकी पर ही केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) गहराई से छान-बीन कर मामले को अदालत तक पहुंचाता है. आज़ादी के तुरंत बाद डाक्टर अम्बेडकर ने कहा कि कैग द्वारा पैसे का सही हिसाब-किताब रखना उच्चतम न्यायालय के काम से ज्यादा महत्वपूर्ण है. भ्रष्टाचार के विकराल रूप लेने में इन संस्थाओं की निष्क्रियता एक मुख्य कारण बनती है.

1990 के दशक में टी.एन.शेशन ने चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र एवं सक्रिय रूप दिया, जिसके कारण चुनावों के दौरान अपराधिक घटनाओं पर नियंत्रण आया. अभी चुनावों में पैसे की शक्ति को कम करना बाकि है. 90 के ही दशक में बिहार राज्य का 37 करोड़ 70 लाख रुपये का चारा घोटाला लगातार सुर्ख़ियों में रहा, जिसमें 17 वर्ष बाद इस वर्ष दोषियों को सज़ा हुई है. बिहार राज्य का एक छोटा सा विभाग कई वर्षों तक खजाने से सीधे पैसा निकालता रहा और शीर्ष संस्था कैग को इंडियन एक्सप्रेस (मार्च 25, 1996) की एक विस्तृत रिपोर्ट से इसका पता चला. पिछले पांच वर्षों में कैग संस्था की अचानक बढी सक्रियता से सरकार हतप्रभ हुई. कैग विनोद राय सुर्खिओं में आये जब उन्होनें २ जी, कोलगेट, कामनवेल्थ गेम्स आदि अनेक घोटालों को उजागर किया. इन घोटालों को जनता के समक्ष लाने में टीवी मीडिया ने भी सक्रिय भूमिका निभाई. इन सभी मामलों में सीबीआई ने गहराई से छान-बीन की और अदालत से दोषियों को सजा भी दिलवाई.

कैग के अनुमान के अनुसार कोयला घोटाले में 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुक्सान हुआ. केंद्र सरकार ने कैग पर कार्यपालिका की नीतिओं में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया. परंतू सन २००४ में कोयला मंत्रालय के सचिव ने पुरानी स्क्रीनिंग कमेटी की खामिओं के बारे में सरकार को आगाह किया था परन्तु कोयला मंत्रालय ने अपने सचिव के नोट की अनदेखी की. कैग ने अपनी कोई नीति न बनाते हुए सरकार की नीतिओं के आधार पर ही नुक्सान की गणना की. सन 1971 में पारित कैग (डीपीसी) एक्ट के अनुसार कैग को सरकार की वित्तीय जांच के अतिरिक्त उसके प्रदर्शन की जांच का भी अधिकार है. सरकार ने जनता के पैसे का कुशलता से उपयोग किया या नहीं - यह कैग के अधिकार क्षेत्र मैं आता है.

यहाँ पर मंत्री तथा मंत्रालय के सचिव के अधिकारों की विवेचना करना जरूरी है. हालांकि पोलिसी बनाने में सचिव अपनी राय देता है, परंतू पालिसी की जिम्मेवारी मंत्री की होती है. भारत सरकार द्वारा सन 2005 में जारी किये वित्तीय नियमों के अनुसार सचिव मंत्रालय का मुख्य लेखा-जोखा अधिकारी है. उसके ऊपर पालिसी के तहत प्रोग्राम को अंजाम तक ले जाने की भी जिम्मेवारी है. इसके अलावा किसी भी पालिसी पर पार्लियामेंट की जन लेखा कमिटी (PAC) के समक्ष जबाबदेही भी उसी की है. फिर मंत्रालय के काम की समीक्षा के लिए कैग भी है. यदि कैग मंत्रालय के कामकाज पर कोई अनुचित टिप्पणी करता है तो धारा 311 के तहत मंत्री अपने अधिकार से सचिव को दण्डित भी कर सकता है.

कैग को अपनी कार्यशैली की भी समीक्षा करनी चाहिए. भारत ही ऐसा एक देश है जहाँ ऑडिट कोड, मैनुअल्स आदि गुप्त रखे जाते हैं, जबकि यहाँ भी कुछ दशक पहले ये आसानी से बुकस्टोर्स पर उपलब्ध होते थे. उसी प्रकार भारत कुछ विरले देशों में आता है जहाँ पर कैग केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों का ऑडिट खुद ही करता है. राज्य स्तर पर लेखा अधिकारी को कोई अधिकार नहीं हैं. सन १९९२ में जब कैग पर सुस्त होने के आरोप लगे तो उसने शकधर कमेटी का गठन किया. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया की राज्य विधान सभा की वित्त कमेटीयां लेखा रिपोर्ट्स पर बहस को वर्षों तक टाले रखती हैं. इस सन्दर्भ में राजीव गांधी में राज्यों के कार्यक्षेत्र में आने वाले ग्रामीण विकास कार्यक्रम पर की गयी टिप्पणी महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा था कि इन योजनाओं पर सरकारी बजट का केवल 15 प्रतिशत पैसा ही गाँवों तक पहुँचता है.    

कन्हैया झा
(शोध छात्र)
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, मध्य प्रदेश
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