खेती का काम मौत को बुलावा देने से कम नहीं

90 के दशक के अंत में तथा सन 2000 के आसपास किसानों द्वारा आत्महत्या करने के मामले सामने आये. एक अनुमान के अनुसार सन 1995 से 2011 तक के बीच लगभग 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की. ये मामले मुख्यतः कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, तथा आंध्र प्रदेश से रिपोर्ट किये गए. किसानों की दुर्दशा की यह कहानी भी एक युवा पत्रकार पी.साईनाथ के अथक प्रयासों के कारण ही सामने आ पायी, जिसके लिए उन्होनें पांच प्रदेशों में लगभग एक लाख किलोमीटर की यात्रा की, जिसमें 5000 किलोमीटर की पदयात्रा भी शामिल है. इन रिपोर्ट्स को अखबारों में प्रकाशित कराने के लिए भी उन्हें काफी जद्दोजहद करनी पड़ी.

भारतवर्ष में कृषि मानसून की अनियमितता से हमेशा ही प्रभावित होती रही है. बाढ़ अथवा सूखा, दोनों ही दशाओं में किसान नुक्सान उठाता था. परंतू गाँव के एक स्वायत्त इकाई होने से वे सभी दुष्प्रभावों को झेल पाते थे. ब्रिटिश शासन काल में ऊंची जाती वाले शासन एवं किसानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते थे तथा पैसा उधार देते थे. बीच की जाती वाले खेती करते थे तथा नीची जाती वाले खेती के लिए अनेक प्रकार की सेवाएं देते थे. किसान खेती के लिए बीज, खाद आदि का प्रबंध आपसी लेन-देन से कर लेते थे. इस स्वायत्त व्यवस्था का बाहरी बाज़ार आदि से कोई  सम्बन्ध नहीं था. परिवार की आवश्यकता से अधिक अनाज को शहर में आढतियों के माध्यम से बेच दिया जाता था. साठ के दशक तक यह जीवंत व्यवस्था कायम रही, यद्यपि सन 1950 से बाज़ार सहायता के रूप में आने वाले अमरीकन गेहूं का दुष्प्रभाव किसानों पर पड़ रहा था. 

सन 1995 में खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार ने भारतीय खाद्य निगम (FCI) की स्थापना की, जिससे किसानों का पारंपरिक आढती बाज़ार ख़त्म हो गया. जमींदारी प्रथा समाप्त होने से निचली जातिओं को जमीन मिली जिससे वे भी अपने पुश्तैनी काम को छोड़ खेती करने लगे. इससे खेती के अनेक प्रकार के सहायक कामों के लिए कारीगर एवं मजदूरों की समस्या हो गयी. ग्रामीण युवाओं के शहरी जिंदगी के प्रति आकर्षण ने संयुक्त परिवारों में टूटन पैदा की. इन सब कारणों से सदियों से चली आ रही खेती की स्वायत्त व्यवस्था धराशायी हो गयी.

सन सत्तर की HYV (High Yield Variety) हरित क्रान्ति ने किसान को बाज़ार की शरण में  ला खड़ा किया. इस खेती में रासायनिक खाद तथा कीटनाशकों का काफी प्रयोग होता था. साथ ही यह खेती केवल बारिश के भरोसे नहीं चलाई जा सकती थी. उसी समय बैंकों के राष्ट्रीयकरण से किसानों को कम ब्याज दर पर क़र्ज़ भी दिया जाने लगा, जिससे छोटी जोत के किसान जो अधिकाँश में निचली जातिओं से थे, खेती से ऐशो-आराम के सपने देखने लगे परन्तु ऐसा हुआ नहीं. किसानों के इन कर्जों को सरकारों को अनेक बार माफ़ करना पड़ा.

सन 1991 से नव-उदारवाद का दौर शुरू हुआ, जिसने खेती की अनिश्चितता को कई गुना बढ़ा दिया. आज़ादी के बाद से पूरे देश में किसानों को सभी फसलों के उन्नत बीज भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) उपलब्ध कराती रही थी. देश के पेटेंट क़ानून से भी उसे निजी क्षेत्र के विरुद्ध सुरक्षा मिली हुई थी. अब यह सब तेज़ी से बदलने वाला था. संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था गेट (General Agreement on Tariffs &Trade, GATT) ने केवल निजी क्षेत्र के वैज्ञानिकों द्वारा पेटेंट कराये गए बीजों के चलन को ही मान्यता दी. इस अंतर्राष्ट्रीय समझौते ट्रिप्स (Trade Related Intellectual Property Rights, TRIPS) के अंतर्गत किसान केवल पेटेंट किये बीजों का ही प्रयोग कर सकते थे. कर्नाटक में किसानों ने आन्दोलन कर इन समझौतों का विरोध किया, क्योंकि यह उनके बीज उत्पादन तथा दोबारा उपयोग के मौलिक अधिकार का हनन था. परंतू सभी विरोधों को दरकिनार करते हुए सरकार ने बीज उत्पादन के निजी क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश को स्वीकृति दे दी.

विज्ञान एवं तकनीकी के किसी भी क्षेत्र में रिसर्च संस्थाओं को सक्षम होने में बहुत समय लगता है तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्पर्धा करने में तो सदियाँ भी लग सकती हैं. रिसर्च के लिए प्रयोगशालाएं बनाने में धन भी बहुत लगता है. देश के निजी क्षेत्र ने तो अभी इस दिशा में कोई काम किया ही नहीं था. इस प्रकार अमरीकी बड़ी बीज कंपनियों (MNC's) के लिए देश के बीज बाज़ार पर वर्चस्व बनाने का यह एक सुनहरा मौक़ा हो गया. देश की निजी क्षेत्र की कंपनियों ने MNC's के लाईसेन्स के अंतर्गत माल बेचना शुरू किया. साथ ही ICAR के सेवानिवृत वैज्ञानिकों के माध्यम से देशी रिसर्च से भी लाभ कमाया. आज देश के बीज बाज़ार पर अधिकाँश रूप से निजी क्षेत्र का अधिकार है. साथ ही राज्यों द्वारा स्थापित बीज वितरण संस्थान करीब-करीब बाज़ार से बाहर हैं.

किसानों की आत्महत्या के अधिकाँश मामले महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के कपास की खेती करने वाले किसानों के हैं. कपास की खेती के Bt Cotton बीज के व्यापार में निजी क्षेत्र की बीज कंपनी Mahyco का वर्चस्व है. सन 2007 में किये गए एक अनुमान से एक हज़ार करोड़ का यह विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है. देसी कंपनी Mahyco का अमरीकन कम्पनी मोनसैंटो से लाइसेंस अनुबंध है. इन्होनें बाज़ार पर कब्ज़ा करने के लिए 20 अन्य कम्पनिओं को बिक्री मूल्य के लगभग 60 प्रतिशत रायल्टी भुगतान पर अपना माल बेचने के लिए अनुबंधित किया हुआ है. इन बीजों को बाज़ार में बेचने से पहले सरकारी संस्था GEAC (Genetic Engineering Approval Committee) से अनुमति लेनी होती है, जिसमें 2 से 4 वर्ष भी लग सकते हैं. लाभ के लालच में कुछ कम्पनियां बिना अनुमति लिए भी बाज़ार में अपने बीज बेचती हैं.

फिर किसानों को ये महंगे बीज हर साल खरीदने होते हैं. रुपये के अवमूल्यन से भी बीज, खाद, कीटनाशक आदि के दामों में वृद्धि होती है. देश में अधिकाँश किसान निचली जातियों से हैं और छोटी जोत के हैं. संयुक्त परिवार टूटने से तथा अन्य किसानों से आपसी लेन-देन ख़त्म होने से परिवार के मुखिया पर ही सारी जिम्मेवारी होती है. इन परिस्तिथियों में खेती जैसे जोखिम भरे काम में हाथ डालना मौत को बुलावा देने से कम नहीं.

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
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