भारत पाकिस्तान के बीच कश्मीर ब्रिटेन के अंतर्राष्ट्रीय
स्वार्थों की वजह से एक विवाद बना. अमरीका मध्य-पूर्व एशिया में वहाँ के मुस्लिम
राष्ट्रों को सोवियत संघ के विरुद्ध एकजुट कर रहा था. ब्रिटेन भी दोनों नए
राष्ट्रों को सोवियत संघ के प्रभाव में नहीं जाने देना चाहता था. अन्य राजाओं की
ही तरह कश्मीर के महाराजा भी राज्य के भारत में विलय के सामान्य दस्तावेजों पर
हस्ताक्षर कर चुके थे. पाकिस्तान सेना समर्थित कबाइलियों का कश्मीर पर आक्रमण वास्तव
में पाकिस्तान का भारत पर आक्रमण था, जिसका जबाब देने में भारत उस समय भी सक्षम था.
लार्ड माउंटबेटन के कहने पर मामले को संयुक्त राष्ट्र (UN) में ले जाने से ब्रिटेन
की कूटनीति सफल हुई और कश्मीर एक अंतर्राष्ट्रीय विवाद बन गया.
भारत में राज्यों की विलय के शर्तों के
अनुसार जो कश्मीर पर भी लागू होती थीं रक्षा, विदेश नीति एवं संचार विषयों के
अधिकार केंद्र सरकार को सौंप दिए गए थे. इसके साथ ही सरकार ने भारत गणराज्य का
संविधान बनाने का काम शुरू कर दिया था. राज्यों को अन्य विषयों पर अपने संविधान
बनाने के लिए अनुमति दे दी गयी थी. मई 49 में कश्मीर के अलावा अन्य सभी राज्य पमुखों ने
दिल्ली में बैठक कर यह जिम्मेवारी भी केंद्र सरकार को सौंप दी. परंतू शेख
अब्दुल्ला एवं उनकी पार्टी मुस्लिम कांफ्रेंस ने, इस आधार पर कि कश्मीर की मुस्लिम
जनता हिन्दु बहुलता के प्रभुत्व में आ जायेगी, भारतीय संविधान को मानने से इनकार कर
दिया, और इस प्रकार भारतीय संविधान में धारा 370 शामिल हुई.
परन्तु पिछले 66 वर्ष का इतिहास इस
बात का गवाह है कि मुस्लिम कांफ्रेंस के नेताओं की उपरोक्त धारणा गलत थी. संविधान
के अनुसार देश में जनता का राज्य चल रहा है. जनता ने बिना किसी पक्षपात के सभी
धर्मों के लोगों को चुनकर राज्यों एवं केंद्र में भेजा है. उच्चतम पदों पर आसीन अनेक
नेताओं ने जनता के फैसले को स्वीकार करते हुए ख़ुशी-ख़ुशी पद छोड़ा है. पूरे देश में
लोग-बाग़ एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते रहे हैं. कहीं-कहीं दूसरे प्रदेश वासियों
के प्रति घ्रणा के स्वर भी सुनायी दिए हैं, परन्तु अधिकाँश में अपना प्रदेश छोड़
दूसरे प्रदेश में गए लोग सुख से जी रहे हैं. देश की मुख्य राजनीतिक पार्टियां
प्रदेशों के लिए मुख्य मंत्री चुनते हुए स्थानीय व्यक्ति का ही चुनाव करती हैं. उत्तर-पूर्व
में तो दूसरे देश से आये लोगों को भी शरण देने का भरसक प्रयास किया गया है.
यह भी कहा जाता है कि धारा 370 से कश्मीरियों की
संस्कृति की रक्षा होती है. इस प्रकार की संस्कृति की रक्षा की बातें अन्य धर्मों
के कट्टरवादी लोग भी करते हैं, जो कि वास्तव में कबीले की मानसिकता है. संस्कृति
तो सत्य को जीवन शैली में उतारने से बनती है, और सत्य तो चमकता हुआ सूरज है जिसे
कोई बादल बहुत देर तक छुपाये नहीं रख सकता. ईसा-मूसा के जमाने में भी सभ्यताएं एक
दूसरे से व्यवहार रखती थीं. फिर आज के संचार प्रधान युग में किसी क़ानून या धारा से
कबीले चलाना असंभव है. इस देश में पिछली शताब्दी के शुरू से ही पश्चिम की उन्मुक्त
जीवन शैली को लेकर अनेकों आशंकाएं जताई जाती रही हैं, परन्तु आज भी इस देश में
परिवार कायम हैं, बड़ों की इज्ज़त होती है, शादी-ब्याह परिवार की मर्ज़ी से होते हैं.
भारत का इतिहास गवाह है कि यह देश कभी आक्रान्ता नहीं बना. पाकिस्तान बनने
से वह मानसिकता भी देश से बाहर हो गयी कि मुस्लिम इस देश में आक्रान्ता बनकर आये
थे. कश्मीर अथवा अन्य किसी प्रदेश में सेना की उपस्थिति न ही किसी नेता के अहंकार के
कारण है और न ही किसी की उसमें ख़ुशी है. कश्मीर से कहीं ज्यादा मुसलमान तो देश के
अनेक प्रदेशों में ही होंगे. वे लड़ाई-झगड़ों से दुखी भी हुए हैं, उन्होनें कष्ट भी
झेले हैं, परन्तु संविधान को मानकर आज कश्मीरी मुसलमानों के मुकाबले देश के अन्य
मुसलमान ज्यादा सुखी हैं. मुस्लिम कांफ्रेंस के नेताओं ने धारा 370 के द्वारा कश्मीरी
मुसलमानों को बाकी देश से अलग कर किसी का भी भला नहीं किया.
आज देश में एकता का माहौल बन रहा है. देश
की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां भी वोट-बैंक की पालिसी को त्याग "वोट फॉर
इण्डिया" अर्थात देश के लिए वोट करने पर जोर दे रही हैं. देश में राजनीतिक
भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी एक अच्छा माहौल बन रहा है. दिसंबर 2013 के विधानसभा
चुनावों के नतीजे इस दिशा में उत्साहवर्द्धक हैं. मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में
जनता ने सुशासन के पक्ष में मत डाला है, वहीं दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे
राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं.
0 टिप्पणियाँ:
Post a Comment