पिछले चुनावों में आम आदमी
पार्टी के शीर्ष नेताओं पर स्याही फैंकना, मुंह पर थप्पड़ मारने आदि जैसी घटनाएं भी
हुई. जिस पर सोशल नेटवर्किंग फेसबुक, ट्विटर आदि पर अनेक लोगों ने नेताओं की
खिल्ली भी उड़ाई. आम चुनाव असभ्य जनता के लिए खिलवाड़ हो सकते हैं लेकिन भारत जैसे
प्राचीन सभ्यता वाले देश की प्रजा के लिए खिलवाड़ नहीं हैं. प्रजा ने जिन सांसदों
को चुना है वे उनके इष्ट देवी-देवताओं से किसी भी दृष्टि से कम नहीं हैं. प्रजा के
मत भिन्न हो सकते हैं परन्तु नव-निर्मित संसद में विश्वास रखना उनका धर्म है.
भारत अन्य सभी राष्ट्रों
से भिन्न है. इस देश ने कभी भी अपने हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख आदि मतों को दूसरों पर थोपने की कोशिश नहीं की. प्रजा में
विभिन्न मतों के होते हुए भी राजा निष्पक्ष रहे हैं. ऐसे "राज धर्म" को
निभाने की इस देश में परम्परा रही है. आज कोई भी पार्टी किसी भी राज्य अथवा केंद्र
में विद्वेष कर राज्य नहीं चला सकती. इसलिए सेकुलरिज्म की बहस निरर्थक है. यदि आज
राम मंदिर बनाने की बात चलती है तो उसे देश के असंख्य हिन्दुओं की "मत स्वतंत्रता"
समझा जाये.
मत और धर्म में बहुत बड़ा
अंतर है. मत का सम्बन्ध पूजा-पद्वति आदि से होने से व्यक्तिगत है, जबकि धर्म का
अर्थ "धारण" होने से इसका सम्बन्ध राष्ट्र से है. सन 1991 में डाक्टर
चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित "चाणक्य" नाम से एक सीरिअल
दूरदर्शन पर दिखाया गया था. यद्यपि यह सीरियल उस समय की घटनाओं का एक काल्पनिक
वर्णन है, परंतू राज-धर्म, प्रजा-धर्म आदि विषयों पर भारतीय चिंतन को समझने में
सहायक है.
"चाणक्य" (भाग 2/8, समय 1:10:34) में एक ज्ञानसभा
का दृश्य है जिसे मगध के राज-दरबार द्वारा आयोजित किया है. इसमें देश के विभिन्न
गुरुकुलों से आये छात्रों से आचार्य राजनीति से सम्बंधित प्रश्न पूछते हैं. राजा
घनानंद ज्ञानसभा में जाने के प्रति बहुत उत्साहित नहीं थे. उनके अनुसार,
"आचार्य एवं छात्र मुझ पर अपने खोखले आदर्शों एवं नीतियों को थोपने का
प्रयास करेंगे." परंतू अपने अमात्य (Administrator) के कहने पर वे उस
सभा में उपस्थित हुए.
आचार्य: धर्म और
अर्थ का स्रोत क्या है ?
छात्र: धर्म और
अर्थ का स्रोत राज्य है.
धर्म का सम्बन्ध किसी जाती, सम्प्रदाय
अथवा पूजा-पद्वति विशेष से नहीं होता. गुरुकुल छात्रों को धर्म की शिक्षा दे शेष
जीवन यापन के नियमों का ज्ञान कराते थे.
आचार्य: राज्य का
मूल क्या है ?
छात्र : राज्य का मूल राजा है.
छात्र ने आगे राज्य की उपमा एक वृक्ष से
दी. छात्र ने राजा, मंत्री-परिषद्, सेना आदि शासन के विभिन्न अंगों को प्रजा एवं
देश की सम्पन्नता के लिए उत्तरदायी ठहराया. परंतू देश की सम्पन्नता से प्रजा में
सभी का सुख सुनिश्चित नहीं होता.
आचार्य:
सुख का मूल क्या है ?
छात्र : सुख का मूल धर्म है.
आचार्य:
धर्म का मूल क्या है ?
छात्र ; धर्म का मूल अर्थ है.
आचार्य:
अर्थ का मूल क्या है ?
छात्र : अर्थ का मूल राज्य है.
राज्य का मुख्य लक्ष्य देश में समृद्धि
लाना है. एक समृद्ध देश ही अन्य राष्ट्रों से आपसी व्यवहार के मानकों को तय कर
सकता है और उनका पालन भी करवा सकता है. एक गरीब देश का कोई धर्म नहीं हो सकता,
क्योंकि वह तो हमेशा अन्य राष्ट्रों की दया पर ही जीवित रहेगा. राज्य में यदि कोई
व्यक्ति जाती, सम्प्रदाय, योग्यता आदि किसी भी कारण से अर्थोपार्जन नहीं कर सकता
तो वह अधर्म को बढ़ावा देगा और दूसरों के दुःख का कारण भी बनेगा.
शासन की सहायता के लिए प्रजा में कुल एवं
परिवार की परम्परा थी, जिनका धर्म कुल के अपंग एवं असहायों का भरण-पोषण करना था.
गृहस्थों का धर्म गुरुकुल एवं उनके शिक्षार्थियों को दान एवं भिक्षा से पालन करना
था. शासन की भी इन सामाजिक व्यवस्थाओं पर नज़र रहती थी.
सभा में आगे इन्हीं विषयों पर;
आचार्य:
राजा का हित किसमें है ?
छात्र : राजा का हित प्रजा के हित मैं है.
इस पर राजा धनानंद ने क्रोधित होकर कहा,
"यदि में प्रजा का अहित करूँ तो मेरा भी अहित होगा. तो क्या शास्त्रों के आगे
मेरी सामर्थ्य कुछ भी नहीं ?". छात्र के यह कहने पर कि शास्त्रों में राजा
प्रजा के लिए केवल एक वेतनभोगी सेवक है, धनानंद क्रुद्ध हो गया और छात्र के आचार्य चाणक्य
से उसने कहा," क्यों ब्राह्मण, तू शास्त्रों की चर्चा नहीं करेगा, किसी राजपद
अथवा धन के लिए धनानंद के आगे हाथ नहीं
पसारेगा ?". इस पर चाणक्य ने कहा:
"मेरा धन
ज्ञान है. यदि मेरे ज्ञान में शक्ति रही तो मैं अपना पोषण करने वाले सम्राटों का
निर्माण कर लूँगा. मुझे धन एवं पद की कोई लालसा नहीं".
राजा एवं राज्य प्रजा के लिए अर्थोपार्जन
सुलभ कराता है. उस धन के अंश से शिक्षा एवं शिक्षकों द्वारा छात्रों में धर्म
स्थापित किया जाता है, जो वास्तव में राज्य का एक संचित धन है. यदि शासन में
भ्रष्टाचार आदि के कारण प्रजा दुखी होती है, तो यह धर्म रूपी संचित धन ही राज्य की
सत्ता को पुनर्स्थापित कर सकता है. शिक्षा एवं शिक्षक की गुणवत्ता एवं सामर्थ्य भी
इसी कसौटी पर सुनिश्चित की जा सकती है की वे आवश्यकता उत्पन्न होने पर धनानंद जैसे
भ्रष्ट शासक एवं शासन को हटा नए शासन को स्थापित कर पाएं.
ऋग्वेद में इस प्रकार से तैयार किये गए
छात्रों को सोम संज्ञा से विभूषित किया है. सोम कोई पीने का पदार्थ नहीं था, परंतू देश के शासक
इंद्र हमेशा सोम पीने को आतुर रहते थे. ऋग्वेद से ही इंद्र के बारे में:
मैं सब से पहले इस शरीर में प्रकट होता हूं. उस के पश्चात विश्व
के सारे देवता मेरी ओर खिंचे चले आते हैं. (ऋग 8/100)
शास्त्रों के अनुसार शरीर में सबसे पहले
मन की उत्पत्ति होती है, जो आत्मा आदि अन्य सभी देवताओं को शरीर में खींच लाता है.
इंद्र शरीर में मन की भाँती है, जो मनमानी के लिए जाना जाता है.
राजा इंद्र अपने
उद्देश्यों की पूर्ति में लिप्त होकर अ-परम्परागत मार्गों का अनुसरण कर सकते हैं.
इसलिए पितरों से यह अपेक्षा है की वे धर्म तथा नीति का ज्ञान करा उसका मार्ग
प्रशस्त करें. (ऋग 8/100)
यह वैसे ही है जैसे शरीर में मन पर बुद्धि
के नियंत्रण की बात कही जाती है. राष्ट्र के स्तर पर इंद्र स्वयं शिक्षकों द्वारा
तैयार किये गए उस सोम को पीने के लिए आतुर हैं. इस प्रकार शस्त्र एवं शास्त्र के
बीच कोई विरोध नहीं है. यदि शिक्षकों द्वारा दी गयी मंत्रणा सैद्धांतिक के साथ-साथ
व्यवहारिक होकर उत्कृष्ट है तो इंद्र उसे प्राप्त करने के लिए आतुर हैं.
यह राजा एवं शासन पर निर्भर करता है की वे
केवल एक वेतन धारी सेवक रह पाते हैं अथवा श्रीराम की भांती सदियों तक पूजे जाते
हैं. राजा द्वारा प्रजा को ईश्वर मान सेवा करना ही भारतीय राजनीति का लोकतंत्र
है.
Kanhaiya Jha
(Ph.D Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi
National Journalism and Communication University,
Bhopal, Madhya Pradesh
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