धारा 370 - जम्मू-कश्मीर के विकास और देश की एकता में बाधक

भारत पाकिस्तान के बीच कश्मीर ब्रिटेन के अंतर्राष्ट्रीय स्वार्थों की वजह से एक विवाद बना. अमरीका मध्य-पूर्व एशिया में वहाँ के मुस्लिम राष्ट्रों को सोवियत संघ के विरुद्ध एकजुट कर रहा था. ब्रिटेन भी दोनों नए राष्ट्रों को सोवियत संघ के प्रभाव में नहीं जाने देना चाहता था. अन्य राजाओं की ही तरह कश्मीर के महाराजा भी राज्य के भारत में विलय के सामान्य दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर चुके थे. पाकिस्तान सेना समर्थित कबाइलियों का कश्मीर पर आक्रमण वास्तव में पाकिस्तान का भारत पर आक्रमण था, जिसका जबाब देने में भारत उस समय भी सक्षम था. लार्ड माउंटबेटन के कहने पर मामले को संयुक्त राष्ट्र (UN) में ले जाने से ब्रिटेन की कूटनीति सफल हुई और कश्मीर एक अंतर्राष्ट्रीय विवाद बन गया.

भारत में राज्यों की विलय के शर्तों के अनुसार जो कश्मीर पर भी लागू होती थीं रक्षा, विदेश नीति एवं संचार विषयों के अधिकार केंद्र सरकार को सौंप दिए गए थे. इसके साथ ही सरकार ने भारत गणराज्य का संविधान बनाने का काम शुरू कर दिया था. राज्यों को अन्य विषयों पर अपने संविधान बनाने के लिए अनुमति दे दी गयी थी. मई 49 में कश्मीर के अलावा अन्य सभी राज्य पमुखों ने दिल्ली में बैठक कर यह जिम्मेवारी भी केंद्र सरकार को सौंप दी. परंतू शेख अब्दुल्ला एवं उनकी पार्टी मुस्लिम कांफ्रेंस ने, इस आधार पर कि कश्मीर की मुस्लिम जनता हिन्दु बहुलता के प्रभुत्व में आ जायेगी, भारतीय संविधान को मानने से इनकार कर दिया, और इस प्रकार भारतीय संविधान में धारा 370 शामिल हुई.

परन्तु पिछले 66 वर्ष का इतिहास इस बात का गवाह है कि मुस्लिम कांफ्रेंस के नेताओं की उपरोक्त धारणा गलत थी. संविधान के अनुसार देश में जनता का राज्य चल रहा है. जनता ने बिना किसी पक्षपात के सभी धर्मों के लोगों को चुनकर राज्यों एवं केंद्र में भेजा है. उच्चतम पदों पर आसीन अनेक नेताओं ने जनता के फैसले को स्वीकार करते हुए ख़ुशी-ख़ुशी पद छोड़ा है. पूरे देश में लोग-बाग़ एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते रहे हैं. कहीं-कहीं दूसरे प्रदेश वासियों के प्रति घ्रणा के स्वर भी सुनायी दिए हैं, परन्तु अधिकाँश में अपना प्रदेश छोड़ दूसरे प्रदेश में गए लोग सुख से जी रहे हैं. देश की मुख्य राजनीतिक पार्टियां प्रदेशों के लिए मुख्य मंत्री चुनते हुए स्थानीय व्यक्ति का ही चुनाव करती हैं. उत्तर-पूर्व में तो दूसरे देश से आये लोगों को भी शरण देने का भरसक प्रयास किया गया है.

यह भी कहा जाता है कि धारा 370 से कश्मीरियों की संस्कृति की रक्षा होती है. इस प्रकार की संस्कृति की रक्षा की बातें अन्य धर्मों के कट्टरवादी लोग भी करते हैं, जो कि वास्तव में कबीले की मानसिकता है. संस्कृति तो सत्य को जीवन शैली में उतारने से बनती है, और सत्य तो चमकता हुआ सूरज है जिसे कोई बादल बहुत देर तक छुपाये नहीं रख सकता. ईसा-मूसा के जमाने में भी सभ्यताएं एक दूसरे से व्यवहार रखती थीं. फिर आज के संचार प्रधान युग में किसी क़ानून या धारा से कबीले चलाना असंभव है. इस देश में पिछली शताब्दी के शुरू से ही पश्चिम की उन्मुक्त जीवन शैली को लेकर अनेकों आशंकाएं जताई जाती रही हैं, परन्तु आज भी इस देश में परिवार कायम हैं, बड़ों की इज्ज़त होती है, शादी-ब्याह परिवार की मर्ज़ी से होते हैं.     

भारत का इतिहास गवाह है कि  यह देश कभी आक्रान्ता नहीं बना. पाकिस्तान बनने से वह मानसिकता भी देश से बाहर हो गयी कि मुस्लिम इस देश में आक्रान्ता बनकर आये थे. कश्मीर अथवा अन्य किसी प्रदेश में सेना की उपस्थिति न ही किसी नेता के अहंकार के कारण है और न ही किसी की उसमें ख़ुशी है. कश्मीर से कहीं ज्यादा मुसलमान तो देश के अनेक प्रदेशों में ही होंगे. वे लड़ाई-झगड़ों से दुखी भी हुए हैं, उन्होनें कष्ट भी झेले हैं, परन्तु संविधान को मानकर आज कश्मीरी मुसलमानों के मुकाबले देश के अन्य मुसलमान ज्यादा सुखी हैं. मुस्लिम कांफ्रेंस के नेताओं ने धारा 370 के द्वारा कश्मीरी मुसलमानों को बाकी देश से अलग कर किसी का भी भला नहीं किया.

आज देश में एकता का माहौल बन रहा है. देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां भी वोट-बैंक की पालिसी को त्याग "वोट फॉर इण्डिया" अर्थात देश के लिए वोट करने पर जोर दे रही हैं. देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी एक अच्छा माहौल बन रहा है. दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों के नतीजे इस दिशा में उत्साहवर्द्धक हैं. मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में जनता ने सुशासन के पक्ष में मत डाला है, वहीं दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं.  

मेघालय के विकास में अवैध खनन की बाधकता

मेघालय 22 हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ एक छोटा राज्य है. सन 72 में दक्षिण असम के तीन मुख्य प्रान्तों खासी, गारो एवं जनिता को मिलाकर मेघालय को एक अलग राज्य का दर्ज़ा दिया गया. दक्षिण में मेघालय की सीमा बंगलादेश से लगती है. यहाँ की आबादी लगभग 30 लाख  है. इसकी राजधानी शिलांग को पूर्व का स्कॉटलैंड कहा जाता है. प्रदेश का एक-तिहाई भाग जंगलों से ढका हुआ है जो पक्षिओं, पेड़-पौधों, जानवरों की विविधता के लिए प्रसिद्ध हैं. यहाँ की लगभग 70 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर रहती है. खाद्यानों गेंहूं, धान आदि के अतिरिक्त प्रदेश की जलवायु फल, फूल तथा औंषधीय पौधों के उत्पादन के लिए काफी उपयुक्त है.

परन्तु चूना-पत्थर, कोयला आदि अनेक खनिज पदार्थों के खनन से आम जनता तथा प्रदेश की प्राकृतिक संपदा बदहाल है. मेघालय का अवैध खनन उद्योग एक चतुराई से छिपाया हुआ रहस्य रहा है जिसके दुष्प्रभाव अब धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं. मेघालय के खासी पहाड़ी क्षेत्र में फ्रांस की एक बड़ी सीमेंट बनाने वाली कंपनी लाफार्जे (Lafarge) अपने बंगलादेश स्थित सीमेंट कारखाने के लिए चूना-पत्थर का खनन करती है. कंपनी को सन 2000० में जंगलात अधिकारी की एक रिपोर्ट पर कि खासी पहाड़ी एक बेकार क्षेत्र है, पर्यावरण मंत्रालय से खनन की अनुमति मिल गयी थी. सन 2010 में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर कि खनन का काम जंगलात वाले क्षेत्र में हो रहा है पर्यावरण मंत्रालय ने कुछ बदलाव के साथ कंपनी को दोबारा खनन की अनुमति दे दी.

परन्तु पास के गाँव वालों की शिकायत पर उच्चतम न्यायालय ने मामले पर फिर गौर किया. लाफार्जे के खनन के साथ ही उस क्षेत्र में अवैध खनन ने भी जोर पकड़ लिया. ये लोग खनन से उत्पन्न कचरे को नदियों में फैंक देते हैं, जिससे क्षेत्र की अनेक नदियाँ मृत हो गयीं हैं. नदी का जल अम्लीय हो जाने से अनेक क्षेत्रों से जंगल भी साफ़ हो गए हैं. इसके बावजूद कुछ वर्ष पूर्व प्रदेश के जनिता पहाड़ी क्षेत्र में दो बड़े सीमेंट कारखाने लगाए गए हैं तथा कई और लगने को तैयार हैं.

मेघालय में कोयले का अवैध खनन भी बहुत होता है. प्रदेश के दक्षिण गारो पहाड़ी क्षेत्र को कोयले के खनन के लिए जंगल रहित कर दिया गया है. यहाँ का एक स्थानीय संगठन इन अवैध खानों को बंद करा देता है, और साथ ही प्रदेश सरकार पर अनदेखी का आरोप भी लगाता है. इस क्षेत्र की प्रायः सभी नदियाँ इस गतिविधि से प्रदूषित हो चुकी हैं.

देश में खनन गतिविधि को सुनियोजित प्रकार से चलाने के लिए सन 1957 का एक क़ानून भी है, जिसके अंतर्गत बिना पट्टे के खनन करने पर सज़ा का प्रावधान है. राज्य में खनन को नियंत्रित करने के लिए मेघालय खनन विकास प्राधिकरण भी है, जो बिना प्लान के खनन के लिए पट्टा जारी नहीं करता. इसके अलावा राज्य का अपना पर्यावरण मंत्रालय भी है. फिर क्षेत्र में गैर-सरकारी संस्थान (एनजीओ, NGO) भी समय-समय पर खनन से सम्बन्धित अवांछित गतिविधियों को प्रकाश में लाते रहते हैं. कुछ वर्ष पहले आयोजित ऐसे ही एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्तर के एनजीओ के साथ-साथ स्थानीय एनजीओ समरक्षण ट्रस्ट आदि ने भी भाग लिया था. इसमें गारो विद्यार्थी परिषद् के प्रवक्ता ने कहा था कि "अवैध खनन से सरकार को भी रायल्टी प्राप्त होती है." उसने यह भी कहा था कि राष्ट्रीय बैंक भी इन प्रोजेक्टों को धन देते हैं. एक और स्थानीय संस्था के प्रवक्ता ने कहा था कि इन अवैध गतिविधियों में जन प्रतिनिधि शामिल हैं और इसका आम जनता से कोई लेना-देना नहीं है. इस पर एक सुझाव आया था कि राज्य की प्रांतीय परिषदों को सशक्त करने से प्रदेश के पर्यावरण को सुरक्षित किया जा सकेगा.

मेघालय में राज्य सरकारों का औसतन कार्यकाल 18 महीने से भी कम रहा है. पिछली कुछ सरकारें तो 6 महीने से भी कम चली हैं. इसकी तुलना में प्रदेश की तीन मुख्य जातियों खासी, गारो, तथा जनिता का अपना परम्परागत राजनीतिक तंत्र है जो पिछली कई शताब्दियों से गाँव के स्तर से लेकर राज्य स्तर तक सुरक्षित चला आ रहा है. केंद्र सरकार ने भी जातियों के आधार पर तीन स्वायत्त परिषदें बनायी, परंतू उचित अधिकार न देने से उनकी कोई उपयोगिता नहीं है. बंगलादेश से सीमा लगी होने के कारण प्रदेश में अवैध घुसपैठ एक बड़ी समस्या है, जो स्थानीय लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा करती है.   

देश एवं राज्य में अनेक स्तरों पर चुनाव होते हैं जिनका उद्देश्य ही चुने हुए प्रतिनिधियों को क्षेत्र की सुरक्षा का भार सोंपना होता है. परंतू यदि वे ही स्वार्थवश अपने दायित्व को भूल जाएँ तो जनता स्वयं ही जाग्रत होती है. सामजिक चेतना के स्वयं जाग्रत होने में भटकाव आने से हिंसा, तोड़-फोड़, अलगाववाद जैसी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के बढने की आशंका हमेशा बनी रहती हैं. आज देश को नाभिकीय विधि से विद्युत् उत्पादन के लिए यूरेनियम चाहिए जिसका एक मात्र स्रोत मेघालय में है. परंतू स्थानीय विरोध के कारण पिछले दस वर्षों के प्रयास के बाद भी देश का यूरेनियम प्राधिकरण उसको प्राप्त नहीं कर पा रहा.

जॉबलेस ग्रोथ कब तक ?

पिछले दो दशकों के विकास को 'बिना रोज़गार का विकास' अथवा Jobless Growth कहा गया है. भारत जैसे युवा देश के लिए ऐसे विकास पथ पर आगे चलते रहना खतरे से खाली नहीं होगा.  

विकास या विलास   
सन 1970 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से छोटे किसानों एवं उद्योगधंधों को क़र्ज़ मिलना शुरू हो गया था. परंतू 90 के दशक में बैंक क्षेत्र में उदारीकरण से क़र्ज़ विकास की बजाय भोग-विलास की वृद्धि के लिए दिया जाने लगा. रिजर्व बैंक की वर्ष 2006-07 की रिपोर्ट के अनुसार कार, भवन निर्माण, शिक्षा, क्रेडिट कार्ड आदि अनेक मदों के लिए व्यक्तिगत क़र्ज़ (Personal Loan) जो सन 1990 में 6.5 प्रतिशत था, 2006 में बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया. इसके विपरीत उसी दौरान कृषि के लिए दिए जाने वाला क़र्ज़ 16 प्रतिशत से घट कर 11 प्रतिशत रह गया. साथ ही लघु उद्योग को दिए जाने वाला क़र्ज़ भी 11 प्रतिशत से घट कर 6 प्रतिशत रह गया.

कृषि एवं लघु उद्योग, ये दोनों ही क्षेत्र सबसे ज्यादा kरोज़गार प्रदान करते हैं. यही नहीं बड़े क़र्ज़ लेने वाले अर्थात बड़े उद्योगपति एवं बड़े किसानों को छोटे क़र्ज़ लेने वालों के मुकाबले आधी दर पर क़र्ज़ मिलता रहा है. सत्र 2007 के अंत तक बैंकों का 80 प्रतिशत क़र्ज़ कम दरों पर जाता था अर्थात बड़े उद्योगपति एवं बड़े किसानों को मिलता था.

आईटी तथा आईटी प्रभावित (IT Enabled Services, ITES) क्षेत्र
नब्बे के दशक में इस क्षेत्र का अर्थ व्यवस्था में प्रमुख भाग रहा. इस क्षेत्र के विकास का आधार अंग्रेजी तथा आईटी एवं कम्प्यूटर विषयों की शिक्षा रही जिनका 'शिक्षा लोन्स' तथा सरकार के समाज कल्याण विभाग के माध्यम से अप्रत्याशित विकास हुआ. कम दर पर उपलब्ध बैंक लोन से टेक्नीकल तथा प्रबन्धन क्षेत्र के निजी कालेजों की तो बाढ़ सी आ गयी. इन सुविधाओं का फायदा मध्यवर्गी नवयुवकों ने उठाया जो शहरों में होने से पश्चिमी सभ्यता से भी परिचित थे. परंतू रोज़गार की दृष्टि से यह क्षेत्र बिलकुल भी कामयाब नहीं रहा. सन 2007 तक देश के कुल उत्पाद में इसका योगदान 4.5 प्रतिशत था, जिसमें से 80 प्रतिशत निर्यात का भाग है. उसी समय देश के कुल रोज़गार में इस क्षेत्र का भाग केवल 0.3 प्रतिशत था. फिर ग्रामीण क्षेत्र में जहां देश की तीन चौथाई जनता रहती है, वहाँ के नवयुवकों को तो इस विकास ने छुआ भी नहीं.

पिछले कुछ वर्षों में विदेशी बाज़ार पर निर्भर होने से इस क्षेत्र के विकास की गति रुक सी गयी है.   ओबामा सरकार 'रोज़गार निर्यात' को बंद कर अपने ही देश के लिए सुरक्षित कर रहा है. इस कारण टेक्नीकल तथा प्रबन्धन विषयों को पढने वाले नवयुवकों में बेरोज़गारी भयंकर रूप से बढ़ रही है. फिर उपरोक्त विषयों के निजी क्षेत्र के कालेजों की स्थापना भी बहुत बेतरतीब ढंग से हुई है. हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार मुख्यतः निजी क्षेत्र के कालेजों से पास 47 प्रतिशत विद्यार्थी खराब अंग्रेजी तथा कमज़ोर कौशल के कारण नियुक्ति नहीं पा सकते. अवश्य ही इस सब का असर उपरोक्त कालेजों में बैंक   द्वारा दिए गए क़र्ज़ की अदायगी पर पड़ेगा.

इसी तरह टेलीकोम, मोबाइल आदि का विकास भी बेतरतीब हुआ. अस्सी के दशक में इन उपकरणों को देश में ही विकसित करने का प्रयास किया गया, परंतू जल्दी ही इसे छोड़ दिया गया. पिछले दो दशकों में शत-प्रतिशत आयात कर इस क्षेत्र का विकास किया गया. केवल 2005 से 08 के बीच कैपिटल खाते से 1 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये का सामान आयात हुआ.

आधारभूत विकास (Infrastructure Development)
विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए आधारभूत विकास विश्व स्तर का होना चाहिए. इसके अंतर्गत कई लेन वाली चौड़ी सड़कें, माल, शहरों में कार यातायात के लिए फ्लाई ओवर, विशेष निर्यात जोंस आदि का निर्माण शामिल है. इन सब सुविधाओं के निर्माण तथा जमीन अधिग्रहण आदि के लिए पिछले कुछ वर्षों में बैंक द्वारा दिए गए क़र्ज़ में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. सत्र 2004 के अंत में जहाँ यह राशि 90 हज़ार करोड़ रुपये थी, वहीं सत्र 2007 के अंत तक यह बढ़ कर 2 लाख 25 हज़ार करोड़ रुपये हो गयी. सीमेंट, स्टील तथा टाइल्स के अलावा इस वृद्धि का असर किचन रैन्जस, एयर कंडीशनर्स आदि भोग की वस्तुओं के आयात एवं उत्पादन पर भी पड़ा. सन 2001 से 2007 के बीच कारों के उत्पादन में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई. इन सभी वस्तुओं की खरीद के लिए बैंकों ने व्यक्तिगत क़र्ज़ भी दिए. जमीन बेच

ऐसे विकास के लिए शहरों में झुग्गी-झोंपड़ियों, छोटे उद्योगों तथा फेरी लगाने वालों के रोजगार की आहुति दी जाती रही है. साथ ही शहरों से लगे गाँवों के किसान भी मजबूरी में खेती छोड़ जमीन के मुआवज़े की राशि को भोग-विलास की वस्तुएं खरीदने में लगाते रहे हैं. एक राष्ट्रीय सर्वे के अनुसार अर्थ व्यवस्था के तीनों क्षेत्रों में रोज़गार का योग पिछले 9 वर्षों से 43 करोड़ के आंकडे पर अटका हुआ है.

भोग-विलास विदेशी क़र्ज़ से 
बैंकों की ऋण देने की क्षमता देश की बचत पर निर्भर करती है. सन 2007 में देश की 75 प्रतिशत जनता जो गाँवों में रहती है बचत में उसका योगदान केवल 9 प्रतिशत था. उसी वर्ष मध्यवर्गीय शहरी जनता का बचत में योगदान 56 प्रतिशत था, परंतू वह भी अब बचत की बजाय स्वयं क्रेडिट कार्ड्स पर निर्भर होती जा रही है. इसलिए बैंक भी उपरोक्त वर्णित विकास के लिए विदेशों से क़र्ज़ लेते रहे हैं.
अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण सरकार को बजट घाटा एक सीमा में रखना पड़ता है. इसलिए सरकार ने  निजी क्षेत्र के सहयोग अर्थात पीपीपी (Public Private Partnership) से आधारभूत सुविधायें प्रदान कराने  का निश्चय किया. जिसके लिए सरकार प्रोजक्ट निवेश का 75 प्रतिशत बिन ब्याज के ऋण के रूप में देती है. इन्ही सब आधारभूत सुविधाओं के लिए सरकार ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12k.) के लिए 20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करने का प्रावधान किया था, जिसके लिए सरकार ने भी विदेशों से क़र्ज़ लिया.

वर्ष 1998 से 2003 के बीच विदेश पूंजी का कुल आगमन जीडीपी का 2 प्रतिशत था, जो 2003 से 2008 के बीच 4.8 प्रतिशत हुआ और सत्र 2007-08 में बढ़कर 9.2 प्रतिशत हो गया. इस प्रकार मध्य तथा उच्च वर्गीय जनता को भोग-विलास की सामग्री उत्पादन की बजाय आयात के कारण बढते हुए विदेशी क़र्ज़ से मिली, क्योंकि आयात जो सत्र 2002-03 में जीडीपी का 12 प्रतिशत था सत्र 2012-13 में बढ़कर 27 प्रतिशत हो गया.

देश की सम्पत्ति की लूट
भूमि, संचार के लिए आवृति (Spectrum), कोयला, खनिज आदि देश की आधारभूत सम्पत्तियां हैं. आज विश्व में दूसरे देश की इन सम्पत्तियों पर अधिकार अथवा अनाधिकार बनाने की होड़ लगी हुई है. हाल के वर्षों में उजागर हुए घोटाले भी उपरोक्त सम्पत्तियों से ही सम्बन्धित हैं. इनमें प्रारम्भिक जांच के बाद यह पाया गया कि  देश की संपत्ति को जान-बूझ कर बहुत कम दामों पर बेच दिया गया था.

'रोज़गार मॉडल'
आज भारत अनेक उभरते हुए देशों के मुकाबले युवा राष्ट्र माना जाता है. अधिक आबादी भी अभिशाप की बजाय तीव्र विकास का साधन बन सकती है, परंतू इसके लिए विकास का 'रोज़गार मॉडल' अपनाना होगा जिसका आधार छोटी जोत की खेती तथा छोटे उद्योग धंधों का विकास होगा. विश्व प्रसिद्ध लेखक शूमाखर की सन 1973 में प्रकाशित शुमाखर की थीसिस Small is Beautiful 'रोज़गार मॉडल' की विस्तृत रचना में काफी सहायक हो सकती है, जिसका प्रस्तुत लेखक ने संक्षेप में वर्णन 'नव-उदारवाद का विकल्प' नामक लेख में किया है.  
  
  
                                                                         Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
+919958806745, (Delhi) +918962166336 (Bhopal)
Email : kanhaiya@journalist.com
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नव-उदारवाद का विकल्प


पिछले दो दशकों के नव-उदारवाद (Neo Liberalism) ने विकासशील देशों को लगभग उपनिवेश ही बना ही दिया है. उपनिवेश पूंजीपतियों के लिए कई महत्वपूर्ण संसाधन जैसे कि सस्ते मजदूर, जमीन, जंगल, आदि उपलब्ध कराते थे. साथ ही पूंजी के लिए निवेश तथा "बहु संख्या उत्पादन" अर्थात mass production के लिए बाज़ार भी उपलब्ध कराते थे. आज पूंजीवाद बड़ा पैसा लगाकर पूरे विश्व के बाज़ार पर अपना वर्चस्व बनाने में लगा है, जिससे की वह मनचाहा लाभ कमा सके.

खाद्यान वस्तुओं के मामले में आज विदेशी बीज कम्पनिओं ने उन्नत बीजों के नाम पर विश्व में  वर्चस्व बनाया हुआ है. Friends of Earth की अप्रैल 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व बैंक युगांडा सरकार को पाम आयल की खेती के लिए पूंजी तथा तकनीकी मदद दे रहा है. यह कार्यक्रम एक घने जंगल वाले द्वीप में चलाया जा रहा है जिसके एक चौथाई क्षेत्र के जंगलों को इसी काम के लिए साफ़ कर दिया गया है. यद्यपि वहां के स्थानीय लोगों को रोज़गार का आश्वासन दिया गया था, परंतू खेती के अत्याधिक मशीनीकरण से आज उन्हें जीवनयापन में भी कठिनाई आ रही है. बाज़ारों के वैश्वीकरण से खाद्य पदार्थों के प्रत्यक्ष व्यापार तथा सट्टाबाजारी से विदेशी कम्पनियां अपनी पूंजी के बल पर पूरे विश्व पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं.

सन 1973 में शुमाखर ने अपनी एक थीसिस Small is Beautiful प्रकाशित की. विकसित देशों ने उसको खारिज कर नव-उदारवाद को अपनाया क्योंकि उन्हें केवल अधिक लाभ कमाना था. परंतू गरीबी एवं बेरोज़गारी से जूझ रहे विकासशील देशों के लिए यह एक आशा की किरण साबित हो सकती है. आज उत्पादन में automation अर्थात स्वचालन का अधिक उपयोग हो रहा है, जो एक capital intensive अर्थात पूँजी सघन तकनीक है. हम भारत में labor intensive अर्थात "रोजगार सघन" तकनीक का उपयोग करें जो पुरानी होने से आसानी से उपलब्ध भी है. हम mass production की जगह production by masses कर उतना ही उत्पादन कर सकते हैं. आज विश्व में स्वचालित मशीनों से बनी उच्च गुणवत्ता वाली वस्तुओं की आवश्यकता केवल विकसित देशों में ही है. हम पूंजी के स्थान पर विकसित देशों से स्पर्धा के लिए अपनी युवा जनसंख्या का उपयोग करें, जो पिछले कुछ वर्षों के प्रयास से आज तकनीकी तथा प्रबंधन विषयों में शिक्षित भी है.

शुमाखर बड़ी पूँजी, बड़ी योजनाओं के स्थान पर छोटी पूँजी तथा छोटी योजनाओं के पक्षधर हैं. अभी हाल में प्रकाशित एक लेख में (TOI 9 Nov 2013) सन 2005 से लागू अस्सी हज़ार करोड़ रुपये की एक योजना (JNURM) की समीक्षा की गयी. इस योजना के अंतर्गत देश के 8000 में से केवल 467 छोटे शहरों की बुनियादी सुविधाओं को ठीक करना था. यदि यह मान भी लिया जाए कि खर्च किये पैसे का पूरा सदुपयोग हुआ, तो भी बजट घाटे को नियंत्रित करते हुए इन बड़ी योजनाओं के लिए हर वर्ष जरूरी पैसे की व्यवस्था करना मुश्किल होता है. यह उसी तरह से है जैसे की एक हाथी को खरीदा तो सही परंतू यदि उसके रोजाना के भोजन की व्यवस्था नहीं की तो बड़ी पूंजी भी गड्ढे में गयी.

पिछले दो दशकों में देश का विकास भी बेतरतीब हुआ है. देश की आधी से ज्यादा जनता जो गाँवों में रहती है उसका जीडीपी में योगदान केवल 15 प्रतिशत है. भयंकर बेरोजगारी तथा शहरों की और migration रोकने के लिए बहुत जरूरी कि गाँवों में ही कृषि आधारित व्यवसाय लगाए जाएँ. इन उत्पादों की खपत के लिए ग्रामीण क्षेत्र की "खरीद शक्ति" भी बढानी होगी. पिछले कई वर्षों से चल रही मनरेगा जैसी बड़ी योजनाओं ने ग्रामीण क्षेत्र की खरीद शक्ति तो जरूर बढ़ाई, परंतू यदि साथ ही उद्योग भी स्थापित किये जाते तो अवश्य ही बेहतर नतीजे आते.

शुमाखर ने एक नए अर्थशास्त्र का विचार दिया जिसे उन्होंने "बुद्ध का अर्थशास्त्र" कहा. पारंपरिक अर्थशास्त्र लाभ की गणना में पर्यावरण के नुक्सान अथवा मूल्य को नज़रअंदाज़ करता है. बढती हुई आबादी तथा सीमित क्षेत्रफल के कारण भारत कटते हुए जंगल, विदूषित पानी एवं जमीन आदि को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता.

एडम स्मिथ की किताब Wealth of Nations में पिन बनाने वाली एक ऐसी फैक्ट्री की कल्पना दी है जिसमें बहु-संख्यक उत्पादन के लिए कारीगर के लिए कुछ खास करने का नहीं होता. शुमाखर के अनुसार कारीगरों से इस तरह के निरर्थक तथा उबाऊ काम कराना अपराधिक होता है. फिर यदि कोई व्यक्ति रोजाना ऐसे उबाऊ काम करता रहे तो निराशा से उसमें भी अपराधिक प्रवृत्तियों का जन्म हो सकता है. बेरोज़गारी से परेशान किसी व्यक्ति को यदि घर बैठे पैसे मिलने लग जाएँ तो भो वो अपने अहम् की संतुष्टि के लिए काम करना चाहेगा, जहां उसकी अपेक्षा काम के एक स्वस्थ वातावरण की होगी.


पूंजीवाद के मुकाबले शुमाखर की Small is Beautiful कल्पना में जीडीपी बेशक कम हो परंतू जीएचपी अर्थात Gross Happiness Product कहीं ज्यादा है. साथ ही उस खुशी के "उत्पादन" तथा भोग दोनों में ही जड़ एवं चेतन सभी की सहभागिता है. इस कल्पना को साकार करने में शिक्षा के नए आयामों का विस्तार से वर्णन किया है. पूंजीवाद के विपरीत शुमाखर की विकास योजना में जनता सहर्ष सहयोग करे, इसमें मीडिया का भी एक महत्वपूर्ण दायित्व बन जाता है.

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
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महंगाई कम करने के लिए सरकार को अपना खर्च कम करना ही पड़ेगा

यदि महंगाई कम करनी है तो सरकार को अपना खर्च कम करना होगा. सन 2010 से सरकार पेट्रोलियम एवं रासायनिक खाद पदार्थों पर से अपना नियंत्रण हटाती जा रही है और मुख्यतः निजी क्षेत्र की कम्पनियां को इन पदार्थों के दाम तय करने का काम सौंपती जा रही है. खाद्य पदार्थों के लिए भी सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Public Distribution System, PDS) का विकल्प बनाने का प्रयास कर रही है. उपरोक्त तीनों वस्तुओं पर सरकार द्वारा दी गयी अनुदान राशि बढती जा रही है  जिससे सरकार का बजट घाटा बढ़ रहा है. सरकार के अपने खर्चों पर भी अंकुश न लगा पाने के कारण भी बजट घाटा बढ़ रहा है. आयात को नियंत्रित ना कर पाने से विदेशी बाज़ार से क़र्ज़ लेना सरकार की एक मजबूरी हो गयी है. अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसियाँ सरकार पर बजट घाटा कम करने के लिए लगातार दबाव बनाए हुए है. उनके अनुसार यदि सरकार अधिक खर्च करना चाहती है तो नए नोट न छाप कर विदेशी बाज़ार से क़र्ज़ उठाये. इस दुश्चक्र से बाहर निकलने का सरकार के पास एक ही रास्ता है कि वह अपना खर्च कम करे  अन्यथा महंगाई को रोकना असंभव होगा.

पेट्रोलियम पर अनुदान
पेट्रोलियम पदार्थों की शुद्धिकरण एवं विक्रय में लगी निजी एवं पब्लिक क्षेत्र की कंपनियों ने सत्र 2008-09 में मिलकर 27 हज़ार करोड़ रुपये का लाभ कमाया था. इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण सरकार की इस क्षेत्र से अपनी कमाई थी जिसे उसने इन कंपनियों पर टैक्स लगाकर अर्जित किया. सत्र 2009-10 में केंद्र एवं राज्य सरकारों ने मिलकर 1 लाख 83 हज़ार करोड़ रुपये केवल टैक्स द्वारा कमाए. इसके अलावा पूर्व में केंद्र सरकार ने ONGC  में अपने 26 प्रतिशत शेयर बेच कर कमाई की थी. सरकार का इसी मद में कुछ और शेयर बेच कर कमाई करने का प्रस्ताव भी था. एक अनुमान था कि सत्र 2010-11 में तेल बेचने वाली निजी एवं सार्वजानिक कम्पनियां 73 हज़ार रूपए का नुक्सान उठाएंगी. वास्तव में यह नुक्सान का अनुमान नहीं था बल्कि आयतित तेल तथा देसी तेल के दामों के अंतर के कारण था, जिसको कम्पनियां  'कम प्राप्ति' अथवा Under recovery कह कर छोड़ देते रहे हैं.

सरकार का यह तर्क कि पेट्रोलियम पदार्थों पर अधिक टैक्स लगाने से उसकी खपत में कमी आएगी, सही नहीं है. समाज का वह वर्ग जो सफ़र के लिए कारों का उपयोग करता है उस पर पेट्रोलियम पदार्थों के दामों के बढ़ने का कोई ख़ास असर नहीं होता. परंतू आम जनता के लिए पेट्रोलियम के दाम बढ़ने से सामान्य उपभोग की सभी वस्तुएं महंगी हो जाती हैं.    

रासायनिक खादों पर अनुदान 
अप्रैल 2010 से सरकार ने नयी खाद नीति लागू कर दी थी, जिसके अनुसार सरकारी अनुदान खाद में उपलब्ध पौष्टिक तत्वों (Nutrient Based Subsidy, NBS) पर आधारित कर दिया गया था. साथ ही खाद कम्पनिओं को उनके उत्पादों के बाज़ार भाव तय करने के लिए मुक्त कर दिया. इससे पहले प्रत्येक उत्पाद पर एक निश्चित अनुदान था (Product Based Subsidy, PBS)  और किसानों के लिए खाद के मूल्य सरकार द्वारा निश्चित किये जाते थे.

यदि यह मान भी लें कि खाद कम्पनियां अधिक लाभ कमाने के लिए अनुचित तरीके नहीं अपनाएंगी, तो भी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में खाद के मूल्यों का देसी बाज़ार पर असर आयेगा. यह इसलिए क्योंकि भारत बड़ी मात्रा में खादों का आयात करता है. पोटाश खाद के आयात में तो भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बड़े सटोरियों के कारण खाद के मूल्यों में जबरदस्त उतार चढ़ाव होते रहते हैं. विश्व बैंक के अनुसार 2002 से 2008 के बीच अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में खाद के दाम 5 गुने हो गए.

खाद्य पदार्थों के लिए अनुदान
इन पदार्थों के लिए भी सरकार की सोच बाज़ार भावों को अपने नियंत्रण से मुक्त करने की है. इसके लिए सरकार ने 'आधार कार्ड' योजना को कार्यान्वित किया. अनुदान की राशि बीपीएल (Below Poverty Line) कार्ड धारकों को सीधे ही देने की योजना है. इसके लिए वे अपने आधार कार्ड का प्रयोग कर अनुदान राशि के बराबर एक कूपन प्राप्त करेंगे, और फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के किसी भी गोदाम से अपना राशन ले सकेंगे. परंतू आधार कार्ड की सूचना से बीपीएल परिवारों की पहचान करने में एक बड़ी दफ्तरशाही तैनात करनी होगी.

इसी योजना के तहत सरकार इस वर्ष 'खाद्य सुरक्षा बिल'  लेकर आयी है. यह एक कानूनी अधिकार है जिसे सरकार देश की कम से कम 75 प्रतिशत जनता को देना चाहती है. एक अनुमान के अनुसार इस योजना के लिए लगभग 58 मिलियन टन अनाज की आवाश्यकता होगी. पिछले दशक में देश में कम से कम 140 मिलियन टन अनाज का उत्पादन हुआ है, तथा सरकार द्वारा कम से कम 21 प्रतिशत अनाज की खरीद हुई. इस दशा में सरकार को बाज़ार से अथवा आयात कर 30 मिलियन टन अनाज की व्यवस्था करनी होगी. दोनों ही स्थितिओं में अनाज के बाज़ार भावों में जबरदस्त उछाल आने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता. ऐसे में सरकारी कूपन कितने मान्य होंगे,  इसका अनुमान लगाया जा सकता है. हार कर उपभोक्ता को बाज़ार मूल्य पर अनाज खरीदना पड़ेगा. सामान्य अवस्था में भी सरकार इस योजना के लिए लगभग 1 लाख करोड़ रुपये का अनुदान वहन करेगी.
निष्कर्ष   

जिस देश में आधी से अधिक जनता गरीब हो सरकार महंगाई पर नियंत्रण करने की अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकती. इसलिए उपरोक्त वस्तुओं के दामों को सरकार पूर्णतया बाज़ार के सहारे नहीं छोड़ सकती. बाज़ार ऐसा सीधा नहीं कि बिना अंकुश के अपने लाभ के लालच को छोड़ सके. सरकार यदि अनुदान घटाएगी या टैक्स बढ़ाएगी तो महंगाई बढ़ेगी. इसलिए सरकार के पास अपना खर्च घटाने के सिवाय और कोई चारा नहीं. 

क्या खतरे में है भारत की सार्वभौमिकता ?

कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने कहा कि  उन्हें विदेशी पूंजी निवेश (ऍफ़ डी आई) से कोई परहेज नहीं है. साथ ही उन्होनें यह भी कहा कि यदि कोई वस्तु देश में बन सकती है तो उसे आयात करने की कोई आवश्यकता नहीं. विदेशी व्यापार अपनी शर्तों पर होना चाहिए. कोई बहुराष्ट्रीय निगम (MNC) अपनी शर्तें सरकार पर नहीं थोप सकती. इसके विपरीत देश के वित्तमंत्री श्री चिदंबरम तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री आह्लूवालिया अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट ऐजेंसीस को मनाने में लगे हैं कि वे भारत की कर्ज लेने की साख को कम ना करें. सिंगापुर में प्रवासी भारतीयों को सम्बोधित करते हुए श्री चिदंबरम ने उन्हें भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया है.

वास्तव में क़र्ज़ लेना भारत की मजबूरी बन चुका है. आज़ादी के बाद से ही देश का विदेशी व्यापार घाटे का रहा है. सत्तर के दशक तक यह घाटा अंतर्राष्ट्रीय सहायता से पूरा होता था, जिसके पीछे कुछ शर्तें तो अवश्य होती थीं. जैसे की साठ के दशक में रूपए का 30 प्रतिशत से अवमूल्यन करना पड़ा. इसके पीछे सन 62 के चीन युद्ध के बाद भारी मात्रा में रक्षा सामग्री का आयात था. सत्तर के दशक से 'हरित क्रान्ति' के तहत देश की खेती आयतित रासायनिक खाद पर निर्भर हो गयी. अब अंतर्राष्ट्रीय सहायता मिलनी बंद हो गयी थी. इसलिए अस्सी के दशक में घाटे की पूर्ती के लिए वैश्विक संस्थाओं विश्व बैंक तथा आई एम् ऍफ़ (IMF)  से ऋण लिया जाता रहा, जिसके लिए उन्होनें देश के निर्यात पर अनेक प्रतिबन्ध भी लगाए.

देश में मुख्यतः सम्भ्रान्त वर्ग हमेशा से ही विदेशी उपभोग के सामान के प्रति आकर्षित रहा है. अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में आयात में ढील देने से व्यापार घाटा इतना बढ़ा कि देश का विदेशी मुद्रा भण्डार केवल दो हफ्ते के आयात के लिए काफी रह गया था. सन 1991 में इस संकट से उबरने के लिए सरकार को अपना सोना गिरवीं रखना पड़ा. साथ ही आई एम् ऍफ़ से ऋण तो मिला परंतू देश के बाज़ार को विदेशी सामान के आयात के लिए मुक्त करना पड़ा. उद्देश्य यह था कि आयात को मुक्त करने से निर्यात तेज़ी से बढेगा और व्यापार घाटा कम होगा. कुछ वर्षों तक तो ऐसा हुआ परंतू नब्बे के दशक के उत्तरार्ध से व्यापार घाटा फिर तेज़ी से बढ़ने लगा. वैश्विक संस्थाओं से ऋण कम दरों पर मिलता था. परंतू अब व्यापार घाटा बाज़ार दर पर उधार लेकर ही पूरा किया जा सकता था. साथ ही विदेशी ऋण की सुरक्षा के लिए आई एम् ऍफ़ ने 'रचनात्मक बदलाव' अर्थात Structural Adjustment Program (SAP) के तहत सरकार को बजट घाटे को नियंत्रित करने का भी निर्देश दिया.

भुगतान के संतुलन (Balance of Payment, BOP) के बिगड़ने का मुख्य भाग व्यापार घाटा (Trade deficit) होता है. यह द्रश्य अथवा भौतिक माल के व्यापार (Merchandise trade) के आयात निर्यात का अंतर होता है. देश की मुख्य समस्या आयात रही हैजिसका कुल उत्पाद के साथ अनुपात जो सन 1992 के  'रचनात्मक बदलाव' से पहले 10 प्रतिशत से कम रहता था बढ़ते-बढ़ते 2013-13 में 25 प्रतिशत तक पहुँच गया. परंतू निर्यात की तेज़ी से बढ़ने की उम्मीद पूरी नहीं हुई. इसलिए व्यापार घाटा कुल उत्पाद के अनुपात में, जो सन 92 से पहले 2 प्रतिशत से कम रहता था, बढते-बढ़ते 2012-13 में 10 प्रतिशत तक पहुँच गया. इसका असर देश के विदेशी मुद्रा भण्डार पर भी पड़ा जो इस वर्ष केवल 7 से 8 महीने के आयात के लिए पर्याप्त था.

विदेशी उपभोग की वस्तुओं के साथ-साथ देश के सम्भ्रान्त वर्ग का सोने के प्रति भी उतना ही आकर्षण है. पिछले कुछ वर्षों में सोने का आयात तेज़ी से बढ़ा जिसका देश के लिए कोई लाभ नहीं है. सन 2013-13 में यह देश के कुल आयात का 11 प्रतिशत था. यदि सरकार इस पर नियंत्रण लाती तो व्यापार  घाटा भी कम होता.

व्यापार घाटे को सरकार अद्रश्य प्राप्ति अर्थात Invisibles से करती है. नब्भे के दशक में खाड़ी के देशों में काम करने वाले मजदूरों से विदेशी मुद्रा की प्राप्ति इसी मद में गयी. साथ ही इसी दौरान आई टी सुविधाओं से भी देश ने काफी विदेशी मुद्रा कमाई. इन दोनों को जोड़ने से चालू खाते का घाटा (Current Account Deficit, CAD) प्राप्त होता है.  यदि सन 2000-04 तक के समय को छोड़ें तो चालू खाता हमेशा से घाटे में रहा है. अद्रश्य प्राप्ति जो सन 2000-01 में कुल उत्पाद के २४ प्रतिशत तक पहुँच गयी थी हाल के वर्षों में घटते-घटते केवल ६ प्रतिशत रह गयी है. इसी कारण चालू खाते का घाटा बढते-बढते सन 2012-13 में 74 बिलियन डालर हो गया जो देश के कुल उत्पाद का 4.8 प्रतिशत है.

चालू खाते के घाटे की भरपाई या तो विदेशी मुद्रा भंडार से की जाती है या फिर बाज़ार से उधार ले कर करनी होती है. यह सरकार का पूंजी खाता (Capital Account) कहलाता है. मार्च 2013 में देश के पास 292 बिलियन डालर का विदेशी भंडार था जो की लगभग 8 महीने के आयात के लिए पर्याप्त था. इसके अलावा भारत ने अन्य देशों में भी अपनी पूंजी लगाई हुई है. इन दोनों को मिलाकर दिसंबर 2013 तक के 724 बिलियन डालर के कुल क़र्ज़ का भुगतान किया जा सकता है. यद्यपि अन्य देशों में किये गए पूंजी निवेश को तुरंत नहीं निकाला जा सकता.

पूंजी खाते से यदि प्राप्ति हो तो व्यापार घाटा कम हो सकता है. परंतू इस खाते का घाटा भी तेज़ी से बढ़ रहा है. जिन देशों में भारत ने निवेश किया है उनके यहाँ ब्याज दर लगातार कम हो रही है, जबकि जरूरत एवं मुसीबत में लिए गए क़र्ज़ पर ज्यादा ब्याज देना पड़ता है. पूंजी खाते के लाभ अथवा हानि को चालू खाते के घाटे में जोड़ने से कुल भुगतान के संतुलन का हाल मालूम पड़ता है, जिसमें से छोटी  के क़र्ज़ की अदायगी को नियोजित करना ज्यादा जरूरी है.

देश के कुल क़र्ज़ 724 बिलियन डालर में 160 बिलियन डालर छोटी अवधि का क़र्ज़ है जिसे किसी समय भी वापिस करना पड़ सकता है. फिर विदेशी संस्थानों (FII) द्वारा देश के शेयर बाज़ार में अब तक किया गया निवेश जो सितम्बर 2012  में 129 बिलियन डालर था किसी समय भी देश से बाहर जा सकता है. और जब यह बाज़ार से बाहर जाएगा तो इसका भुगतान उस समय के बाज़ार मूल्य पर करना होगा, जो मार्च 2013 में 239 बिलियन डालर था. इसके अलावा 55 बिलियन डालर प्रवासी भारतीयों का है. जहाँ तक देश की सम्पत्ति तथा संस्थानों में प्रत्यक्ष निवेश (FDI) का सवाल है यह भी बहुत स्थायी नहीं है, क्योंकि निजी क्षेत्र द्वारा किये गए इस निवेश का उद्देश्य छोटी अवधि में लाभ लेना होता है.

जब भी निवेशित विदेशी पूंजी देश से बाहर जाती है तो रुपये का भी अवमूल्यन होता है, जैसा कि अभी कुछ महीने पहले हुआ. इससे विदेशी मुद्रा में देश के आयात का मूल्य और कम होता है. इसलिए श्री चिदंबरम एवं वित्त मंत्रालय अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट ऐजेंसीस की शतें मानने के लिए मजबूर हैं, जिनका निर्देश है कि देश का बजट घाटा कुल उत्पाद के 3 प्रतिशत से ज्यादा न हो. यदि सरकार विकास या अन्य किसी काम के लिए अधिक खर्च करना चाहती है तो वह विदेशी बाज़ार से क़र्ज़ ले, जो की अब उसके लिए एक मजबूरी हो चुकी है.


Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
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खेती का काम मौत को बुलावा देने से कम नहीं

90 के दशक के अंत में तथा सन 2000 के आसपास किसानों द्वारा आत्महत्या करने के मामले सामने आये. एक अनुमान के अनुसार सन 1995 से 2011 तक के बीच लगभग 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की. ये मामले मुख्यतः कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, तथा आंध्र प्रदेश से रिपोर्ट किये गए. किसानों की दुर्दशा की यह कहानी भी एक युवा पत्रकार पी.साईनाथ के अथक प्रयासों के कारण ही सामने आ पायी, जिसके लिए उन्होनें पांच प्रदेशों में लगभग एक लाख किलोमीटर की यात्रा की, जिसमें 5000 किलोमीटर की पदयात्रा भी शामिल है. इन रिपोर्ट्स को अखबारों में प्रकाशित कराने के लिए भी उन्हें काफी जद्दोजहद करनी पड़ी.

भारतवर्ष में कृषि मानसून की अनियमितता से हमेशा ही प्रभावित होती रही है. बाढ़ अथवा सूखा, दोनों ही दशाओं में किसान नुक्सान उठाता था. परंतू गाँव के एक स्वायत्त इकाई होने से वे सभी दुष्प्रभावों को झेल पाते थे. ब्रिटिश शासन काल में ऊंची जाती वाले शासन एवं किसानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते थे तथा पैसा उधार देते थे. बीच की जाती वाले खेती करते थे तथा नीची जाती वाले खेती के लिए अनेक प्रकार की सेवाएं देते थे. किसान खेती के लिए बीज, खाद आदि का प्रबंध आपसी लेन-देन से कर लेते थे. इस स्वायत्त व्यवस्था का बाहरी बाज़ार आदि से कोई  सम्बन्ध नहीं था. परिवार की आवश्यकता से अधिक अनाज को शहर में आढतियों के माध्यम से बेच दिया जाता था. साठ के दशक तक यह जीवंत व्यवस्था कायम रही, यद्यपि सन 1950 से बाज़ार सहायता के रूप में आने वाले अमरीकन गेहूं का दुष्प्रभाव किसानों पर पड़ रहा था. 

सन 1995 में खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार ने भारतीय खाद्य निगम (FCI) की स्थापना की, जिससे किसानों का पारंपरिक आढती बाज़ार ख़त्म हो गया. जमींदारी प्रथा समाप्त होने से निचली जातिओं को जमीन मिली जिससे वे भी अपने पुश्तैनी काम को छोड़ खेती करने लगे. इससे खेती के अनेक प्रकार के सहायक कामों के लिए कारीगर एवं मजदूरों की समस्या हो गयी. ग्रामीण युवाओं के शहरी जिंदगी के प्रति आकर्षण ने संयुक्त परिवारों में टूटन पैदा की. इन सब कारणों से सदियों से चली आ रही खेती की स्वायत्त व्यवस्था धराशायी हो गयी.

सन सत्तर की HYV (High Yield Variety) हरित क्रान्ति ने किसान को बाज़ार की शरण में  ला खड़ा किया. इस खेती में रासायनिक खाद तथा कीटनाशकों का काफी प्रयोग होता था. साथ ही यह खेती केवल बारिश के भरोसे नहीं चलाई जा सकती थी. उसी समय बैंकों के राष्ट्रीयकरण से किसानों को कम ब्याज दर पर क़र्ज़ भी दिया जाने लगा, जिससे छोटी जोत के किसान जो अधिकाँश में निचली जातिओं से थे, खेती से ऐशो-आराम के सपने देखने लगे परन्तु ऐसा हुआ नहीं. किसानों के इन कर्जों को सरकारों को अनेक बार माफ़ करना पड़ा.

सन 1991 से नव-उदारवाद का दौर शुरू हुआ, जिसने खेती की अनिश्चितता को कई गुना बढ़ा दिया. आज़ादी के बाद से पूरे देश में किसानों को सभी फसलों के उन्नत बीज भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) उपलब्ध कराती रही थी. देश के पेटेंट क़ानून से भी उसे निजी क्षेत्र के विरुद्ध सुरक्षा मिली हुई थी. अब यह सब तेज़ी से बदलने वाला था. संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था गेट (General Agreement on Tariffs &Trade, GATT) ने केवल निजी क्षेत्र के वैज्ञानिकों द्वारा पेटेंट कराये गए बीजों के चलन को ही मान्यता दी. इस अंतर्राष्ट्रीय समझौते ट्रिप्स (Trade Related Intellectual Property Rights, TRIPS) के अंतर्गत किसान केवल पेटेंट किये बीजों का ही प्रयोग कर सकते थे. कर्नाटक में किसानों ने आन्दोलन कर इन समझौतों का विरोध किया, क्योंकि यह उनके बीज उत्पादन तथा दोबारा उपयोग के मौलिक अधिकार का हनन था. परंतू सभी विरोधों को दरकिनार करते हुए सरकार ने बीज उत्पादन के निजी क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश को स्वीकृति दे दी.

विज्ञान एवं तकनीकी के किसी भी क्षेत्र में रिसर्च संस्थाओं को सक्षम होने में बहुत समय लगता है तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्पर्धा करने में तो सदियाँ भी लग सकती हैं. रिसर्च के लिए प्रयोगशालाएं बनाने में धन भी बहुत लगता है. देश के निजी क्षेत्र ने तो अभी इस दिशा में कोई काम किया ही नहीं था. इस प्रकार अमरीकी बड़ी बीज कंपनियों (MNC's) के लिए देश के बीज बाज़ार पर वर्चस्व बनाने का यह एक सुनहरा मौक़ा हो गया. देश की निजी क्षेत्र की कंपनियों ने MNC's के लाईसेन्स के अंतर्गत माल बेचना शुरू किया. साथ ही ICAR के सेवानिवृत वैज्ञानिकों के माध्यम से देशी रिसर्च से भी लाभ कमाया. आज देश के बीज बाज़ार पर अधिकाँश रूप से निजी क्षेत्र का अधिकार है. साथ ही राज्यों द्वारा स्थापित बीज वितरण संस्थान करीब-करीब बाज़ार से बाहर हैं.

किसानों की आत्महत्या के अधिकाँश मामले महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के कपास की खेती करने वाले किसानों के हैं. कपास की खेती के Bt Cotton बीज के व्यापार में निजी क्षेत्र की बीज कंपनी Mahyco का वर्चस्व है. सन 2007 में किये गए एक अनुमान से एक हज़ार करोड़ का यह विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है. देसी कंपनी Mahyco का अमरीकन कम्पनी मोनसैंटो से लाइसेंस अनुबंध है. इन्होनें बाज़ार पर कब्ज़ा करने के लिए 20 अन्य कम्पनिओं को बिक्री मूल्य के लगभग 60 प्रतिशत रायल्टी भुगतान पर अपना माल बेचने के लिए अनुबंधित किया हुआ है. इन बीजों को बाज़ार में बेचने से पहले सरकारी संस्था GEAC (Genetic Engineering Approval Committee) से अनुमति लेनी होती है, जिसमें 2 से 4 वर्ष भी लग सकते हैं. लाभ के लालच में कुछ कम्पनियां बिना अनुमति लिए भी बाज़ार में अपने बीज बेचती हैं.

फिर किसानों को ये महंगे बीज हर साल खरीदने होते हैं. रुपये के अवमूल्यन से भी बीज, खाद, कीटनाशक आदि के दामों में वृद्धि होती है. देश में अधिकाँश किसान निचली जातियों से हैं और छोटी जोत के हैं. संयुक्त परिवार टूटने से तथा अन्य किसानों से आपसी लेन-देन ख़त्म होने से परिवार के मुखिया पर ही सारी जिम्मेवारी होती है. इन परिस्तिथियों में खेती जैसे जोखिम भरे काम में हाथ डालना मौत को बुलावा देने से कम नहीं.

Kanhaiya Jha
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