महंगाई कम करने के लिए सरकार को अपना खर्च कम करना ही पड़ेगा

यदि महंगाई कम करनी है तो सरकार को अपना खर्च कम करना होगा. सन 2010 से सरकार पेट्रोलियम एवं रासायनिक खाद पदार्थों पर से अपना नियंत्रण हटाती जा रही है और मुख्यतः निजी क्षेत्र की कम्पनियां को इन पदार्थों के दाम तय करने का काम सौंपती जा रही है. खाद्य पदार्थों के लिए भी सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Public Distribution System, PDS) का विकल्प बनाने का प्रयास कर रही है. उपरोक्त तीनों वस्तुओं पर सरकार द्वारा दी गयी अनुदान राशि बढती जा रही है  जिससे सरकार का बजट घाटा बढ़ रहा है. सरकार के अपने खर्चों पर भी अंकुश न लगा पाने के कारण भी बजट घाटा बढ़ रहा है. आयात को नियंत्रित ना कर पाने से विदेशी बाज़ार से क़र्ज़ लेना सरकार की एक मजबूरी हो गयी है. अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसियाँ सरकार पर बजट घाटा कम करने के लिए लगातार दबाव बनाए हुए है. उनके अनुसार यदि सरकार अधिक खर्च करना चाहती है तो नए नोट न छाप कर विदेशी बाज़ार से क़र्ज़ उठाये. इस दुश्चक्र से बाहर निकलने का सरकार के पास एक ही रास्ता है कि वह अपना खर्च कम करे  अन्यथा महंगाई को रोकना असंभव होगा.

पेट्रोलियम पर अनुदान
पेट्रोलियम पदार्थों की शुद्धिकरण एवं विक्रय में लगी निजी एवं पब्लिक क्षेत्र की कंपनियों ने सत्र 2008-09 में मिलकर 27 हज़ार करोड़ रुपये का लाभ कमाया था. इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण सरकार की इस क्षेत्र से अपनी कमाई थी जिसे उसने इन कंपनियों पर टैक्स लगाकर अर्जित किया. सत्र 2009-10 में केंद्र एवं राज्य सरकारों ने मिलकर 1 लाख 83 हज़ार करोड़ रुपये केवल टैक्स द्वारा कमाए. इसके अलावा पूर्व में केंद्र सरकार ने ONGC  में अपने 26 प्रतिशत शेयर बेच कर कमाई की थी. सरकार का इसी मद में कुछ और शेयर बेच कर कमाई करने का प्रस्ताव भी था. एक अनुमान था कि सत्र 2010-11 में तेल बेचने वाली निजी एवं सार्वजानिक कम्पनियां 73 हज़ार रूपए का नुक्सान उठाएंगी. वास्तव में यह नुक्सान का अनुमान नहीं था बल्कि आयतित तेल तथा देसी तेल के दामों के अंतर के कारण था, जिसको कम्पनियां  'कम प्राप्ति' अथवा Under recovery कह कर छोड़ देते रहे हैं.

सरकार का यह तर्क कि पेट्रोलियम पदार्थों पर अधिक टैक्स लगाने से उसकी खपत में कमी आएगी, सही नहीं है. समाज का वह वर्ग जो सफ़र के लिए कारों का उपयोग करता है उस पर पेट्रोलियम पदार्थों के दामों के बढ़ने का कोई ख़ास असर नहीं होता. परंतू आम जनता के लिए पेट्रोलियम के दाम बढ़ने से सामान्य उपभोग की सभी वस्तुएं महंगी हो जाती हैं.    

रासायनिक खादों पर अनुदान 
अप्रैल 2010 से सरकार ने नयी खाद नीति लागू कर दी थी, जिसके अनुसार सरकारी अनुदान खाद में उपलब्ध पौष्टिक तत्वों (Nutrient Based Subsidy, NBS) पर आधारित कर दिया गया था. साथ ही खाद कम्पनिओं को उनके उत्पादों के बाज़ार भाव तय करने के लिए मुक्त कर दिया. इससे पहले प्रत्येक उत्पाद पर एक निश्चित अनुदान था (Product Based Subsidy, PBS)  और किसानों के लिए खाद के मूल्य सरकार द्वारा निश्चित किये जाते थे.

यदि यह मान भी लें कि खाद कम्पनियां अधिक लाभ कमाने के लिए अनुचित तरीके नहीं अपनाएंगी, तो भी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में खाद के मूल्यों का देसी बाज़ार पर असर आयेगा. यह इसलिए क्योंकि भारत बड़ी मात्रा में खादों का आयात करता है. पोटाश खाद के आयात में तो भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बड़े सटोरियों के कारण खाद के मूल्यों में जबरदस्त उतार चढ़ाव होते रहते हैं. विश्व बैंक के अनुसार 2002 से 2008 के बीच अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में खाद के दाम 5 गुने हो गए.

खाद्य पदार्थों के लिए अनुदान
इन पदार्थों के लिए भी सरकार की सोच बाज़ार भावों को अपने नियंत्रण से मुक्त करने की है. इसके लिए सरकार ने 'आधार कार्ड' योजना को कार्यान्वित किया. अनुदान की राशि बीपीएल (Below Poverty Line) कार्ड धारकों को सीधे ही देने की योजना है. इसके लिए वे अपने आधार कार्ड का प्रयोग कर अनुदान राशि के बराबर एक कूपन प्राप्त करेंगे, और फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के किसी भी गोदाम से अपना राशन ले सकेंगे. परंतू आधार कार्ड की सूचना से बीपीएल परिवारों की पहचान करने में एक बड़ी दफ्तरशाही तैनात करनी होगी.

इसी योजना के तहत सरकार इस वर्ष 'खाद्य सुरक्षा बिल'  लेकर आयी है. यह एक कानूनी अधिकार है जिसे सरकार देश की कम से कम 75 प्रतिशत जनता को देना चाहती है. एक अनुमान के अनुसार इस योजना के लिए लगभग 58 मिलियन टन अनाज की आवाश्यकता होगी. पिछले दशक में देश में कम से कम 140 मिलियन टन अनाज का उत्पादन हुआ है, तथा सरकार द्वारा कम से कम 21 प्रतिशत अनाज की खरीद हुई. इस दशा में सरकार को बाज़ार से अथवा आयात कर 30 मिलियन टन अनाज की व्यवस्था करनी होगी. दोनों ही स्थितिओं में अनाज के बाज़ार भावों में जबरदस्त उछाल आने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता. ऐसे में सरकारी कूपन कितने मान्य होंगे,  इसका अनुमान लगाया जा सकता है. हार कर उपभोक्ता को बाज़ार मूल्य पर अनाज खरीदना पड़ेगा. सामान्य अवस्था में भी सरकार इस योजना के लिए लगभग 1 लाख करोड़ रुपये का अनुदान वहन करेगी.
निष्कर्ष   

जिस देश में आधी से अधिक जनता गरीब हो सरकार महंगाई पर नियंत्रण करने की अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकती. इसलिए उपरोक्त वस्तुओं के दामों को सरकार पूर्णतया बाज़ार के सहारे नहीं छोड़ सकती. बाज़ार ऐसा सीधा नहीं कि बिना अंकुश के अपने लाभ के लालच को छोड़ सके. सरकार यदि अनुदान घटाएगी या टैक्स बढ़ाएगी तो महंगाई बढ़ेगी. इसलिए सरकार के पास अपना खर्च घटाने के सिवाय और कोई चारा नहीं. 

क्या खतरे में है भारत की सार्वभौमिकता ?

कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने कहा कि  उन्हें विदेशी पूंजी निवेश (ऍफ़ डी आई) से कोई परहेज नहीं है. साथ ही उन्होनें यह भी कहा कि यदि कोई वस्तु देश में बन सकती है तो उसे आयात करने की कोई आवश्यकता नहीं. विदेशी व्यापार अपनी शर्तों पर होना चाहिए. कोई बहुराष्ट्रीय निगम (MNC) अपनी शर्तें सरकार पर नहीं थोप सकती. इसके विपरीत देश के वित्तमंत्री श्री चिदंबरम तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री आह्लूवालिया अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट ऐजेंसीस को मनाने में लगे हैं कि वे भारत की कर्ज लेने की साख को कम ना करें. सिंगापुर में प्रवासी भारतीयों को सम्बोधित करते हुए श्री चिदंबरम ने उन्हें भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया है.

वास्तव में क़र्ज़ लेना भारत की मजबूरी बन चुका है. आज़ादी के बाद से ही देश का विदेशी व्यापार घाटे का रहा है. सत्तर के दशक तक यह घाटा अंतर्राष्ट्रीय सहायता से पूरा होता था, जिसके पीछे कुछ शर्तें तो अवश्य होती थीं. जैसे की साठ के दशक में रूपए का 30 प्रतिशत से अवमूल्यन करना पड़ा. इसके पीछे सन 62 के चीन युद्ध के बाद भारी मात्रा में रक्षा सामग्री का आयात था. सत्तर के दशक से 'हरित क्रान्ति' के तहत देश की खेती आयतित रासायनिक खाद पर निर्भर हो गयी. अब अंतर्राष्ट्रीय सहायता मिलनी बंद हो गयी थी. इसलिए अस्सी के दशक में घाटे की पूर्ती के लिए वैश्विक संस्थाओं विश्व बैंक तथा आई एम् ऍफ़ (IMF)  से ऋण लिया जाता रहा, जिसके लिए उन्होनें देश के निर्यात पर अनेक प्रतिबन्ध भी लगाए.

देश में मुख्यतः सम्भ्रान्त वर्ग हमेशा से ही विदेशी उपभोग के सामान के प्रति आकर्षित रहा है. अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में आयात में ढील देने से व्यापार घाटा इतना बढ़ा कि देश का विदेशी मुद्रा भण्डार केवल दो हफ्ते के आयात के लिए काफी रह गया था. सन 1991 में इस संकट से उबरने के लिए सरकार को अपना सोना गिरवीं रखना पड़ा. साथ ही आई एम् ऍफ़ से ऋण तो मिला परंतू देश के बाज़ार को विदेशी सामान के आयात के लिए मुक्त करना पड़ा. उद्देश्य यह था कि आयात को मुक्त करने से निर्यात तेज़ी से बढेगा और व्यापार घाटा कम होगा. कुछ वर्षों तक तो ऐसा हुआ परंतू नब्बे के दशक के उत्तरार्ध से व्यापार घाटा फिर तेज़ी से बढ़ने लगा. वैश्विक संस्थाओं से ऋण कम दरों पर मिलता था. परंतू अब व्यापार घाटा बाज़ार दर पर उधार लेकर ही पूरा किया जा सकता था. साथ ही विदेशी ऋण की सुरक्षा के लिए आई एम् ऍफ़ ने 'रचनात्मक बदलाव' अर्थात Structural Adjustment Program (SAP) के तहत सरकार को बजट घाटे को नियंत्रित करने का भी निर्देश दिया.

भुगतान के संतुलन (Balance of Payment, BOP) के बिगड़ने का मुख्य भाग व्यापार घाटा (Trade deficit) होता है. यह द्रश्य अथवा भौतिक माल के व्यापार (Merchandise trade) के आयात निर्यात का अंतर होता है. देश की मुख्य समस्या आयात रही हैजिसका कुल उत्पाद के साथ अनुपात जो सन 1992 के  'रचनात्मक बदलाव' से पहले 10 प्रतिशत से कम रहता था बढ़ते-बढ़ते 2013-13 में 25 प्रतिशत तक पहुँच गया. परंतू निर्यात की तेज़ी से बढ़ने की उम्मीद पूरी नहीं हुई. इसलिए व्यापार घाटा कुल उत्पाद के अनुपात में, जो सन 92 से पहले 2 प्रतिशत से कम रहता था, बढते-बढ़ते 2012-13 में 10 प्रतिशत तक पहुँच गया. इसका असर देश के विदेशी मुद्रा भण्डार पर भी पड़ा जो इस वर्ष केवल 7 से 8 महीने के आयात के लिए पर्याप्त था.

विदेशी उपभोग की वस्तुओं के साथ-साथ देश के सम्भ्रान्त वर्ग का सोने के प्रति भी उतना ही आकर्षण है. पिछले कुछ वर्षों में सोने का आयात तेज़ी से बढ़ा जिसका देश के लिए कोई लाभ नहीं है. सन 2013-13 में यह देश के कुल आयात का 11 प्रतिशत था. यदि सरकार इस पर नियंत्रण लाती तो व्यापार  घाटा भी कम होता.

व्यापार घाटे को सरकार अद्रश्य प्राप्ति अर्थात Invisibles से करती है. नब्भे के दशक में खाड़ी के देशों में काम करने वाले मजदूरों से विदेशी मुद्रा की प्राप्ति इसी मद में गयी. साथ ही इसी दौरान आई टी सुविधाओं से भी देश ने काफी विदेशी मुद्रा कमाई. इन दोनों को जोड़ने से चालू खाते का घाटा (Current Account Deficit, CAD) प्राप्त होता है.  यदि सन 2000-04 तक के समय को छोड़ें तो चालू खाता हमेशा से घाटे में रहा है. अद्रश्य प्राप्ति जो सन 2000-01 में कुल उत्पाद के २४ प्रतिशत तक पहुँच गयी थी हाल के वर्षों में घटते-घटते केवल ६ प्रतिशत रह गयी है. इसी कारण चालू खाते का घाटा बढते-बढते सन 2012-13 में 74 बिलियन डालर हो गया जो देश के कुल उत्पाद का 4.8 प्रतिशत है.

चालू खाते के घाटे की भरपाई या तो विदेशी मुद्रा भंडार से की जाती है या फिर बाज़ार से उधार ले कर करनी होती है. यह सरकार का पूंजी खाता (Capital Account) कहलाता है. मार्च 2013 में देश के पास 292 बिलियन डालर का विदेशी भंडार था जो की लगभग 8 महीने के आयात के लिए पर्याप्त था. इसके अलावा भारत ने अन्य देशों में भी अपनी पूंजी लगाई हुई है. इन दोनों को मिलाकर दिसंबर 2013 तक के 724 बिलियन डालर के कुल क़र्ज़ का भुगतान किया जा सकता है. यद्यपि अन्य देशों में किये गए पूंजी निवेश को तुरंत नहीं निकाला जा सकता.

पूंजी खाते से यदि प्राप्ति हो तो व्यापार घाटा कम हो सकता है. परंतू इस खाते का घाटा भी तेज़ी से बढ़ रहा है. जिन देशों में भारत ने निवेश किया है उनके यहाँ ब्याज दर लगातार कम हो रही है, जबकि जरूरत एवं मुसीबत में लिए गए क़र्ज़ पर ज्यादा ब्याज देना पड़ता है. पूंजी खाते के लाभ अथवा हानि को चालू खाते के घाटे में जोड़ने से कुल भुगतान के संतुलन का हाल मालूम पड़ता है, जिसमें से छोटी  के क़र्ज़ की अदायगी को नियोजित करना ज्यादा जरूरी है.

देश के कुल क़र्ज़ 724 बिलियन डालर में 160 बिलियन डालर छोटी अवधि का क़र्ज़ है जिसे किसी समय भी वापिस करना पड़ सकता है. फिर विदेशी संस्थानों (FII) द्वारा देश के शेयर बाज़ार में अब तक किया गया निवेश जो सितम्बर 2012  में 129 बिलियन डालर था किसी समय भी देश से बाहर जा सकता है. और जब यह बाज़ार से बाहर जाएगा तो इसका भुगतान उस समय के बाज़ार मूल्य पर करना होगा, जो मार्च 2013 में 239 बिलियन डालर था. इसके अलावा 55 बिलियन डालर प्रवासी भारतीयों का है. जहाँ तक देश की सम्पत्ति तथा संस्थानों में प्रत्यक्ष निवेश (FDI) का सवाल है यह भी बहुत स्थायी नहीं है, क्योंकि निजी क्षेत्र द्वारा किये गए इस निवेश का उद्देश्य छोटी अवधि में लाभ लेना होता है.

जब भी निवेशित विदेशी पूंजी देश से बाहर जाती है तो रुपये का भी अवमूल्यन होता है, जैसा कि अभी कुछ महीने पहले हुआ. इससे विदेशी मुद्रा में देश के आयात का मूल्य और कम होता है. इसलिए श्री चिदंबरम एवं वित्त मंत्रालय अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट ऐजेंसीस की शतें मानने के लिए मजबूर हैं, जिनका निर्देश है कि देश का बजट घाटा कुल उत्पाद के 3 प्रतिशत से ज्यादा न हो. यदि सरकार विकास या अन्य किसी काम के लिए अधिक खर्च करना चाहती है तो वह विदेशी बाज़ार से क़र्ज़ ले, जो की अब उसके लिए एक मजबूरी हो चुकी है.


Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
+919958806745, (Delhi) +918962166336 (Bhopal)
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खेती का काम मौत को बुलावा देने से कम नहीं

90 के दशक के अंत में तथा सन 2000 के आसपास किसानों द्वारा आत्महत्या करने के मामले सामने आये. एक अनुमान के अनुसार सन 1995 से 2011 तक के बीच लगभग 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की. ये मामले मुख्यतः कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, तथा आंध्र प्रदेश से रिपोर्ट किये गए. किसानों की दुर्दशा की यह कहानी भी एक युवा पत्रकार पी.साईनाथ के अथक प्रयासों के कारण ही सामने आ पायी, जिसके लिए उन्होनें पांच प्रदेशों में लगभग एक लाख किलोमीटर की यात्रा की, जिसमें 5000 किलोमीटर की पदयात्रा भी शामिल है. इन रिपोर्ट्स को अखबारों में प्रकाशित कराने के लिए भी उन्हें काफी जद्दोजहद करनी पड़ी.

भारतवर्ष में कृषि मानसून की अनियमितता से हमेशा ही प्रभावित होती रही है. बाढ़ अथवा सूखा, दोनों ही दशाओं में किसान नुक्सान उठाता था. परंतू गाँव के एक स्वायत्त इकाई होने से वे सभी दुष्प्रभावों को झेल पाते थे. ब्रिटिश शासन काल में ऊंची जाती वाले शासन एवं किसानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते थे तथा पैसा उधार देते थे. बीच की जाती वाले खेती करते थे तथा नीची जाती वाले खेती के लिए अनेक प्रकार की सेवाएं देते थे. किसान खेती के लिए बीज, खाद आदि का प्रबंध आपसी लेन-देन से कर लेते थे. इस स्वायत्त व्यवस्था का बाहरी बाज़ार आदि से कोई  सम्बन्ध नहीं था. परिवार की आवश्यकता से अधिक अनाज को शहर में आढतियों के माध्यम से बेच दिया जाता था. साठ के दशक तक यह जीवंत व्यवस्था कायम रही, यद्यपि सन 1950 से बाज़ार सहायता के रूप में आने वाले अमरीकन गेहूं का दुष्प्रभाव किसानों पर पड़ रहा था. 

सन 1995 में खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार ने भारतीय खाद्य निगम (FCI) की स्थापना की, जिससे किसानों का पारंपरिक आढती बाज़ार ख़त्म हो गया. जमींदारी प्रथा समाप्त होने से निचली जातिओं को जमीन मिली जिससे वे भी अपने पुश्तैनी काम को छोड़ खेती करने लगे. इससे खेती के अनेक प्रकार के सहायक कामों के लिए कारीगर एवं मजदूरों की समस्या हो गयी. ग्रामीण युवाओं के शहरी जिंदगी के प्रति आकर्षण ने संयुक्त परिवारों में टूटन पैदा की. इन सब कारणों से सदियों से चली आ रही खेती की स्वायत्त व्यवस्था धराशायी हो गयी.

सन सत्तर की HYV (High Yield Variety) हरित क्रान्ति ने किसान को बाज़ार की शरण में  ला खड़ा किया. इस खेती में रासायनिक खाद तथा कीटनाशकों का काफी प्रयोग होता था. साथ ही यह खेती केवल बारिश के भरोसे नहीं चलाई जा सकती थी. उसी समय बैंकों के राष्ट्रीयकरण से किसानों को कम ब्याज दर पर क़र्ज़ भी दिया जाने लगा, जिससे छोटी जोत के किसान जो अधिकाँश में निचली जातिओं से थे, खेती से ऐशो-आराम के सपने देखने लगे परन्तु ऐसा हुआ नहीं. किसानों के इन कर्जों को सरकारों को अनेक बार माफ़ करना पड़ा.

सन 1991 से नव-उदारवाद का दौर शुरू हुआ, जिसने खेती की अनिश्चितता को कई गुना बढ़ा दिया. आज़ादी के बाद से पूरे देश में किसानों को सभी फसलों के उन्नत बीज भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) उपलब्ध कराती रही थी. देश के पेटेंट क़ानून से भी उसे निजी क्षेत्र के विरुद्ध सुरक्षा मिली हुई थी. अब यह सब तेज़ी से बदलने वाला था. संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था गेट (General Agreement on Tariffs &Trade, GATT) ने केवल निजी क्षेत्र के वैज्ञानिकों द्वारा पेटेंट कराये गए बीजों के चलन को ही मान्यता दी. इस अंतर्राष्ट्रीय समझौते ट्रिप्स (Trade Related Intellectual Property Rights, TRIPS) के अंतर्गत किसान केवल पेटेंट किये बीजों का ही प्रयोग कर सकते थे. कर्नाटक में किसानों ने आन्दोलन कर इन समझौतों का विरोध किया, क्योंकि यह उनके बीज उत्पादन तथा दोबारा उपयोग के मौलिक अधिकार का हनन था. परंतू सभी विरोधों को दरकिनार करते हुए सरकार ने बीज उत्पादन के निजी क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश को स्वीकृति दे दी.

विज्ञान एवं तकनीकी के किसी भी क्षेत्र में रिसर्च संस्थाओं को सक्षम होने में बहुत समय लगता है तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्पर्धा करने में तो सदियाँ भी लग सकती हैं. रिसर्च के लिए प्रयोगशालाएं बनाने में धन भी बहुत लगता है. देश के निजी क्षेत्र ने तो अभी इस दिशा में कोई काम किया ही नहीं था. इस प्रकार अमरीकी बड़ी बीज कंपनियों (MNC's) के लिए देश के बीज बाज़ार पर वर्चस्व बनाने का यह एक सुनहरा मौक़ा हो गया. देश की निजी क्षेत्र की कंपनियों ने MNC's के लाईसेन्स के अंतर्गत माल बेचना शुरू किया. साथ ही ICAR के सेवानिवृत वैज्ञानिकों के माध्यम से देशी रिसर्च से भी लाभ कमाया. आज देश के बीज बाज़ार पर अधिकाँश रूप से निजी क्षेत्र का अधिकार है. साथ ही राज्यों द्वारा स्थापित बीज वितरण संस्थान करीब-करीब बाज़ार से बाहर हैं.

किसानों की आत्महत्या के अधिकाँश मामले महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के कपास की खेती करने वाले किसानों के हैं. कपास की खेती के Bt Cotton बीज के व्यापार में निजी क्षेत्र की बीज कंपनी Mahyco का वर्चस्व है. सन 2007 में किये गए एक अनुमान से एक हज़ार करोड़ का यह विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है. देसी कंपनी Mahyco का अमरीकन कम्पनी मोनसैंटो से लाइसेंस अनुबंध है. इन्होनें बाज़ार पर कब्ज़ा करने के लिए 20 अन्य कम्पनिओं को बिक्री मूल्य के लगभग 60 प्रतिशत रायल्टी भुगतान पर अपना माल बेचने के लिए अनुबंधित किया हुआ है. इन बीजों को बाज़ार में बेचने से पहले सरकारी संस्था GEAC (Genetic Engineering Approval Committee) से अनुमति लेनी होती है, जिसमें 2 से 4 वर्ष भी लग सकते हैं. लाभ के लालच में कुछ कम्पनियां बिना अनुमति लिए भी बाज़ार में अपने बीज बेचती हैं.

फिर किसानों को ये महंगे बीज हर साल खरीदने होते हैं. रुपये के अवमूल्यन से भी बीज, खाद, कीटनाशक आदि के दामों में वृद्धि होती है. देश में अधिकाँश किसान निचली जातियों से हैं और छोटी जोत के हैं. संयुक्त परिवार टूटने से तथा अन्य किसानों से आपसी लेन-देन ख़त्म होने से परिवार के मुखिया पर ही सारी जिम्मेवारी होती है. इन परिस्तिथियों में खेती जैसे जोखिम भरे काम में हाथ डालना मौत को बुलावा देने से कम नहीं.

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
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चुनावी रैलियों में जागरूक जनता की अपेक्षाएं

2014 के लोकसभा चुनाव के लिए सभी राजनैतिक दलों द्वारा अपने अपने स्तर पर तैयारियां जोरो पर चल रही है. राजनैतिक दल अपने अनुभवों, विचारों तथा जनता की हित के लिए घोषणा पत्र तैयार करती हैं. दलों में विभिन्न संप्रदाय, वर्ग, समूह, जाति, व्यवसाय से लोग शामिल होते हैं, इसलिए जनता की क्या अपेक्षायें है, वे उसे भली-भाँती जानते हैं. आज देश की जनता के सामने महंगाई तथा भ्रष्टाचार मुद्दों के साथ साथ नवयुवकों के लिए रोज़गार, कामक़ाज़ी महिलाएं शासन से सुरक्षा की अपेक्षा रखती हैं. अगले वर्ष मई 2014 में होने वाले चुनावों के लिए जनता देश की प्रमुख राजनैतिक दलों को उपरोक्त मुद्दों पर परख कर ही शासन करने के लिए बहुमत देना चाहेगी. प्रमुख दोनों दलों ने प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार घोषित या अघोषित रूप से लगभग तय कर लिए हैं. सम्पूर्ण चुनाव इन्हीं नेताओं के इर्द गिर्द घूमता दिखेगा.

जनता की पहली जरूरत भोजन है जिसके लिए जरूरी है कि खाद्यान वस्तुओं के दाम न बढें. इसके मुख्य कारणों में से कृषि क्षेत्र की धीमी विकास गति तथा उसका मानसून पर निर्भर होना है. नब्बे के दशक के सुधारों का इस क्षेत्र को कोई लाभ नहीं मिला. गेहूं तथा चावल की पिछले दो दशकों की विकास दर तो पह्ले के दशकों से भी कम है. जब देश में प्रतिष्ठित शोध संस्थान ICAR उपलब्ध है तो कृषि क्षेत्र के तकनीकी सुधारों अर्थात उन्नत बीजों की उपलब्धि आदि को बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए. भारत बड़ी मात्रा में दालों का आयात करता है, क्योंकि बेहतर बीज न मिलने से उत्पादन पिछले कई दशकों से स्थिर है. रूपए के गिरने से भी खाद्यानों के दामों में तेज़ी आती है. सिंचाई परियोजनाओं को बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता है. सूखे से बचने के लिए भू-जल के अंधा-धुंध दोहन को उचित क़ानून तथा उसके सख्ती से लागू करा जाना चाहिए.
खाद्य मंत्रालय द्वारा कुछ वर्ष पहले किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश के 40 प्रतिशत किसान खेती को फायदे का सौदा नहीं मानते. परन्तु खाद्यान बाज़ारों में जमाखोरी, सट्टाबाजारी, निर्यात आदि अनेक प्रकार की उठा-पटक से लोग-बाग़ खूब पैसा बना रहे हैं. सट्टाबाजारी में बड़े विदेशी धन का भी निवेश तेज़ी से बढ़ रहा है. अधिकाँश में तो छोटी जोत के किसान, जिनकी संख्या बहुत ज्यादा है, फसल की "विपत्ति बेच" अर्थात distress selling करते हैं.

राजा के लिए दंड की महिमा का वर्णन महभारत में आता है. आधुनिक सन्दर्भ में भी यदि शासन ने दंड को मजबूती से नहीं पकड़ा हुआ तो भ्रष्टाचार फैलेगा. इस सन्दर्भ में विकेंद्रीकरण बहुत जरूरी है अर्थात ऊपर का स्तर नीचे के स्तरों के कार्यों की निगरानी करे. परंतू पिछले दो दशकों में ऊपर के स्तर पर काम बढ़ा है. देश की विकास योजनाओं में केंद्र का प्रभुत्व अब कहीं अधिक है. केंद्र शासित प्रदेशों तथा राज्यों को बजट सहायता का "प्लान" भाग पिछले दो दशकों में 46 प्रतिशत से कम होकर केवल 21 प्रतिशत रह गया है. केंद्र तथा राज्यों के बीच राष्ट्रीय विकास परिषद् में यह एक खिंचाव का विषय बन गया है. नब्बे के दशक के शुरू में 73 तथा 74 वें संशोधनों से कानूनी तौर पर विकेंद्रीकरण के लिए रास्ता साफ़ किया गया था, परन्तु इस दिशा में केंद्र तथा राज्य स्तर पर दो दशकों की प्रगति लगभग नगण्य है.

विश्व बैंक आदि वैश्विक संस्थायें विकासशील देशों पर उनके बाज़ारों को मुक्त करने के लिए दबाव डालती रहती हैं. ढाई लाख से ऊपर पंचायतों तथा चार हज़ार नगरपालिकाओं को सत्ता में भागीदार बनाकर देश वैश्विक दबाव को झेलने में समर्थ बनेगा. साथ ही भ्रष्टाचार रोकने के लिए मजबूती से दंड का उपयोग कर सकेगा.

देश की आधी जनता आज भी कृषि पर निर्भर है अर्थात देश के 50 प्रतिशत नवयुवक ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं. इस कृषि आधारित जनता का जीडीपी में योगदान 15 प्रतिशत से भी कम है अर्थात इन नवयुकों की पारिवारिक आय बाकी देश के मुकाबले लगभग 20 प्रतिशत है. इस कारण से शैक्षिक तथा कौशल योग्यताओं से भी ये नवयुवक वंचित रहते हैं. देश के अधिकाँश गाँवों में बिजली की व्यवस्था भी अभी उद्योग धंधों के विकास के हिसाब से ठीक नहीं है. इसलिए निजी क्षेत्र तथा बैंक भी ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश अथवा लोन देने के प्रति उत्साहित नहीं होते. इस क्षेत्र के सशक्तिकरण की बहुत आवश्यकता है जिसके लिए निवेश चाहिए. मनरेगा जैसी लगभग 1 लाख करोड़ रूपए की योजना रोज़गार दे रही है, परन्तु निवेश नहीं.

लाइसेंस राज ख़त्म होने से अर्थ व्यवस्था में पिछले दो दशकों में अधिकाँश निवेश निजी क्षेत्र से आया है, जो आज कुल निवेश का 73 प्रतिशत है. परंतू यह निवेश उन्होनें "पूंजी सघन" अर्थात capital intensive क्षेत्रों में किया है. इसलिए इस विकास को "बिना रोज़गार" का विकास अर्थात jobless growth कहा गया है. यही कारण है कि आज शहरों में भी तकनीकी एवं प्रबंधन पढ़े हुए बेरोजगारों की संख्या भी बहुत अधिक है.

आवश्यकता उपरोक्त दोनों क्षेत्रों की विशेषताओं को जोड़कर कुछ करने की है. ग्रामीण क्षेत्र में भूमि है तथा कच्चे माल के रूप में खाद्यान हैं, जबकि शहरों में कौशल है. विकेंद्रीकरण से पंचायतों के रूप में प्रशासन भी उपलब्ध कराया जा सकता है, जिसे जिला स्तर पर कमिश्नर के आधीन कर राज्य सरकारें विकास योजनाओं का, जहाँ भी संभव हो, गठन कर सकती हैं.

इस मुद्दे का एक पहलू दुर्घटना के दौरान पुलिस की कार्यवाही है, जिसमें जन-आक्रोश को सूझ-बूझ से संभालना भी शामिल है. दूसरा पहलू न्यायालय द्वारा शीघ्रति-शीघ्र अपराध तय करना और अपराधी को कठोर दंड देने से जुड़ा है. उपरोक्त दोनों विषयों पर उचित सुधार की आवश्यकता काफी समय से महसूस की जा रही है. अपराध की अमानवीयता के कारण सरकार के शीर्ष नेताओं द्वारा जनता को आश्वासित करना अत्यंत आवश्यक है. वेदों में तो यहाँ तक कहा है कि राजा के लिए महिलाओं की सुरक्षा देश की सुरक्षा से भी ज्यादा जरूरी है.
 
Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
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