जॉबलेस ग्रोथ कब तक ?

पिछले दो दशकों के विकास को 'बिना रोज़गार का विकास' अथवा Jobless Growth कहा गया है. भारत जैसे युवा देश के लिए ऐसे विकास पथ पर आगे चलते रहना खतरे से खाली नहीं होगा.  

विकास या विलास   
सन 1970 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से छोटे किसानों एवं उद्योगधंधों को क़र्ज़ मिलना शुरू हो गया था. परंतू 90 के दशक में बैंक क्षेत्र में उदारीकरण से क़र्ज़ विकास की बजाय भोग-विलास की वृद्धि के लिए दिया जाने लगा. रिजर्व बैंक की वर्ष 2006-07 की रिपोर्ट के अनुसार कार, भवन निर्माण, शिक्षा, क्रेडिट कार्ड आदि अनेक मदों के लिए व्यक्तिगत क़र्ज़ (Personal Loan) जो सन 1990 में 6.5 प्रतिशत था, 2006 में बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया. इसके विपरीत उसी दौरान कृषि के लिए दिए जाने वाला क़र्ज़ 16 प्रतिशत से घट कर 11 प्रतिशत रह गया. साथ ही लघु उद्योग को दिए जाने वाला क़र्ज़ भी 11 प्रतिशत से घट कर 6 प्रतिशत रह गया.

कृषि एवं लघु उद्योग, ये दोनों ही क्षेत्र सबसे ज्यादा kरोज़गार प्रदान करते हैं. यही नहीं बड़े क़र्ज़ लेने वाले अर्थात बड़े उद्योगपति एवं बड़े किसानों को छोटे क़र्ज़ लेने वालों के मुकाबले आधी दर पर क़र्ज़ मिलता रहा है. सत्र 2007 के अंत तक बैंकों का 80 प्रतिशत क़र्ज़ कम दरों पर जाता था अर्थात बड़े उद्योगपति एवं बड़े किसानों को मिलता था.

आईटी तथा आईटी प्रभावित (IT Enabled Services, ITES) क्षेत्र
नब्बे के दशक में इस क्षेत्र का अर्थ व्यवस्था में प्रमुख भाग रहा. इस क्षेत्र के विकास का आधार अंग्रेजी तथा आईटी एवं कम्प्यूटर विषयों की शिक्षा रही जिनका 'शिक्षा लोन्स' तथा सरकार के समाज कल्याण विभाग के माध्यम से अप्रत्याशित विकास हुआ. कम दर पर उपलब्ध बैंक लोन से टेक्नीकल तथा प्रबन्धन क्षेत्र के निजी कालेजों की तो बाढ़ सी आ गयी. इन सुविधाओं का फायदा मध्यवर्गी नवयुवकों ने उठाया जो शहरों में होने से पश्चिमी सभ्यता से भी परिचित थे. परंतू रोज़गार की दृष्टि से यह क्षेत्र बिलकुल भी कामयाब नहीं रहा. सन 2007 तक देश के कुल उत्पाद में इसका योगदान 4.5 प्रतिशत था, जिसमें से 80 प्रतिशत निर्यात का भाग है. उसी समय देश के कुल रोज़गार में इस क्षेत्र का भाग केवल 0.3 प्रतिशत था. फिर ग्रामीण क्षेत्र में जहां देश की तीन चौथाई जनता रहती है, वहाँ के नवयुवकों को तो इस विकास ने छुआ भी नहीं.

पिछले कुछ वर्षों में विदेशी बाज़ार पर निर्भर होने से इस क्षेत्र के विकास की गति रुक सी गयी है.   ओबामा सरकार 'रोज़गार निर्यात' को बंद कर अपने ही देश के लिए सुरक्षित कर रहा है. इस कारण टेक्नीकल तथा प्रबन्धन विषयों को पढने वाले नवयुवकों में बेरोज़गारी भयंकर रूप से बढ़ रही है. फिर उपरोक्त विषयों के निजी क्षेत्र के कालेजों की स्थापना भी बहुत बेतरतीब ढंग से हुई है. हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार मुख्यतः निजी क्षेत्र के कालेजों से पास 47 प्रतिशत विद्यार्थी खराब अंग्रेजी तथा कमज़ोर कौशल के कारण नियुक्ति नहीं पा सकते. अवश्य ही इस सब का असर उपरोक्त कालेजों में बैंक   द्वारा दिए गए क़र्ज़ की अदायगी पर पड़ेगा.

इसी तरह टेलीकोम, मोबाइल आदि का विकास भी बेतरतीब हुआ. अस्सी के दशक में इन उपकरणों को देश में ही विकसित करने का प्रयास किया गया, परंतू जल्दी ही इसे छोड़ दिया गया. पिछले दो दशकों में शत-प्रतिशत आयात कर इस क्षेत्र का विकास किया गया. केवल 2005 से 08 के बीच कैपिटल खाते से 1 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये का सामान आयात हुआ.

आधारभूत विकास (Infrastructure Development)
विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए आधारभूत विकास विश्व स्तर का होना चाहिए. इसके अंतर्गत कई लेन वाली चौड़ी सड़कें, माल, शहरों में कार यातायात के लिए फ्लाई ओवर, विशेष निर्यात जोंस आदि का निर्माण शामिल है. इन सब सुविधाओं के निर्माण तथा जमीन अधिग्रहण आदि के लिए पिछले कुछ वर्षों में बैंक द्वारा दिए गए क़र्ज़ में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. सत्र 2004 के अंत में जहाँ यह राशि 90 हज़ार करोड़ रुपये थी, वहीं सत्र 2007 के अंत तक यह बढ़ कर 2 लाख 25 हज़ार करोड़ रुपये हो गयी. सीमेंट, स्टील तथा टाइल्स के अलावा इस वृद्धि का असर किचन रैन्जस, एयर कंडीशनर्स आदि भोग की वस्तुओं के आयात एवं उत्पादन पर भी पड़ा. सन 2001 से 2007 के बीच कारों के उत्पादन में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई. इन सभी वस्तुओं की खरीद के लिए बैंकों ने व्यक्तिगत क़र्ज़ भी दिए. जमीन बेच

ऐसे विकास के लिए शहरों में झुग्गी-झोंपड़ियों, छोटे उद्योगों तथा फेरी लगाने वालों के रोजगार की आहुति दी जाती रही है. साथ ही शहरों से लगे गाँवों के किसान भी मजबूरी में खेती छोड़ जमीन के मुआवज़े की राशि को भोग-विलास की वस्तुएं खरीदने में लगाते रहे हैं. एक राष्ट्रीय सर्वे के अनुसार अर्थ व्यवस्था के तीनों क्षेत्रों में रोज़गार का योग पिछले 9 वर्षों से 43 करोड़ के आंकडे पर अटका हुआ है.

भोग-विलास विदेशी क़र्ज़ से 
बैंकों की ऋण देने की क्षमता देश की बचत पर निर्भर करती है. सन 2007 में देश की 75 प्रतिशत जनता जो गाँवों में रहती है बचत में उसका योगदान केवल 9 प्रतिशत था. उसी वर्ष मध्यवर्गीय शहरी जनता का बचत में योगदान 56 प्रतिशत था, परंतू वह भी अब बचत की बजाय स्वयं क्रेडिट कार्ड्स पर निर्भर होती जा रही है. इसलिए बैंक भी उपरोक्त वर्णित विकास के लिए विदेशों से क़र्ज़ लेते रहे हैं.
अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण सरकार को बजट घाटा एक सीमा में रखना पड़ता है. इसलिए सरकार ने  निजी क्षेत्र के सहयोग अर्थात पीपीपी (Public Private Partnership) से आधारभूत सुविधायें प्रदान कराने  का निश्चय किया. जिसके लिए सरकार प्रोजक्ट निवेश का 75 प्रतिशत बिन ब्याज के ऋण के रूप में देती है. इन्ही सब आधारभूत सुविधाओं के लिए सरकार ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12k.) के लिए 20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करने का प्रावधान किया था, जिसके लिए सरकार ने भी विदेशों से क़र्ज़ लिया.

वर्ष 1998 से 2003 के बीच विदेश पूंजी का कुल आगमन जीडीपी का 2 प्रतिशत था, जो 2003 से 2008 के बीच 4.8 प्रतिशत हुआ और सत्र 2007-08 में बढ़कर 9.2 प्रतिशत हो गया. इस प्रकार मध्य तथा उच्च वर्गीय जनता को भोग-विलास की सामग्री उत्पादन की बजाय आयात के कारण बढते हुए विदेशी क़र्ज़ से मिली, क्योंकि आयात जो सत्र 2002-03 में जीडीपी का 12 प्रतिशत था सत्र 2012-13 में बढ़कर 27 प्रतिशत हो गया.

देश की सम्पत्ति की लूट
भूमि, संचार के लिए आवृति (Spectrum), कोयला, खनिज आदि देश की आधारभूत सम्पत्तियां हैं. आज विश्व में दूसरे देश की इन सम्पत्तियों पर अधिकार अथवा अनाधिकार बनाने की होड़ लगी हुई है. हाल के वर्षों में उजागर हुए घोटाले भी उपरोक्त सम्पत्तियों से ही सम्बन्धित हैं. इनमें प्रारम्भिक जांच के बाद यह पाया गया कि  देश की संपत्ति को जान-बूझ कर बहुत कम दामों पर बेच दिया गया था.

'रोज़गार मॉडल'
आज भारत अनेक उभरते हुए देशों के मुकाबले युवा राष्ट्र माना जाता है. अधिक आबादी भी अभिशाप की बजाय तीव्र विकास का साधन बन सकती है, परंतू इसके लिए विकास का 'रोज़गार मॉडल' अपनाना होगा जिसका आधार छोटी जोत की खेती तथा छोटे उद्योग धंधों का विकास होगा. विश्व प्रसिद्ध लेखक शूमाखर की सन 1973 में प्रकाशित शुमाखर की थीसिस Small is Beautiful 'रोज़गार मॉडल' की विस्तृत रचना में काफी सहायक हो सकती है, जिसका प्रस्तुत लेखक ने संक्षेप में वर्णन 'नव-उदारवाद का विकल्प' नामक लेख में किया है.  
  
  
                                                                         Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
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