विकासोन्मुखी शासन की भारतीय दिशा

आम-चुनाव 2014 के दौरान विकास के गुजरात मॉडल, बिहार मॉडल, आम-आदमी पार्टी का स्वराज मॉडल, आदि चर्चा में रहे. परन्तु चुनाव की गहमा-गहमी तथा आरोप प्रत्यारोपों के मध्य शायद उनमें से किसी पर भी गंभीरता से विचार नहीं हो किया गया. अब कुछ ही राज्यों में मतदान रह गए हैं तथा पिछले एक वर्ष की गतिविधियों से सत्ता में आने वाली पार्टी भी लगभग तय है. इसलिए इस मई के महीने में, नयी सरकार बनने से पहले देश को विकास के बारे में अवश्य सोचना चाहिए.

इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए "सर्वे भवन्तु सुखिनः" कड़ी के पूर्व के पांच लेखों में वेद-सम्मत विकास की भारतीय दिशा के आधारभूत सिद्धांतों का वर्णन किया गया था. विकास के लिए शासन एवं जनता के बीच विश्वास बहुत जरूरी है. चुनाव द्वारा सरकार बना लेने से जनता का शासन के प्रति विश्वास सिद्ध नहीं होता. और ना ही शासन हर निर्णय के लिए जनता के समक्ष उपस्थित हो सकता है.   पक्ष एवं विपक्ष दोनों को ही जनता के विश्वास के लिए, अगले पांच वर्ष के अपने मुद्दों की स्पष्ट चर्चा के लिए, मीडिया अथवा रैलियों का उपयोग करना चाहिए. इन कार्यों से जनता भी जल्दी ही निश्चिंत हो अपने कामों में लगेगी.

संसद में प्रधानमन्त्री अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों, अन्य सांसदों आदि की तुलना में First among Equal हो सकते हैं, परन्तु जनता की निगाह में उनका एक विशेष दर्ज़ा है. यह विश्वास प्रधानमन्त्री की मुश्किल समय में काम आने वाली व्यक्तिगत पूँजी है, परन्तु उनकी ज़रा सी असावधानी से यह काफूर भी हो सकती है. सभी सांसद उनके अपने होते हुए भी अगले पांच वर्ष उनके लिए सतत कुरुक्षेत्र है. अपने या पराये - गलती कोई भी करे, जनता उन्हीं पर प्रश्न चिन्ह लगाएगी. विकास में बाधा न आये, इसके लिए उन्हें मंत्रिमंडल एवं विपक्ष के साथ बैठ सभी पर समानता से लागू होने वाले कुछ मानक तय करने होंगे. पिछली सरकारों के कार्यकलापों को लेकर एक दूसरे पर आक्षेप करना भूतों को दावत देना होगा. जनता के बीच भ्रम फैलाने के सन्दर्भ में मीडिया के प्रमुख लोगों से बात करना भी जरूरी होगा.

हर चुनाव की तरह इस बार भी प्रत्येक क्षेत्र में लोगों ने अपने जातीय, व्यक्तिगत आदि अनेक समीकरणों के आधार पर वोट दिए होंगे. परन्तु जनता के लिए चुनाव के बाद उन सभी समीकरणों को भुलाने में ही भलाई होगी. तभी शासन स्वतंत्र होकर विकासोन्मुख हो पायेगा. 

पिछली अनेक सदियों से भारत भूमि में रहते हुए सभी मतों के लोग यहाँ के प्राचीन शास्त्रों को श्रद्धा से देखते रहे हैं. इसलिए विकास की भारतीय दिशा अथवा मॉडल में सभी की श्रद्धा होनी चाहिए. 

Kanhaiya Jha
(Ph.D Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University,
Bhopal, Madhya Pradesh
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स्वराज की कामना और समाज का क्षत्रिय धर्म

"सर्वे भवन्तु सुखिनः" लेखों की कड़ी के अंतर्गत धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष - वर्णाश्रम के इन चार पुरुषार्थों में से धर्म एवं अर्थ पर चर्चा की जा चुकी है. इससे पूर्व "राजा एवं प्रजा" लेख द्वारा राज धर्म की चर्चा की थी. इस लेख में 'प्रजा धर्म" के अंतर्गत काम पुरुषार्थ की चर्चा करेंगे जो निम्न तालिका के अनुसार क्षत्रिय का पुरुषार्थ माना गया है:

आश्रम       वर्ण         पुरुषार्थ
                  ब्रहमचर्य      शूद्र          धर्म
                  गृहस्थ       वैश्य         अर्थ
                  वानप्रस्थ      क्षत्रिय       काम
                  संन्यास       ब्राह्मण      मोक्ष
जन्म के समय सभी शूद्र है क्योंकि अभी ज्ञान नहीं है. धर्म को भली भाँती समझ तथा अर्थोपार्जन कर पारिवारिक जिम्मेवारियों से मुक्त होकर प्रत्येक व्यक्ति का यह "प्रजा धर्म" है कि वह अच्छे गाँव, शहर, राष्ट्र अथवा विश्व की कामना करे. स्वामी दयानंद पर लिखी एक पुस्तक से:

क्षत अर्थात दुःख से जो त्राण करे वह क्षत्रिय है. वो केवल राजा ही नहीं उसका अंश होकर सब जगह पूरी जनता में विद्यमान हो सकता है.

यदि राष्ट्र की बात करें तो 120 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले भारत जैसे बड़े देश में शासन को हर गली-कूचे में सुलभ नहीं कराया जा सकता. परन्तु जनता यदि "प्रजा धर्म" समझे तभी पिछले दो दशकों में संपन्न हुए भारत देश में सुख भी आयेगा. 
आज़ादी के 67 वर्ष पश्चात भी देश में अनेक स्थानों पर पीने का साफ़ पानी उपलब्ध नहीं है. गाँवों और शहरों में सभी जगह अनेक समस्याएं हैं जिनका समाधान करने में वहाँ की प्रजा स्वयं सक्षम है. पिछले लेख में अर्थ पुरुषार्थ पर चर्चा करते हुए दानशीलता के बारे ऋग्वेद 10:155 से लिखा था:
स्वार्थ और  दान न देने की वृत्ति को सदैव के लिए त्याग दो. कंजूस और स्वार्थी जनों को समाज में दरिद्रता से उत्पन्न गिरावट, कष्ट, दुर्दशा दिखाई नहीं देते. परंतु समाज के एक अंग की दुर्दशा और भुखमरी आक्रोश बन कर महामारी का रूप धारण करके पूरे समाज को नष्ट करने की शक्ति बन जाती है और पूरे समाज  को ले डूबती है.
अदानशीलता समाज में प्रतिभा एवं विद्वता की भ्रूणहत्या करने वाली सिद्ध होती है. तेजस्वी धर्मानुसार अन्न और धन की व्यवस्था करने वाले राजा इस दान विरोधिनी संवेदना विहीन वृत्ति का कठोरता से नाश करें.

शासन के विकेंद्रीकरण का केवल इतना ही तात्पर्य है कि वह प्रजा को प्रजा से ही सभी के "सुख की कामना" करने के लिए धन प्राप्त करने में केवल सहायता करे, और इसके लिए जिस भी व्यवस्था की आवश्यकता हो उसे बनाए, परन्तु सीधे कोई धन न दे.

चाणक्य सीरिअल में राजा धनानंद की दरबार में होने वाली ज्ञान सभा की चर्चा पहले के लेखों में कर चुके हैं. उसी ज्ञान सभा में आचार्य के एक प्रश्न पर कि धन की रक्षा किससे करनी चाहिए छात्र उत्तर देता है कि धन की रक्षा चोरों एवं राजपुरुषों से करनी चाहिए. इसी विषय पर चाणक्य ने लिखा है:

"जिस प्रकार जल में रहने वाली मछली कब पानी पी जाती है पटा नहीं चलता, उसी प्रकार राज कर्मचारी राजकोष से धन का अपहरण कब कर लेते हैं कोई नहीं जान सकता."

आज देश में 20 लाख से अधिक गैर-सरकारी संस्थान काम कर रहे हैं, जिन्हें सरकार देश के गांवों तथा शहरों में अनेक प्रकार के सेवा कार्यों के लिए धन देती है. बीबीसी के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है. मुख्यतः एक हिन्दू संगठन होते हुए भी संघ की विचारधारा राष्ट्रवादी है. किसी विशेष पूजा पद्धति से उसका आग्रह नहीं है. हाँ ! भारत भूमि को पुण्य मानना आवश्यक है. यह संस्थान अपने सेवा कार्यों के लिए अधिकाँश में दान द्वारा खुद ही धन का प्रबंध करता है.

मई 2014 में शासन संभालने वाली नयी सरकार करों से प्राप्त धन को गैर-सरकारी संस्थानों को ग्राम-विकास आदि कार्यों के लिए धन देने की नीति पर पुनः विचार करे. साथ ही मनरेगा एवं खाद्य सुरक्षा जैसी राष्ट्र-व्यापी योजनाओं के बारे में भी सोचें. इन पर केंद्र सरकार हर-वर्ष अपने बजट से लगभग 12 प्रतिशत खर्च करती है, और उसके दुगने से अधिक राज्य सरकारें खर्च करती हैं. इन सब खर्चों के कारण देश के विकास योजनाओं के लिए (प्लान खर्च) पर्याप्त नहीं हो पाता. यदि चोट उंगली में लगी है तो दवाई भी वहीँ लगे. पूरे शरीर पर दवाई मलना बुद्धिमानी नहीं है.   

इस देश को साधू-सन्यासियों का देश कहा जाता रहा है. अंधविश्वास आदि बहानों से शासन ने इन्हें राष्ट्र-निर्माण गति-विधियों से दूर रखा. परन्तु गांधीजी ने तो इन्हें भी अपनी सामाजिक गतिविधियों में जोड़ा था. सन 1919 से 1948 के बीच गांधी जी के आन्दोलन तो कभी-कभी चले परंतू देश-निर्माण कार्य, जैसे हिन्दु-मुस्लिम एकता, छुआ-छूत आदि से हज़ारों कार्यकर्ता एवं करोड़ों लोग प्रभावित रहते थे. देश भर में दूर-दराज के क्षेत्रों में स्थित हज़ारों आश्रमों से ये गतिविधियाँ संचालित होती थीं, जिनमें साधू-सन्यासी भी योगदान करते थे.
आज़ादी से पूर्व आज की ही तरह उस समय भी लोग कहते थे," काश ! एक बार सत्ता अपने हाथ में आ जाए". गांधीजी का जवाब आज भी उतना ही प्रासंगिक है:

"इससे बड़ा अंधविश्वास और कोई नहीं हो सकता. जैसे बसंत के समय सभी पेड़-पौधे, फल-फूल युवा नजर आते हैं, वैसे ही जब स्वराज आयेगा तब राष्ट्र के हरेक क्षेत्र में एव युवा ताजगी होगी. किसी भी परदेसी को जन-सेवक अपनी क्षमता के अनुसार जन-सेवा में कार्यरत नज़र आयेंगे."

स्वराज की कामना के लिए प्रजा अपना क्षत्रिय धर्म निभाये तथा शासन उसे उचित मदद करे.

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National University of Communication and Journalism,
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गठबंधन की सरकार नीतियों के क्रियान्वयन में बाधक


 इस चुनाव के माहौल में प्रधानमंत्री पर लिखी गयी श्री संजय बारू (लेखक) की पुस्तक बहुत चर्चा में है. लेखक यूपीए-1 के कार्यकाल में श्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार थे. नब्बे के दशक में श्री मनमोहन सिंह ने वित्त-मंत्री के पद पर कार्य करते हुए देश की अर्थ-व्यवस्था को लाईसेंस-परमिट राज से मुक्त किया था. यूपीए-1 के दौरान अमरीका से नाभिकीय-ऊर्जा के अनुबंध करने के समय भी उन्होनें अदम्य साहस का परिचय दिया था. उनकी ईमानदारी, देशभक्ति, कार्यकुशलता एवं सौम्य स्वभाव के कारण सभी उनका आदर करते हैं. फिर आज उनको लेकर इतना दुष्प्रचार क्यों हो रहा है ?

वास्तव में समस्या के मूल में वह शासन व्यवस्था है, जिसकी कमियाँ पिछले दो दशकों से चली आ रही साझा सरकारों के कारण पूरी तरह से उजागर हुई हैं. यूपीए-1 सरकार वाम-पंथी दलों के सहयोग से बनी थी, जो पूंजीवादी अमरीका को अपना घोर शत्रु मानते हैं. शासन चलाने के लिए कुछ लक्ष्मण-रेखायें तय की गयीं, जिसके लिए दोनों ही ओर से कुछ उदारवादी रुख अपनाए गए थे. देश की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने अणु-ऊर्जा के विकल्प को अपनाने का विचार किया. परंतू सन 1998 के अणु-बम विस्फोट के कारण, अमरीकी पाबंदियों के चलते, विश्व का कोई भी देश भारत को नाभिकीय-ईंधन देने को तैयार नहीं था.

अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह से बहुत प्रभावित थे. सन 2005  में क्रेमलिन में हो रहे एक समारोह में जॉर्ज बुश एवं उनकी पत्नि लौरा अपनी सीट से उठे और श्री मनमोहन सिंह एवं उनकी पत्नि को संबोधित करते हुए उन्होनें कहा:

"लौरा ! तुम भारतीय प्रधानमंत्री से मिलो. तुम जानती हो कि 100 करोड़ से भी अधिक जनसंख्या वाला भारत एक प्रजातंत्र है, जिसमें अनेक मतों एवं अनेक भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं. इनकी अर्थ-व्यवस्था भी प्रगति पर है, और यह व्यक्ति इस देश को नेतृत्व दे रहा है."

शुरू में अमरीकी राष्ट्रपति आदर से श्री मनमोहन सिंह को 'सर' कहकर बुलाते थे. बाद में जब श्री बुश भारत आये तो एक दोस्त की तरह से वे श्री मनमोहन सिंह के कंधे पर हाथ रख कर चलते देखे गए थे. इन  दोनों नेताओं के व्यक्तिगत प्रयासों से ही दोनों ही देशों में अनेकों प्रशासनिक बाधाओं के बावजूद नाभिकीय-अनुबंध का प्रारूप संसद की मंजूरी के लिए तैयार था.

भारत ने सन 1974 में पहला परमाणु-बम विस्फोट किया था. तभी से भारत पर नाभिकीय अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर करने का अमरीकी दबाव था. भारत यह हस्ताक्षर नहीं करना चाहता था, क्योंकि वह चीन की ही भांति नाभिकीय अस्त्रों को विकसित करने के अपने विकल्प को कायम रखना चाहता था. इस अनुबंध से अमरीका भारत के लिए एक अपवाद (exception) बना रहा था. इस प्रकार भारत के लिए अपने प्रति पिछले चार दशकों से चले आ रहे भेद-भाव को हमेशा के लिए ख़त्म करने का यह एक सुनहरा मौक़ा था.

इसी बीच वाम-पंथी दलों में नेतृत्व परिवर्तन से पार्टी में कट्टरवादी लोगों का वर्चस्व हो गया. उन्होनें नाभिकीय अनुबंध के विरोध को जनता के समक्ष ले जाने के लिए प्रेस-वार्ता का आयोजन किया, जबकि प्रधानमन्त्री ने इस विषय पर संसद में वक्तव्य दिया था. साथ ही उन्होनें सभी पार्टियों के नेताओं को अपने निवास-स्थान पर बात-चीत के लिए आमंत्रित किया, जहां पर प्रशासनिक अधिकारियों ने अनुबंध का पूरा विवरण उनके सम्मुख रखा. वाम-पंथियों द्वारा मुद्दे को जनता के बीच ले जाने का कोई औचित्य नहीं था.

यह देश विविधताओं से भरा हुआ है. जनता से यह अपेक्षा करना कि वह संसद में किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत दे पाएगी, मुश्किल है. साझा सरकार में यदि सभी पार्टियां अपनी विचारधारा पर अड़ी रहेंगी तो शासन नहीं चल सकेगा. विचारधारा तो साझे में सबसे बड़े घटक की ही चलनी चाहिए, क्योंकि सबसे अधिक मत देकर जनता ने उसकी विचारधारा का अनुमोदन किया है. हाँ ! यदि क्रियान्वन में कहीं भ्रष्टाचार होता है तो अवश्य ही ऐसी सरकार को गिरा देनी चाहिए.

Kanhaiya Jha
(Ph.d Research Scholar)
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धर्मयुक्त अर्थोपार्जन से सर्वे भवन्तु सुखिन:

आज से 5000 वर्ष पूर्व सिन्धु-घाटी सभ्यता के समृद्ध शहरों से मिस्र एवं फारस के शहरों से व्यापार होता था. इन शहरों के व्यापारियों को "पणि" कहा जाता था, जो संभवतः कालांतर में वणिक अथवा व्यापारी शब्द में परिवर्तित हुआ. शायद इन्हीं व्यापारियों के कारण भारत को "सोने की चिड़िया" भी कहा गया होगा. परंतू आश्चर्य की बात है कि वेदों एवं पुराणों ने इन पणियों की जगह उन घुमंतुओं की गाथा गाई जिन्हें आर्य कहा जाता है. उन ऋषि-मुनिओं को सत्कार दिया जो देश की सांस्कृतिक एकता के लिए वनों में आदिवासियों के बीच रहते थे और वहाँ आश्रम बना शिक्षा भी देते थे. देश की जनता उस राम को सदियों से पूजती आ रही है जिन्होनें वानप्रस्थ को महत्व देने के लिए राजा होते हुए भी वनवास स्वीकार किया.

अर्थ की गति के बारे में ऋग्वेद 1:24 से:

धनों के प्राप्त करने के संकल्प किसी क्षेत्र की सीमाओं, मर्यादा से नहीं बंधते. आकाश में पक्षियों  की उड़ान, वायु और जल प्रपातों की अबाध हिंसक गति के समान ये निर्बाध गतिमान होते हैं.

अर्थ की "हिंसक गति" पर नियंत्रण के लिए ऋग्वेद 10:108 में पणियों तथा इंद्र की चार आँख वाली कुतिया सरमा के बीच एक वार्तालाप है:

पणि: हे सरमा ! तुम यहाँ क्यों आयी हो ? यहाँ आने में तुम्हारा क्या व्यक्तिगत स्वार्थ है ? तुमने बहुत मुसीबतें भोगी होंगी, क्या तुम यहाँ सुविधाओं के लिए आयी हो ?

सरमा: ओ पणि ! मैं राष्ट्र को बनाने वाले इंद्र की दूत हूँ. तुमने क्या छुपाया तथा क्या जमाखोरी की है, मैं वह सब जानना चाहती हूँ. यह सही है कि मैने बहुत कष्ट उठाएं हैं, परंतू अब मैं उस सबकी अभ्यस्त हो चुकी हूँ.

पणि: ओ सरमा तुम्हारा मालिक इंद्र कितना शक्तिशाली एवं संपन्न है ? हम उससे दोस्ती करना चाहते हैं. वह हमारे व्यापार को स्वयं भी कर सकता है और धन कमा सकता है.

सरमा: इंद्र जिसकी मैं दूत हूँ, उस तक कोई पहुँच नहीं सकता, उसे कोई डिगा नहीं सकता. भ्रमित करने जल-प्रवाह उसे बहा के नहीं ले जा सकते. वह तुम्हारा मुकाबला करने में सक्षम है.

पणि: ओ सरमा ! हमारे साथ तुम भी संपन्न होने की कगार पर हो. तुम जो चाहो हमसे ले सकती हो. कौन बिना झगडा किये अपनी दौलत से बेदखल होता है. हम अपनी दौलत की वजह से बहुत शक्तिशाली भी हैं.

सरमा: ओ पणि ! तुम्हारे सुझावों को ईमानदार नौकरशाह पसंद नहीं करते. तुम्हारा व्यवहार कुटिल है. अपने को इंद्र के दंड से बचाओ. यदि तुम आत्म-समर्पण नहीं करोगे तो बहुत मुश्किलों मैं आ जाओगे.

पणि: ओ सरमा ! तुम्हारे मालिक भी हमसे डरते हैं. हम तुम्हें बहुत पसंद करते है. तुम जब तक चाहो यहाँ रह सकती हो और हमारे ऐश्वर्य में से हिस्सा ले सकती हो.

सरमा: ओ पणि ! तुम अपने रास्तों को बदलो. तुम्हारे काले कारनामों से जनता दुखी है. शासन तुम्हारे सभी राज जान चुका है. अब तुम पहले की तरह काम नहीं कर पाओगे.

अर्थ एक पुरुषार्थ तभी तक था जब तक कि वह ईमानदारी तथा परिश्रम से कमाया गया हो. अथर्ववेद 7:50:1 से:

जिस प्रकार आकाश से गिरती बिजली बड़े वृक्षों को नष्ट  करती है, उसी भांति बिना श्रम करे  जुए के खेल जैसे जो अर्थोपार्जन करने के साधन हैं, उन्हे नष्ट करो.  

विकास के भारतीय आदर्श में अर्थ अर्जित करने की कोई सीमा नहीं बांधी है. परंतू जब राज्य का उद्देश्य संपन्नता के साथ-साथ सभी का सुख हो तो अर्जित अर्थ को सही गति देना जरूरी था. ऋग्वेद 10:155 से:

स्वार्थ और  दान न देने की वृत्ति को सदैव के लिए त्याग दो. कंजूस और स्वार्थी जनों को समाज में दरिद्रता से उत्पन्न गिरावट, कष्ट, दुर्दशा दिखाई नहीं देते. परंतु समाज के एक अंग की दुर्दशा और भुखमरी आक्रोश बन कर महामारी का रूप धारण करके  पूरे समाज को नष्ट करने की शक्ति बन जाती है और पूरे समाज को ले डूबती है.

अदानशीलता समाज में प्रतिभा विद्वत्ता की भ्रूणहत्या करने वाली सिद्ध होती है. तेजस्वी धर्मानुसार अन्न और धन की व्यवस्था करने वाले राजा इस दान विरोधिनी  संवेदना विहीन वृत्ति का कठोरता से नाश करें.


लेख के अगले भाग में "सर्वे भवन्तु सुखिनः" आदर्श के लिए चारों पुरुषार्थों पर आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था का वर्णन किया जाएगा.    

Kanhaiya Jha
(Ph.d Research Scholar)
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भारत की वास्तविक शक्ति

यूपीए-2 के एक मंत्री ने भारत की शक्ति के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा, "यदि आज भारत को एक सुपर पावर समझा जाता है तो वह उसके बढते हुए व्यापार अथवा जनतंत्र के कारण नहीं है. भारत अपनी सभ्यता को अपने खान-पान, संगीत, टेक्नोलोजी तथा बोलीवुड के माध्यम से विश्व के लोगों से शेयर करता है."

मंत्री जी शायद भारत की नहीं बल्कि भोगवादी सभ्यता की बात कर रहे थे. आज शादियों तथा पार्टियों का शाही खान-पान, बोलीवुड का संगीत एवं उनकी फिल्मों के कथानक का भारतीयता से कोई लेना-देना नहीं है. अधिकाँश बोलीवुड फिल्मों में स्त्रियों का उन्मुक्त, भोग्या-रूप चित्रण भारतीय सभ्यता के बिलकुल विपरीत है. भारत की शक्ति उसकी प्राचीन काल से चली आ रही भारतीयता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति बिना ज्ञान अर्जित किये हुए शूद्र ही रहता है. बिना ज्ञान के धर्महीन होकर वह अनाधिकार अर्थ अथवा अनर्थ अर्जित करता है, काम की जगह कामवासना में लिप्त रहता है, और चार्वाक के सिद्धांतों का पालन कर केवल स्वयं के भोगों से लगाव रख परिवार, दीन-दुनिया की परवाह न करते हुए हमेशा मुक्त ही रहता है.

भारतीयता को पूरी तरह जानने के लिए उसकी वर्णाश्रम व्यवस्था को पूरी तरह समझना जरूरी है. वर्णाश्रम धर्म को जातिवाद या Caste System मानकर उसका अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए दुरूपयोग पहले विदेशी अंग्रेजों ने, और बाद में काले अंग्रेजों ने वोट-बैंक पोलिटिक्स के लिए किया. वेदों की ही भांति वर्णाश्रम व्यवस्था का ज्ञान ईश्वरीय अथवा आकाशीय है, और भारत की प्राचीनतम विद्या ज्योतिष में निहित है. यह केवल किसी अनजान ऋषि को प्राप्त ईश्वरीय प्रेरणा ही हो सकती है जिसने सर्वप्रथम आकाशीय नक्षत्रों एवं ग्रहों की गति को पृथ्वी पर रहने वाले प्राणियों की जीवनचर्या से जोड़ा. अब तो पश्चिम में भी, जो कि केवल तार्किक एवं प्रायोगिक ज्ञान को ही विज्ञान की संज्ञा देता है,  एस्ट्रोलौजी का खूब प्रचार-प्रसार हो रहा है. पश्चिमी एस्ट्रोलौजी भारतीय ज्योतिष का ही एक सरल रूप है.

किसी भी व्यक्ति की जन्मकुंडली में १२ घर होते हैं जो चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष में बराबर-बराबर विभाजित होते हैं.

धर्म के पुरुषार्थ के लिए घर संख्या 1,5,9 का त्रिकोण है. उसी प्रकार अन्य त्रिकोण - अर्थ के लिए 10,2,6; काम के लिए 7,3,11 तथा मोक्ष के लिए 4,8,12 हैं. धर्म त्रिकोण का मुख्य घर संख्या 1 है जो कि वो स्वयं अर्थात उसका व्यक्तित्व है. इसे लग्न भी कहते हैं. अर्थ त्रिकोण का मुख्य घर संख्या 10 है जो उसके कर्म हैं. घर संख्या 7 काम त्रिकोण का मुख्य है. पुरुष के लिए यह उसकी पत्नी का घर होता है. स्त्री यदि भोग्या है तो केवल उस पुरुष की जिसका वो परमेश्वर रूप मान कर स्वयं अपनी इच्छा से वरण करती है. मोक्ष त्रिकोण का मुख्य घर संख्या 4 है, जो व्यक्ति को घर से प्राप्त सुख-सुविधाओं को भी दर्शाता है. श्रीकृष्ण सब सुविधाओं के होते हुए मुक्त रहकर मोक्ष रूप को चरितार्थ करते हैं.

'यत पिंडे तत ब्रह्माण्डे' के महत्वपूर्ण सिद्धांत के अनुसार जो पुरुषार्थ पिंड अथवा व्यक्ति के लिए हैं वही  देश तथा विश्व के लिए भी हैं. प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार देश तथा विश्व के पुरुषार्थों में योग कर पाए यही वर्णाश्रम धर्म का उद्देश्य है. इस सामाजिक व्यवस्था में चार आश्रम, चार वर्ण तथा चार पुरुषार्थ निम्न प्रकार से जुड़े हुए हैं:-
               आश्रम              वर्ण       पुरुषार्थ
               ब्रहमचर्य                शूद्र       धर्म
               गृहस्थ                   वैश्य      अर्थ
               वानप्रस्थ               क्षत्रिय     काम
               संन्यास                ब्राह्मण    मोक्ष

जन्म के समय हर मनुष्य शूद्र है क्योंकि वह अभी अज्ञानी है. ब्रहमचर्य में प्रथम पच्चीस वर्ष धर्म पुरुषार्थ को भली भाँती समझ वह धनोपार्जन तथा परिवार बनाने के लिए गृहस्थ में प्रवेश करे. अगले 25 वर्ष में इतना धन कमाए एवं बचाए जिससे कि बाकी के जीवन में कमाई के लिए अधिक प्रयास न करते हुए भी निर्वाह हो सके. पचास वर्ष की आयु के बाद का समय देश, समाज एवं विश्व के लिए कुछ करने के लिए हो. देश ने शिक्षा व्यवस्था के द्वारा ज्ञान दिया, समाज ने परिवार का सुख दिया. इसलिए अपने पूर्व अनुभव का लाभ देश एवं समाज को मिले, जिससे कि आगे आने वाली पीढ़ी बेहतर पृथ्वी की हकदार बने. सन्यास में तो और भी अधिक अनुभव हो गया, जो कि वास्तव में देश, समाज एवं विश्व की पूजी है. सरकार इस पूंजी का उपयोग नयी पीढ़ी की शिक्षा के लिए कर सकती है, और इसके बदले वह उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करे. देश एवं विश्व के भोगों पर नियंत्रण के लिए यह एक अद्वितीय सामाजिक व्यवस्था है. यदि ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ भोग में हैं तो वानप्रस्थ एवं संन्यास भोग छोड़ रहे हैं.

पिछले दो दशकों से चल रही नव-उदारवाद पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था में व्यक्ति एवं देश एक बाज़ार है. यह तो पूरी तरह से 'अर्थ' भी नहीं है, क्योंकि इसमें शोषण का भी अंश है. सही विकास की राजनीतिक व्यवस्था में चारों पुरुषार्थ पोषित हों.

लेख के दूसरे भाग में चारों पुरुषार्थों को पोषित करती हुई राजनीतिक व्यवस्था की चर्चा की जायेगी. साथ ही भारतीय संस्कृति के अन्य पहलुओं जैसे नदियों एवं जंगलों का संरक्षण, पूजा पद्वति आदि पर भी विचार-विमर्श होगा.     

भारत की शक्ति के रूप में वर्णाश्रम व्यवस्था के द्वारा देश के सम्पूर्ण विकास को चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के आधार पर नियोजित किया जा सकता है. यह विकास जनता स्वयं अपने बल पर करेगी. बच्चों एवं युवाओं को शिक्षित करते हुए धर्म की नींव को सुद्रढ़ किया जाएगा. अर्थ अर्जित करते हुए सब प्राणियों के पृथ्वी पर रहने के अधिकार को सुरक्षित रखा जाएगा. यह देश नदियों, पर्वतों, जंगलों आदि को भी जीवित मानता था. जब प्रत्येक परिवार से न्याय की कामना बलवती होगी तो भ्रष्टाचार का समाज में कोई स्थान नहीं रहेगा. सांसारिक भोगों से निवृत्त, अर्थ एवं काम के व्यवहारिक ज्ञान से समृद्ध सन्यासी बच्चों एवं युवाओं को धर्म की सही शिक्षा देंगे. सर्वांगीण विकास के इस प्रतिमान (model) में राजनीतिक व्यवस्था का मुख्य काम देश एवं व्यक्ति को सुरक्षा देना होगा.

इसी सन्दर्भ में भारत की प्राचीन पूजा पद्धत्ति की चर्चा भी जरूरी है जिसका उदेश्य जनता को विकास के लिए शक्ति प्रदान करना था. भारतीय शास्त्रों में जनता को जनार्दन अथवा विष्णु कहा गया है. भगवान्, ईश्वर, परमात्मा के लिए जो भी विशेषण प्रयोग में आते हैं, वे सब जनता के लिए भी प्रयोग किये जा सकते हैं. परमात्मा अनंत है तो पृथ्वी पर जनता का विस्तार भी अनंत है. परमात्मा का न आदि है न अंत है, तो जनता भी अनादि काल से इस पृथ्वी पर विराजमान है और अनंत काल तक इस पृथ्वी पर रह सकती है, यदि भोगों में पड़कर शक्तिहीन न हो जाए. इस प्रकार परमात्मा की पूजा वास्तव में जनता की ही पूजा है. 

भागवत पुराण में अनेक जगह परमात्मा के विराट रूप की चर्चा है. भगवान् के इस विराट रूप में सभी देवी, देवताओं, ग्रहों, नक्षत्रों के साथ-साथ दैत्यों एवं असुरों का भी समावेश है. मंदिरों में विभिन्न देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित कर उनकी पूजा करने का अर्थ जनता में उन्हीं-उन्हीं शक्तियों के विकास की आकांक्षा करना है. देवताओं तथा दैत्यों द्वारा किया गया समुद्र-मंथन वास्तव में विकास की प्रक्रिया थी जिसमें भगवान् विराट अथवा जनता ने कच्छप बन आधार प्रदान किया, और फिर अपनी ही शिव-शक्ति से उत्पादित विष को भी पिया. श्रीराम एवं श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखा कर यही प्रदर्शित किया कि उनका उद्गम भी इसी अनंत जनता से है.

विराट से ही जुड़े हुए अनेक शब्द जैसे राष्ट्र, सम्राट, एकराट (मनुष्य) जनता से ही सम्बंधित हैं. 

सदियों पुरानी भारत की शक्ति के इन मूलभूत विचारों में तथा उनके क्रियान्वन में अनेकों विकार एवं बाधाएं आयीं. परंतू फिर भी जमीनी स्तर पर जनता की शक्ति की परिचायक पंचायती व्यवस्था स्थापित हुई. ये स्वायत्त ग्राम इकाईयाँ पूरे देश का शासन चलाती थीं. सन 1930 में इनके बारे में सर चार्ल्स मेटकाफ ने लिखा था, "हिन्दु, मराठा, मुग़ल, अँगरेज़ आदि अनेक शासन आये परंतू इन स्वायात इकाईओं में कोई बदलाव नहीं आया. मुश्किल के समय ये अपने को हथियारबंद कर अपनी सुरक्षा के लिए तैयार हो जाते हैं, और शत्रु सेना को शान्ति से रास्ता दे देते हैं. यदि शत्रु सेना लूट-पाट करती है तो पास के गाँवों में चले जाते हैं और अंधड़ गुजर जाने पर वापिस फिर वैसे ही रहने लगते हैं." 

भारत द्वारा पश्चिमी देशों की नक़ल कर अपनाये गए भोगवादी विकास में सर्वत्र फ़ैली भ्रष्ट राजनीति, मृतप्राय नदियाँ, जहरीली हवा में सांस लेते हुए शहर, विशालकाय योजनाओं द्वारा उजाड़े गए परिवार, भुखमरी आदि की कीचड़ के बीच कहीं-कहीं सोने की लंकायें भी खड़ी हैं.

भारत में अधिकाँश बे-कार अथवा बिना कार वाली जनता है जो आलसी नहीं है, जो मेहनत करना जानती है, जो भोली है इसलिए अभी तक अपने ही देश में बचे-खुचे काले अंग्रेजों की चालबाजियां नहीं समझ पायी है. राजा राम ने इस बे-कार सी जनता की शक्ति से ही रावण के कलुषित राज्य का अंत किया. पिछली सदी में उन्हीं श्रीराम से प्रेरणा ले महात्मा गांधी ने इसी जनता का समर्थन ले इस देश से सफ़ेद अंग्रेजों को भगाया. मई 2014 में होने वाले चुनावों में राष्ट्र को ऐसे ही नेतृत्व की अपेक्षा है जो भारतीयता के आधार पर देश का विकास करे. यदि इस देश में राम-मंदिर बने तो वह भारतीयता से सशक्त जनता की 'कर सेवा' से बने.

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National University of Communication and Journalism,
Bhopal, Madhya Pradesh
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नयी सरकार में "आम जनता से प्रजा" बनें

दिनांक 16 मई 2014, स्थान भारत देश. देश में आम चुनाव संपन्न हो चुके होंगे. कुछ ही दिनों में देश के नए प्रधानमंत्री और सभी सांसद संविधान के अनुसार देश-सेवा की शपथ लेंगे. पिछले एक वर्ष में सभी पार्टियों के छोटे-बड़े सभी नेताओं ने एक दूसरे के प्रति खूब विष-वमन किया है. चुनाव के बाद यह सब बंद होना चाहिए. अगले पांच वर्षों में विधानसभाओं आदि के और भी अनेक चुनाव होंगे. अच्छा तो यही होगा कि प्रधानमंत्री समेत सभी सांसद यह भी शपथ लें कि वे एक दूसरे के प्रति सभ्यता से व्यवहार करेंगे. सभी इस कहावत को जानते हैं कि छुरी की अपेक्षा वाणी के घाव ज्यादा गहरे होते हैं.

सत्ता अथवा विपक्ष - आप सभी को अगले पांच वर्ष मिलकर काम करना है. इस देश की भोली-भाली जनता आपसे बहुत आशाएं लगा कर बैठी है. जब आप किसी दूसरे को गाली देते हैं, तो जनता को भी  आपके अन्दर झांकने का मौक़ा मिलता है, और उसे कुछ बहुत अच्छा महसूस नहीं होता. जनता चाह कर भी आपसे एक राजा एवं प्रजा का रिश्ता नहीं बना पाती.

भारत एक प्राचीन देश है. आज भी विश्व में भारतीय सभ्यता के प्रति श्रद्धा है. देश में भी जनता   रामराज्य जैसे शासन तंत्र को आदर्श के रूप में मानती है. इस धारणा के अनुसार जनता के लिए प्रत्येक चुने हुए सांसद में अगले पांच वर्ष के लिए उन्हीं देवी अथवा देवताओं का अंश है, जिनकी इस देश की असंख्य सम्प्रदायों में बंटी हुई जनता नियमित रूप से पूजा करती है.

प्राचीन भारतीय मान्यताओं के अनुसार राजा में सभी देवी-देवताओं का वास माना गया है. उन्हीं मान्यताओं के अनुसार संसद में सर्वोच्च पद पर आसीन प्रधानमंत्री राजा का ही रूप हैं. प्रत्येक सांसद से यह अपेक्षा है कि, पार्टी-पौलीटिक्स से ऊपर उठकर, जनता को सर्वोपरि मानते हुए नए प्रधानमंत्री को अपना निश्छल एवं व्यक्तिगत सहयोग दें.

विकास के लिए विश्वास की उपरोक्त धरती का तैयार होना बहुत आवश्यक है. आम-चुनावों ने आप सभी सांसदों को अगले पांच वर्षों के लिए विश्वास की नयी धरती तैयार करने का मौक़ा दिया है.

प्रजा के नाम 
अनेक सदियों से इस देश में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन आदि विभिन्न पूजा पद्वतियों को अपनाने वाले लोग एक साथ रहते रहे हैं. देश के त्रिकाल-दर्शी ऋषियों ने इस देश का नाम हिन्दुस्तान नहीं बल्कि शकुन्तला-पुत्र भरत के नाम पर भारत रखा था, जबकि उस समय भी इस देश में बहुसंख्यक हिन्दू धर्म को मानते थे.

प्राचीन काल से ही इस देश की जनता " एकम् सत् विप्रा: बहुदा वदन्ति " को मानकर अपना "प्रजा-धर्म" निभाती रही है. उसकी मान्यता रही है कि ईश्वर एक है, परंतू देश, काल, परिस्थितियों के कारण विभिन्न सम्प्रदाय, जातियाँ आदि अपने महापुरुषों, ईश्वर-पुत्रों, अवतारों आदि का अनुसरण कर सच तक पहुँचने का अपना मार्ग तय करने के लिए स्वतंत्र हैं. 

यही कारण था कि ब्रिटिश काल में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में भारत के बाहर से आये मुस्लिम भी सभी के साथ एक होकर लड़े. इसके बाद भी गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलनों में मुसलमानों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. अंग्रेजों की मिली भगत से कुछ मुसलमानों ने अपनी एक अलग व्यवस्था बनाई, परंतू वहाँ के हाल सर्वविदित हैं.


मई 2014 के चुनावों में आप सभी लोग अपना मत किसी भी राजनीतिक पार्टी को देने के लिए स्वतंत्र हैं. बाद में भी आप किसी भी राजनीतिक पार्टी से इच्छा अनुसार संबंध रखने के लिए स्वतंत्र हैं. परंतू विकास के लिए क्षेत्र के चुने हुए सांसद के माध्यम से प्रधानमंत्री एवं उसके शासन तंत्र को ईश्वर मान उसमें विश्वास बनाये रखना आपका कर्तव्य है. यह विश्वास ही आपको "आम जनता से प्रजा" में परिवर्तित कर राजा से सम्बन्ध बनाने के योग्य बनाएगा.  

Kanhaiya Jha
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नयी सरकार की चुनौतियां

राजनैतिक दलों ने अपने घोषणा-पत्र में कई महत्वाकांक्षी योजनाओं का जिक्र किया है, जिनके लिए बजट में धन की व्यवस्था करना एक चुनौती होगी. केंद्र सरकार एक वर्ष में लगभग 15 लाख करोड़ रुपये  खर्च करती है, जबकि करों आदि से सरकार को केवल 9.4 लाख करोड़ रुपये प्राप्त होता है. यदि सरकार की आमदनी को 100 रुपये मानें तो सरकार का खर्च 160 रुपये होता है, जिसके लिए वह हर साल 60 रुपये बाज़ार से उधार लेती है. बाज़ार से लिए उधार पर सरकार हर वर्ष केवल ब्याज दे पाती है.

सरकार के कुल खर्च को यदि 100 रुपये मानें तो केवल 33 रुपये योजना खर्च (प्लान) के लिए होता है. बाकी 67 रुपये अनियोजित खर्चों जैसे वेतन, पुरानी योजनाओं के रख-रखाव आदि के लिए होते हैं.

योजनाओं को लागू करने के लिए अनियोजित खर्चों को कम करना नयी सरकार के लिए एक चुनौती होगी. इस खर्चे के मुख्य तीन मद ब्याज, अनुदान तथा रक्षा-तंत्र हैं. वित्त वर्ष 2013-14 के अंत तक सरकार की कुल देन-दारी लगभग 56 लाख करोड़ रुपये थी, जो पिछले कई वर्षों से 5-6 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष की दर से बढ़ती जा रही है. इस देन-दारी की वजह से अनियोजित खर्च का लगभग 33 प्रतिशत केवल ब्याज चुकाने पर लग जाता है. कीमतों को स्थिर रखने के लिए सरकार खाद्य पदार्थों, उर्वरक, तथा पेट्रोलियम पर अनुदान देती है. नयी सरकार यदि रक्षा मंत्रालय के खर्चे को कम करती है तो उसे संसद में भीषण विरोध का सामना करना पडेगा. उपरोक्त तीनों मदों को जोड़ा जाय तो सरकार के पास अनियोजित खर्च के मद में केवल 27 प्रतिशत बचता है, जिसमें से उसे सरकारी कर्मचारियों को वेतन देना होता है. महंगाई भत्ते आदि के इसमें लगातार वृद्धि होती रहती है. फिर नए वेतन आयोग का भी गठन किया जा चुका है, जिसकी विभीषिका भी अगली सरकार ही झेलेगी.  

प्रायः अनियोजित खर्चा अनुमान से अधिक हो जाता है. इसके अलावा सरकार कर-संग्रहण भी अनुमान से कम कर पाती है. बाज़ार से उधार के लिए निकाले गए बांड्स भी पूरी तरह निवेशित नहीं हो पाते. इन तीनों कारणों से योजना खर्च को और कम करना पड़ता है. वित्त-वर्ष 2012-13 में योजना खर्च में लगभग 21 प्रतिशत की कमी करनी पडी.

वित्त वर्ष 2014-15 के लिए अंतरिम बजट पेश करते हुए केन्द्रीय वित्त-मंत्री की कुछ घोषणाएं इस प्रकार से थीं:-


  • वित्त वर्ष 2013-14 के कर-संग्रह में लगभग 70 हज़ार करोड़ का घाटा होने की संभावना है जिसे बाज़ार से उधार लेकर पूरा किया जाएगा.
  • पेट्रोलियम अनुदान के 35 हज़ार करोड़ रुपये की देनदारी जो वित्त-वर्ष 2013-14 में देनी थी उसका भुगतान वित्त वर्ष 2014-15 में किया जाएगा.
  • वित्त-वर्ष 2014-15 में योजना खर्च उतना ही रखा गया है जितना की वर्ष 2013-14 में था.
प्रतिवर्ष सरकार करों से लगभग 15 प्रतिशत अधिक आमदनी करती है. फिर राज्य सरकारें अलग से अपने कर लगाती हैं. इस सबसे महंगाई बढ़ती है, जो योजनाओं को भी महंगा कर देती हैं, जबकि योजनाओं के लिए प्रावधान में कोई बढ़ोतरी नहीं होती. देश के तीव्र विकास के लिए नयी सरकार को कुछ नए तरीके से सोचना अवाश्यक होगा.



Kanhaiya Jha

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