मेघालय के विकास में अवैध खनन की बाधकता

मेघालय 22 हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ एक छोटा राज्य है. सन 72 में दक्षिण असम के तीन मुख्य प्रान्तों खासी, गारो एवं जनिता को मिलाकर मेघालय को एक अलग राज्य का दर्ज़ा दिया गया. दक्षिण में मेघालय की सीमा बंगलादेश से लगती है. यहाँ की आबादी लगभग 30 लाख  है. इसकी राजधानी शिलांग को पूर्व का स्कॉटलैंड कहा जाता है. प्रदेश का एक-तिहाई भाग जंगलों से ढका हुआ है जो पक्षिओं, पेड़-पौधों, जानवरों की विविधता के लिए प्रसिद्ध हैं. यहाँ की लगभग 70 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर रहती है. खाद्यानों गेंहूं, धान आदि के अतिरिक्त प्रदेश की जलवायु फल, फूल तथा औंषधीय पौधों के उत्पादन के लिए काफी उपयुक्त है.

परन्तु चूना-पत्थर, कोयला आदि अनेक खनिज पदार्थों के खनन से आम जनता तथा प्रदेश की प्राकृतिक संपदा बदहाल है. मेघालय का अवैध खनन उद्योग एक चतुराई से छिपाया हुआ रहस्य रहा है जिसके दुष्प्रभाव अब धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं. मेघालय के खासी पहाड़ी क्षेत्र में फ्रांस की एक बड़ी सीमेंट बनाने वाली कंपनी लाफार्जे (Lafarge) अपने बंगलादेश स्थित सीमेंट कारखाने के लिए चूना-पत्थर का खनन करती है. कंपनी को सन 2000० में जंगलात अधिकारी की एक रिपोर्ट पर कि खासी पहाड़ी एक बेकार क्षेत्र है, पर्यावरण मंत्रालय से खनन की अनुमति मिल गयी थी. सन 2010 में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर कि खनन का काम जंगलात वाले क्षेत्र में हो रहा है पर्यावरण मंत्रालय ने कुछ बदलाव के साथ कंपनी को दोबारा खनन की अनुमति दे दी.

परन्तु पास के गाँव वालों की शिकायत पर उच्चतम न्यायालय ने मामले पर फिर गौर किया. लाफार्जे के खनन के साथ ही उस क्षेत्र में अवैध खनन ने भी जोर पकड़ लिया. ये लोग खनन से उत्पन्न कचरे को नदियों में फैंक देते हैं, जिससे क्षेत्र की अनेक नदियाँ मृत हो गयीं हैं. नदी का जल अम्लीय हो जाने से अनेक क्षेत्रों से जंगल भी साफ़ हो गए हैं. इसके बावजूद कुछ वर्ष पूर्व प्रदेश के जनिता पहाड़ी क्षेत्र में दो बड़े सीमेंट कारखाने लगाए गए हैं तथा कई और लगने को तैयार हैं.

मेघालय में कोयले का अवैध खनन भी बहुत होता है. प्रदेश के दक्षिण गारो पहाड़ी क्षेत्र को कोयले के खनन के लिए जंगल रहित कर दिया गया है. यहाँ का एक स्थानीय संगठन इन अवैध खानों को बंद करा देता है, और साथ ही प्रदेश सरकार पर अनदेखी का आरोप भी लगाता है. इस क्षेत्र की प्रायः सभी नदियाँ इस गतिविधि से प्रदूषित हो चुकी हैं.

देश में खनन गतिविधि को सुनियोजित प्रकार से चलाने के लिए सन 1957 का एक क़ानून भी है, जिसके अंतर्गत बिना पट्टे के खनन करने पर सज़ा का प्रावधान है. राज्य में खनन को नियंत्रित करने के लिए मेघालय खनन विकास प्राधिकरण भी है, जो बिना प्लान के खनन के लिए पट्टा जारी नहीं करता. इसके अलावा राज्य का अपना पर्यावरण मंत्रालय भी है. फिर क्षेत्र में गैर-सरकारी संस्थान (एनजीओ, NGO) भी समय-समय पर खनन से सम्बन्धित अवांछित गतिविधियों को प्रकाश में लाते रहते हैं. कुछ वर्ष पहले आयोजित ऐसे ही एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्तर के एनजीओ के साथ-साथ स्थानीय एनजीओ समरक्षण ट्रस्ट आदि ने भी भाग लिया था. इसमें गारो विद्यार्थी परिषद् के प्रवक्ता ने कहा था कि "अवैध खनन से सरकार को भी रायल्टी प्राप्त होती है." उसने यह भी कहा था कि राष्ट्रीय बैंक भी इन प्रोजेक्टों को धन देते हैं. एक और स्थानीय संस्था के प्रवक्ता ने कहा था कि इन अवैध गतिविधियों में जन प्रतिनिधि शामिल हैं और इसका आम जनता से कोई लेना-देना नहीं है. इस पर एक सुझाव आया था कि राज्य की प्रांतीय परिषदों को सशक्त करने से प्रदेश के पर्यावरण को सुरक्षित किया जा सकेगा.

मेघालय में राज्य सरकारों का औसतन कार्यकाल 18 महीने से भी कम रहा है. पिछली कुछ सरकारें तो 6 महीने से भी कम चली हैं. इसकी तुलना में प्रदेश की तीन मुख्य जातियों खासी, गारो, तथा जनिता का अपना परम्परागत राजनीतिक तंत्र है जो पिछली कई शताब्दियों से गाँव के स्तर से लेकर राज्य स्तर तक सुरक्षित चला आ रहा है. केंद्र सरकार ने भी जातियों के आधार पर तीन स्वायत्त परिषदें बनायी, परंतू उचित अधिकार न देने से उनकी कोई उपयोगिता नहीं है. बंगलादेश से सीमा लगी होने के कारण प्रदेश में अवैध घुसपैठ एक बड़ी समस्या है, जो स्थानीय लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा करती है.   

देश एवं राज्य में अनेक स्तरों पर चुनाव होते हैं जिनका उद्देश्य ही चुने हुए प्रतिनिधियों को क्षेत्र की सुरक्षा का भार सोंपना होता है. परंतू यदि वे ही स्वार्थवश अपने दायित्व को भूल जाएँ तो जनता स्वयं ही जाग्रत होती है. सामजिक चेतना के स्वयं जाग्रत होने में भटकाव आने से हिंसा, तोड़-फोड़, अलगाववाद जैसी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के बढने की आशंका हमेशा बनी रहती हैं. आज देश को नाभिकीय विधि से विद्युत् उत्पादन के लिए यूरेनियम चाहिए जिसका एक मात्र स्रोत मेघालय में है. परंतू स्थानीय विरोध के कारण पिछले दस वर्षों के प्रयास के बाद भी देश का यूरेनियम प्राधिकरण उसको प्राप्त नहीं कर पा रहा.

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