धारा 370 - जम्मू-कश्मीर के विकास और देश की एकता में बाधक

भारत पाकिस्तान के बीच कश्मीर ब्रिटेन के अंतर्राष्ट्रीय स्वार्थों की वजह से एक विवाद बना. अमरीका मध्य-पूर्व एशिया में वहाँ के मुस्लिम राष्ट्रों को सोवियत संघ के विरुद्ध एकजुट कर रहा था. ब्रिटेन भी दोनों नए राष्ट्रों को सोवियत संघ के प्रभाव में नहीं जाने देना चाहता था. अन्य राजाओं की ही तरह कश्मीर के महाराजा भी राज्य के भारत में विलय के सामान्य दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर चुके थे. पाकिस्तान सेना समर्थित कबाइलियों का कश्मीर पर आक्रमण वास्तव में पाकिस्तान का भारत पर आक्रमण था, जिसका जबाब देने में भारत उस समय भी सक्षम था. लार्ड माउंटबेटन के कहने पर मामले को संयुक्त राष्ट्र (UN) में ले जाने से ब्रिटेन की कूटनीति सफल हुई और कश्मीर एक अंतर्राष्ट्रीय विवाद बन गया.

भारत में राज्यों की विलय के शर्तों के अनुसार जो कश्मीर पर भी लागू होती थीं रक्षा, विदेश नीति एवं संचार विषयों के अधिकार केंद्र सरकार को सौंप दिए गए थे. इसके साथ ही सरकार ने भारत गणराज्य का संविधान बनाने का काम शुरू कर दिया था. राज्यों को अन्य विषयों पर अपने संविधान बनाने के लिए अनुमति दे दी गयी थी. मई 49 में कश्मीर के अलावा अन्य सभी राज्य पमुखों ने दिल्ली में बैठक कर यह जिम्मेवारी भी केंद्र सरकार को सौंप दी. परंतू शेख अब्दुल्ला एवं उनकी पार्टी मुस्लिम कांफ्रेंस ने, इस आधार पर कि कश्मीर की मुस्लिम जनता हिन्दु बहुलता के प्रभुत्व में आ जायेगी, भारतीय संविधान को मानने से इनकार कर दिया, और इस प्रकार भारतीय संविधान में धारा 370 शामिल हुई.

परन्तु पिछले 66 वर्ष का इतिहास इस बात का गवाह है कि मुस्लिम कांफ्रेंस के नेताओं की उपरोक्त धारणा गलत थी. संविधान के अनुसार देश में जनता का राज्य चल रहा है. जनता ने बिना किसी पक्षपात के सभी धर्मों के लोगों को चुनकर राज्यों एवं केंद्र में भेजा है. उच्चतम पदों पर आसीन अनेक नेताओं ने जनता के फैसले को स्वीकार करते हुए ख़ुशी-ख़ुशी पद छोड़ा है. पूरे देश में लोग-बाग़ एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते रहे हैं. कहीं-कहीं दूसरे प्रदेश वासियों के प्रति घ्रणा के स्वर भी सुनायी दिए हैं, परन्तु अधिकाँश में अपना प्रदेश छोड़ दूसरे प्रदेश में गए लोग सुख से जी रहे हैं. देश की मुख्य राजनीतिक पार्टियां प्रदेशों के लिए मुख्य मंत्री चुनते हुए स्थानीय व्यक्ति का ही चुनाव करती हैं. उत्तर-पूर्व में तो दूसरे देश से आये लोगों को भी शरण देने का भरसक प्रयास किया गया है.

यह भी कहा जाता है कि धारा 370 से कश्मीरियों की संस्कृति की रक्षा होती है. इस प्रकार की संस्कृति की रक्षा की बातें अन्य धर्मों के कट्टरवादी लोग भी करते हैं, जो कि वास्तव में कबीले की मानसिकता है. संस्कृति तो सत्य को जीवन शैली में उतारने से बनती है, और सत्य तो चमकता हुआ सूरज है जिसे कोई बादल बहुत देर तक छुपाये नहीं रख सकता. ईसा-मूसा के जमाने में भी सभ्यताएं एक दूसरे से व्यवहार रखती थीं. फिर आज के संचार प्रधान युग में किसी क़ानून या धारा से कबीले चलाना असंभव है. इस देश में पिछली शताब्दी के शुरू से ही पश्चिम की उन्मुक्त जीवन शैली को लेकर अनेकों आशंकाएं जताई जाती रही हैं, परन्तु आज भी इस देश में परिवार कायम हैं, बड़ों की इज्ज़त होती है, शादी-ब्याह परिवार की मर्ज़ी से होते हैं.     

भारत का इतिहास गवाह है कि  यह देश कभी आक्रान्ता नहीं बना. पाकिस्तान बनने से वह मानसिकता भी देश से बाहर हो गयी कि मुस्लिम इस देश में आक्रान्ता बनकर आये थे. कश्मीर अथवा अन्य किसी प्रदेश में सेना की उपस्थिति न ही किसी नेता के अहंकार के कारण है और न ही किसी की उसमें ख़ुशी है. कश्मीर से कहीं ज्यादा मुसलमान तो देश के अनेक प्रदेशों में ही होंगे. वे लड़ाई-झगड़ों से दुखी भी हुए हैं, उन्होनें कष्ट भी झेले हैं, परन्तु संविधान को मानकर आज कश्मीरी मुसलमानों के मुकाबले देश के अन्य मुसलमान ज्यादा सुखी हैं. मुस्लिम कांफ्रेंस के नेताओं ने धारा 370 के द्वारा कश्मीरी मुसलमानों को बाकी देश से अलग कर किसी का भी भला नहीं किया.

आज देश में एकता का माहौल बन रहा है. देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां भी वोट-बैंक की पालिसी को त्याग "वोट फॉर इण्डिया" अर्थात देश के लिए वोट करने पर जोर दे रही हैं. देश में राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी एक अच्छा माहौल बन रहा है. दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों के नतीजे इस दिशा में उत्साहवर्द्धक हैं. मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में जनता ने सुशासन के पक्ष में मत डाला है, वहीं दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं.  

मेघालय के विकास में अवैध खनन की बाधकता

मेघालय 22 हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ एक छोटा राज्य है. सन 72 में दक्षिण असम के तीन मुख्य प्रान्तों खासी, गारो एवं जनिता को मिलाकर मेघालय को एक अलग राज्य का दर्ज़ा दिया गया. दक्षिण में मेघालय की सीमा बंगलादेश से लगती है. यहाँ की आबादी लगभग 30 लाख  है. इसकी राजधानी शिलांग को पूर्व का स्कॉटलैंड कहा जाता है. प्रदेश का एक-तिहाई भाग जंगलों से ढका हुआ है जो पक्षिओं, पेड़-पौधों, जानवरों की विविधता के लिए प्रसिद्ध हैं. यहाँ की लगभग 70 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर रहती है. खाद्यानों गेंहूं, धान आदि के अतिरिक्त प्रदेश की जलवायु फल, फूल तथा औंषधीय पौधों के उत्पादन के लिए काफी उपयुक्त है.

परन्तु चूना-पत्थर, कोयला आदि अनेक खनिज पदार्थों के खनन से आम जनता तथा प्रदेश की प्राकृतिक संपदा बदहाल है. मेघालय का अवैध खनन उद्योग एक चतुराई से छिपाया हुआ रहस्य रहा है जिसके दुष्प्रभाव अब धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं. मेघालय के खासी पहाड़ी क्षेत्र में फ्रांस की एक बड़ी सीमेंट बनाने वाली कंपनी लाफार्जे (Lafarge) अपने बंगलादेश स्थित सीमेंट कारखाने के लिए चूना-पत्थर का खनन करती है. कंपनी को सन 2000० में जंगलात अधिकारी की एक रिपोर्ट पर कि खासी पहाड़ी एक बेकार क्षेत्र है, पर्यावरण मंत्रालय से खनन की अनुमति मिल गयी थी. सन 2010 में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर कि खनन का काम जंगलात वाले क्षेत्र में हो रहा है पर्यावरण मंत्रालय ने कुछ बदलाव के साथ कंपनी को दोबारा खनन की अनुमति दे दी.

परन्तु पास के गाँव वालों की शिकायत पर उच्चतम न्यायालय ने मामले पर फिर गौर किया. लाफार्जे के खनन के साथ ही उस क्षेत्र में अवैध खनन ने भी जोर पकड़ लिया. ये लोग खनन से उत्पन्न कचरे को नदियों में फैंक देते हैं, जिससे क्षेत्र की अनेक नदियाँ मृत हो गयीं हैं. नदी का जल अम्लीय हो जाने से अनेक क्षेत्रों से जंगल भी साफ़ हो गए हैं. इसके बावजूद कुछ वर्ष पूर्व प्रदेश के जनिता पहाड़ी क्षेत्र में दो बड़े सीमेंट कारखाने लगाए गए हैं तथा कई और लगने को तैयार हैं.

मेघालय में कोयले का अवैध खनन भी बहुत होता है. प्रदेश के दक्षिण गारो पहाड़ी क्षेत्र को कोयले के खनन के लिए जंगल रहित कर दिया गया है. यहाँ का एक स्थानीय संगठन इन अवैध खानों को बंद करा देता है, और साथ ही प्रदेश सरकार पर अनदेखी का आरोप भी लगाता है. इस क्षेत्र की प्रायः सभी नदियाँ इस गतिविधि से प्रदूषित हो चुकी हैं.

देश में खनन गतिविधि को सुनियोजित प्रकार से चलाने के लिए सन 1957 का एक क़ानून भी है, जिसके अंतर्गत बिना पट्टे के खनन करने पर सज़ा का प्रावधान है. राज्य में खनन को नियंत्रित करने के लिए मेघालय खनन विकास प्राधिकरण भी है, जो बिना प्लान के खनन के लिए पट्टा जारी नहीं करता. इसके अलावा राज्य का अपना पर्यावरण मंत्रालय भी है. फिर क्षेत्र में गैर-सरकारी संस्थान (एनजीओ, NGO) भी समय-समय पर खनन से सम्बन्धित अवांछित गतिविधियों को प्रकाश में लाते रहते हैं. कुछ वर्ष पहले आयोजित ऐसे ही एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्तर के एनजीओ के साथ-साथ स्थानीय एनजीओ समरक्षण ट्रस्ट आदि ने भी भाग लिया था. इसमें गारो विद्यार्थी परिषद् के प्रवक्ता ने कहा था कि "अवैध खनन से सरकार को भी रायल्टी प्राप्त होती है." उसने यह भी कहा था कि राष्ट्रीय बैंक भी इन प्रोजेक्टों को धन देते हैं. एक और स्थानीय संस्था के प्रवक्ता ने कहा था कि इन अवैध गतिविधियों में जन प्रतिनिधि शामिल हैं और इसका आम जनता से कोई लेना-देना नहीं है. इस पर एक सुझाव आया था कि राज्य की प्रांतीय परिषदों को सशक्त करने से प्रदेश के पर्यावरण को सुरक्षित किया जा सकेगा.

मेघालय में राज्य सरकारों का औसतन कार्यकाल 18 महीने से भी कम रहा है. पिछली कुछ सरकारें तो 6 महीने से भी कम चली हैं. इसकी तुलना में प्रदेश की तीन मुख्य जातियों खासी, गारो, तथा जनिता का अपना परम्परागत राजनीतिक तंत्र है जो पिछली कई शताब्दियों से गाँव के स्तर से लेकर राज्य स्तर तक सुरक्षित चला आ रहा है. केंद्र सरकार ने भी जातियों के आधार पर तीन स्वायत्त परिषदें बनायी, परंतू उचित अधिकार न देने से उनकी कोई उपयोगिता नहीं है. बंगलादेश से सीमा लगी होने के कारण प्रदेश में अवैध घुसपैठ एक बड़ी समस्या है, जो स्थानीय लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा करती है.   

देश एवं राज्य में अनेक स्तरों पर चुनाव होते हैं जिनका उद्देश्य ही चुने हुए प्रतिनिधियों को क्षेत्र की सुरक्षा का भार सोंपना होता है. परंतू यदि वे ही स्वार्थवश अपने दायित्व को भूल जाएँ तो जनता स्वयं ही जाग्रत होती है. सामजिक चेतना के स्वयं जाग्रत होने में भटकाव आने से हिंसा, तोड़-फोड़, अलगाववाद जैसी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के बढने की आशंका हमेशा बनी रहती हैं. आज देश को नाभिकीय विधि से विद्युत् उत्पादन के लिए यूरेनियम चाहिए जिसका एक मात्र स्रोत मेघालय में है. परंतू स्थानीय विरोध के कारण पिछले दस वर्षों के प्रयास के बाद भी देश का यूरेनियम प्राधिकरण उसको प्राप्त नहीं कर पा रहा.

जॉबलेस ग्रोथ कब तक ?

पिछले दो दशकों के विकास को 'बिना रोज़गार का विकास' अथवा Jobless Growth कहा गया है. भारत जैसे युवा देश के लिए ऐसे विकास पथ पर आगे चलते रहना खतरे से खाली नहीं होगा.  

विकास या विलास   
सन 1970 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से छोटे किसानों एवं उद्योगधंधों को क़र्ज़ मिलना शुरू हो गया था. परंतू 90 के दशक में बैंक क्षेत्र में उदारीकरण से क़र्ज़ विकास की बजाय भोग-विलास की वृद्धि के लिए दिया जाने लगा. रिजर्व बैंक की वर्ष 2006-07 की रिपोर्ट के अनुसार कार, भवन निर्माण, शिक्षा, क्रेडिट कार्ड आदि अनेक मदों के लिए व्यक्तिगत क़र्ज़ (Personal Loan) जो सन 1990 में 6.5 प्रतिशत था, 2006 में बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया. इसके विपरीत उसी दौरान कृषि के लिए दिए जाने वाला क़र्ज़ 16 प्रतिशत से घट कर 11 प्रतिशत रह गया. साथ ही लघु उद्योग को दिए जाने वाला क़र्ज़ भी 11 प्रतिशत से घट कर 6 प्रतिशत रह गया.

कृषि एवं लघु उद्योग, ये दोनों ही क्षेत्र सबसे ज्यादा kरोज़गार प्रदान करते हैं. यही नहीं बड़े क़र्ज़ लेने वाले अर्थात बड़े उद्योगपति एवं बड़े किसानों को छोटे क़र्ज़ लेने वालों के मुकाबले आधी दर पर क़र्ज़ मिलता रहा है. सत्र 2007 के अंत तक बैंकों का 80 प्रतिशत क़र्ज़ कम दरों पर जाता था अर्थात बड़े उद्योगपति एवं बड़े किसानों को मिलता था.

आईटी तथा आईटी प्रभावित (IT Enabled Services, ITES) क्षेत्र
नब्बे के दशक में इस क्षेत्र का अर्थ व्यवस्था में प्रमुख भाग रहा. इस क्षेत्र के विकास का आधार अंग्रेजी तथा आईटी एवं कम्प्यूटर विषयों की शिक्षा रही जिनका 'शिक्षा लोन्स' तथा सरकार के समाज कल्याण विभाग के माध्यम से अप्रत्याशित विकास हुआ. कम दर पर उपलब्ध बैंक लोन से टेक्नीकल तथा प्रबन्धन क्षेत्र के निजी कालेजों की तो बाढ़ सी आ गयी. इन सुविधाओं का फायदा मध्यवर्गी नवयुवकों ने उठाया जो शहरों में होने से पश्चिमी सभ्यता से भी परिचित थे. परंतू रोज़गार की दृष्टि से यह क्षेत्र बिलकुल भी कामयाब नहीं रहा. सन 2007 तक देश के कुल उत्पाद में इसका योगदान 4.5 प्रतिशत था, जिसमें से 80 प्रतिशत निर्यात का भाग है. उसी समय देश के कुल रोज़गार में इस क्षेत्र का भाग केवल 0.3 प्रतिशत था. फिर ग्रामीण क्षेत्र में जहां देश की तीन चौथाई जनता रहती है, वहाँ के नवयुवकों को तो इस विकास ने छुआ भी नहीं.

पिछले कुछ वर्षों में विदेशी बाज़ार पर निर्भर होने से इस क्षेत्र के विकास की गति रुक सी गयी है.   ओबामा सरकार 'रोज़गार निर्यात' को बंद कर अपने ही देश के लिए सुरक्षित कर रहा है. इस कारण टेक्नीकल तथा प्रबन्धन विषयों को पढने वाले नवयुवकों में बेरोज़गारी भयंकर रूप से बढ़ रही है. फिर उपरोक्त विषयों के निजी क्षेत्र के कालेजों की स्थापना भी बहुत बेतरतीब ढंग से हुई है. हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार मुख्यतः निजी क्षेत्र के कालेजों से पास 47 प्रतिशत विद्यार्थी खराब अंग्रेजी तथा कमज़ोर कौशल के कारण नियुक्ति नहीं पा सकते. अवश्य ही इस सब का असर उपरोक्त कालेजों में बैंक   द्वारा दिए गए क़र्ज़ की अदायगी पर पड़ेगा.

इसी तरह टेलीकोम, मोबाइल आदि का विकास भी बेतरतीब हुआ. अस्सी के दशक में इन उपकरणों को देश में ही विकसित करने का प्रयास किया गया, परंतू जल्दी ही इसे छोड़ दिया गया. पिछले दो दशकों में शत-प्रतिशत आयात कर इस क्षेत्र का विकास किया गया. केवल 2005 से 08 के बीच कैपिटल खाते से 1 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये का सामान आयात हुआ.

आधारभूत विकास (Infrastructure Development)
विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए आधारभूत विकास विश्व स्तर का होना चाहिए. इसके अंतर्गत कई लेन वाली चौड़ी सड़कें, माल, शहरों में कार यातायात के लिए फ्लाई ओवर, विशेष निर्यात जोंस आदि का निर्माण शामिल है. इन सब सुविधाओं के निर्माण तथा जमीन अधिग्रहण आदि के लिए पिछले कुछ वर्षों में बैंक द्वारा दिए गए क़र्ज़ में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. सत्र 2004 के अंत में जहाँ यह राशि 90 हज़ार करोड़ रुपये थी, वहीं सत्र 2007 के अंत तक यह बढ़ कर 2 लाख 25 हज़ार करोड़ रुपये हो गयी. सीमेंट, स्टील तथा टाइल्स के अलावा इस वृद्धि का असर किचन रैन्जस, एयर कंडीशनर्स आदि भोग की वस्तुओं के आयात एवं उत्पादन पर भी पड़ा. सन 2001 से 2007 के बीच कारों के उत्पादन में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई. इन सभी वस्तुओं की खरीद के लिए बैंकों ने व्यक्तिगत क़र्ज़ भी दिए. जमीन बेच

ऐसे विकास के लिए शहरों में झुग्गी-झोंपड़ियों, छोटे उद्योगों तथा फेरी लगाने वालों के रोजगार की आहुति दी जाती रही है. साथ ही शहरों से लगे गाँवों के किसान भी मजबूरी में खेती छोड़ जमीन के मुआवज़े की राशि को भोग-विलास की वस्तुएं खरीदने में लगाते रहे हैं. एक राष्ट्रीय सर्वे के अनुसार अर्थ व्यवस्था के तीनों क्षेत्रों में रोज़गार का योग पिछले 9 वर्षों से 43 करोड़ के आंकडे पर अटका हुआ है.

भोग-विलास विदेशी क़र्ज़ से 
बैंकों की ऋण देने की क्षमता देश की बचत पर निर्भर करती है. सन 2007 में देश की 75 प्रतिशत जनता जो गाँवों में रहती है बचत में उसका योगदान केवल 9 प्रतिशत था. उसी वर्ष मध्यवर्गीय शहरी जनता का बचत में योगदान 56 प्रतिशत था, परंतू वह भी अब बचत की बजाय स्वयं क्रेडिट कार्ड्स पर निर्भर होती जा रही है. इसलिए बैंक भी उपरोक्त वर्णित विकास के लिए विदेशों से क़र्ज़ लेते रहे हैं.
अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण सरकार को बजट घाटा एक सीमा में रखना पड़ता है. इसलिए सरकार ने  निजी क्षेत्र के सहयोग अर्थात पीपीपी (Public Private Partnership) से आधारभूत सुविधायें प्रदान कराने  का निश्चय किया. जिसके लिए सरकार प्रोजक्ट निवेश का 75 प्रतिशत बिन ब्याज के ऋण के रूप में देती है. इन्ही सब आधारभूत सुविधाओं के लिए सरकार ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12k.) के लिए 20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करने का प्रावधान किया था, जिसके लिए सरकार ने भी विदेशों से क़र्ज़ लिया.

वर्ष 1998 से 2003 के बीच विदेश पूंजी का कुल आगमन जीडीपी का 2 प्रतिशत था, जो 2003 से 2008 के बीच 4.8 प्रतिशत हुआ और सत्र 2007-08 में बढ़कर 9.2 प्रतिशत हो गया. इस प्रकार मध्य तथा उच्च वर्गीय जनता को भोग-विलास की सामग्री उत्पादन की बजाय आयात के कारण बढते हुए विदेशी क़र्ज़ से मिली, क्योंकि आयात जो सत्र 2002-03 में जीडीपी का 12 प्रतिशत था सत्र 2012-13 में बढ़कर 27 प्रतिशत हो गया.

देश की सम्पत्ति की लूट
भूमि, संचार के लिए आवृति (Spectrum), कोयला, खनिज आदि देश की आधारभूत सम्पत्तियां हैं. आज विश्व में दूसरे देश की इन सम्पत्तियों पर अधिकार अथवा अनाधिकार बनाने की होड़ लगी हुई है. हाल के वर्षों में उजागर हुए घोटाले भी उपरोक्त सम्पत्तियों से ही सम्बन्धित हैं. इनमें प्रारम्भिक जांच के बाद यह पाया गया कि  देश की संपत्ति को जान-बूझ कर बहुत कम दामों पर बेच दिया गया था.

'रोज़गार मॉडल'
आज भारत अनेक उभरते हुए देशों के मुकाबले युवा राष्ट्र माना जाता है. अधिक आबादी भी अभिशाप की बजाय तीव्र विकास का साधन बन सकती है, परंतू इसके लिए विकास का 'रोज़गार मॉडल' अपनाना होगा जिसका आधार छोटी जोत की खेती तथा छोटे उद्योग धंधों का विकास होगा. विश्व प्रसिद्ध लेखक शूमाखर की सन 1973 में प्रकाशित शुमाखर की थीसिस Small is Beautiful 'रोज़गार मॉडल' की विस्तृत रचना में काफी सहायक हो सकती है, जिसका प्रस्तुत लेखक ने संक्षेप में वर्णन 'नव-उदारवाद का विकल्प' नामक लेख में किया है.  
  
  
                                                                         Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
+919958806745, (Delhi) +918962166336 (Bhopal)
Email : kanhaiya@journalist.com
            Facebook : https://www.facebook.com/kanhaiya.jha.5076 

नव-उदारवाद का विकल्प


पिछले दो दशकों के नव-उदारवाद (Neo Liberalism) ने विकासशील देशों को लगभग उपनिवेश ही बना ही दिया है. उपनिवेश पूंजीपतियों के लिए कई महत्वपूर्ण संसाधन जैसे कि सस्ते मजदूर, जमीन, जंगल, आदि उपलब्ध कराते थे. साथ ही पूंजी के लिए निवेश तथा "बहु संख्या उत्पादन" अर्थात mass production के लिए बाज़ार भी उपलब्ध कराते थे. आज पूंजीवाद बड़ा पैसा लगाकर पूरे विश्व के बाज़ार पर अपना वर्चस्व बनाने में लगा है, जिससे की वह मनचाहा लाभ कमा सके.

खाद्यान वस्तुओं के मामले में आज विदेशी बीज कम्पनिओं ने उन्नत बीजों के नाम पर विश्व में  वर्चस्व बनाया हुआ है. Friends of Earth की अप्रैल 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व बैंक युगांडा सरकार को पाम आयल की खेती के लिए पूंजी तथा तकनीकी मदद दे रहा है. यह कार्यक्रम एक घने जंगल वाले द्वीप में चलाया जा रहा है जिसके एक चौथाई क्षेत्र के जंगलों को इसी काम के लिए साफ़ कर दिया गया है. यद्यपि वहां के स्थानीय लोगों को रोज़गार का आश्वासन दिया गया था, परंतू खेती के अत्याधिक मशीनीकरण से आज उन्हें जीवनयापन में भी कठिनाई आ रही है. बाज़ारों के वैश्वीकरण से खाद्य पदार्थों के प्रत्यक्ष व्यापार तथा सट्टाबाजारी से विदेशी कम्पनियां अपनी पूंजी के बल पर पूरे विश्व पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं.

सन 1973 में शुमाखर ने अपनी एक थीसिस Small is Beautiful प्रकाशित की. विकसित देशों ने उसको खारिज कर नव-उदारवाद को अपनाया क्योंकि उन्हें केवल अधिक लाभ कमाना था. परंतू गरीबी एवं बेरोज़गारी से जूझ रहे विकासशील देशों के लिए यह एक आशा की किरण साबित हो सकती है. आज उत्पादन में automation अर्थात स्वचालन का अधिक उपयोग हो रहा है, जो एक capital intensive अर्थात पूँजी सघन तकनीक है. हम भारत में labor intensive अर्थात "रोजगार सघन" तकनीक का उपयोग करें जो पुरानी होने से आसानी से उपलब्ध भी है. हम mass production की जगह production by masses कर उतना ही उत्पादन कर सकते हैं. आज विश्व में स्वचालित मशीनों से बनी उच्च गुणवत्ता वाली वस्तुओं की आवश्यकता केवल विकसित देशों में ही है. हम पूंजी के स्थान पर विकसित देशों से स्पर्धा के लिए अपनी युवा जनसंख्या का उपयोग करें, जो पिछले कुछ वर्षों के प्रयास से आज तकनीकी तथा प्रबंधन विषयों में शिक्षित भी है.

शुमाखर बड़ी पूँजी, बड़ी योजनाओं के स्थान पर छोटी पूँजी तथा छोटी योजनाओं के पक्षधर हैं. अभी हाल में प्रकाशित एक लेख में (TOI 9 Nov 2013) सन 2005 से लागू अस्सी हज़ार करोड़ रुपये की एक योजना (JNURM) की समीक्षा की गयी. इस योजना के अंतर्गत देश के 8000 में से केवल 467 छोटे शहरों की बुनियादी सुविधाओं को ठीक करना था. यदि यह मान भी लिया जाए कि खर्च किये पैसे का पूरा सदुपयोग हुआ, तो भी बजट घाटे को नियंत्रित करते हुए इन बड़ी योजनाओं के लिए हर वर्ष जरूरी पैसे की व्यवस्था करना मुश्किल होता है. यह उसी तरह से है जैसे की एक हाथी को खरीदा तो सही परंतू यदि उसके रोजाना के भोजन की व्यवस्था नहीं की तो बड़ी पूंजी भी गड्ढे में गयी.

पिछले दो दशकों में देश का विकास भी बेतरतीब हुआ है. देश की आधी से ज्यादा जनता जो गाँवों में रहती है उसका जीडीपी में योगदान केवल 15 प्रतिशत है. भयंकर बेरोजगारी तथा शहरों की और migration रोकने के लिए बहुत जरूरी कि गाँवों में ही कृषि आधारित व्यवसाय लगाए जाएँ. इन उत्पादों की खपत के लिए ग्रामीण क्षेत्र की "खरीद शक्ति" भी बढानी होगी. पिछले कई वर्षों से चल रही मनरेगा जैसी बड़ी योजनाओं ने ग्रामीण क्षेत्र की खरीद शक्ति तो जरूर बढ़ाई, परंतू यदि साथ ही उद्योग भी स्थापित किये जाते तो अवश्य ही बेहतर नतीजे आते.

शुमाखर ने एक नए अर्थशास्त्र का विचार दिया जिसे उन्होंने "बुद्ध का अर्थशास्त्र" कहा. पारंपरिक अर्थशास्त्र लाभ की गणना में पर्यावरण के नुक्सान अथवा मूल्य को नज़रअंदाज़ करता है. बढती हुई आबादी तथा सीमित क्षेत्रफल के कारण भारत कटते हुए जंगल, विदूषित पानी एवं जमीन आदि को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता.

एडम स्मिथ की किताब Wealth of Nations में पिन बनाने वाली एक ऐसी फैक्ट्री की कल्पना दी है जिसमें बहु-संख्यक उत्पादन के लिए कारीगर के लिए कुछ खास करने का नहीं होता. शुमाखर के अनुसार कारीगरों से इस तरह के निरर्थक तथा उबाऊ काम कराना अपराधिक होता है. फिर यदि कोई व्यक्ति रोजाना ऐसे उबाऊ काम करता रहे तो निराशा से उसमें भी अपराधिक प्रवृत्तियों का जन्म हो सकता है. बेरोज़गारी से परेशान किसी व्यक्ति को यदि घर बैठे पैसे मिलने लग जाएँ तो भो वो अपने अहम् की संतुष्टि के लिए काम करना चाहेगा, जहां उसकी अपेक्षा काम के एक स्वस्थ वातावरण की होगी.


पूंजीवाद के मुकाबले शुमाखर की Small is Beautiful कल्पना में जीडीपी बेशक कम हो परंतू जीएचपी अर्थात Gross Happiness Product कहीं ज्यादा है. साथ ही उस खुशी के "उत्पादन" तथा भोग दोनों में ही जड़ एवं चेतन सभी की सहभागिता है. इस कल्पना को साकार करने में शिक्षा के नए आयामों का विस्तार से वर्णन किया है. पूंजीवाद के विपरीत शुमाखर की विकास योजना में जनता सहर्ष सहयोग करे, इसमें मीडिया का भी एक महत्वपूर्ण दायित्व बन जाता है.

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
+919958806745, (Delhi) +918962166336 (Bhopal)
Email : kanhaiya@journalist.com
            Facebook : https://www.facebook.com/kanhaiya.jha.5076