विकास की भारतीय रुपरेखा

"सर्वे भवन्तु सुखिनः" श्रृंखला (*) के आखिरी दसवें लेख में "विराट भारत" की कल्पना दी गयी है. एक विराट राष्ट्र ऐसा विशाल है "जिसमें सब चमकते हैं" अर्थात सभी विकसित हैं. "अर्थस्य मूलह राज्यम" के अनुसार शासनतंत्र का मुख्य कार्य देश के अर्थ पुरुषार्थ को पोषित कर सम्पन्नता लाना है. सन 1991 से  लाईसेन्स-परमिट राज ख़त्म कर देश सम्पन्नता लाने की दिशा में अग्रसर हुआ. लगभग उसी समय संविधान में 73 तथा 74 वें संशोधन द्वारा शासन को विस्तृत कर गरीब जनता के स्तर तक पहुंचाने का प्रयास किया गया. ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के समय योजना आयोग ने "सबका विकास" (inclusive growth) के बारे में सोचा. उस दौरान देश की विकास दर भी बहुत अच्छी रही थी. लेकिन विश्व मैं "व्यक्ति विकास सूचकांक" (Human Development Index) के आधार पर, जो की "सबके विकास" को दर्शाता है, देश 127 स्थान से खिसककर 134 स्थान पर आ गया. संक्षेप में सम्पन्नता तो आयी पर सुख नहीं आया.

सम्पूर्ण विकास के लिए एक विराट राष्ट्र का "पूर्ण" होना भी जरूरी है. "ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम . ." मन्त्र के अनुसार एक "पूर्ण" ही पूर्ण को जन्म दे सकता है. वेदों के अनुसार सभी पूर्ण "अग्निसोमात्मक" होते हैं, जैसे एक पूर्ण परिवार में पति और पत्नि. वे स्वयं भी पूर्ण हैं और पूर्ण को ही जन्म देते हैं. भारत जैसे किसी भी राष्ट्र की सम्पूर्ण कल्पना में अग्नि एवं सोम के प्रतीक क्रमशः शासनतंत्र एवं प्रजातंत्र हैं. विकास शासनतंत्र एवं प्रजातंत्र के लिए पुत्रवत है. यदि विकास दोनों ही तंत्रों के सम्मिलित प्रयास से होगा तभी पूर्ण होगा.

सरकारी पैसा गरीब जनता तक प्रशासन के माध्यम से पहुंचता है. शासनतंत्र की इन धमनियां को साफ़ तो करना ही है, लेकिन चाणक्य का यह कथन भी ध्यान रहे कि:

"जिस प्रकार जल में रहने वाली मछली कब पानी पी जाती है पता नहीं चलता, उसी प्रकार राज कर्मचारी राजकोष से धन का अपहरण कब कर लेते हैं कोई नहीं जान सकता."

प्रजातंत्र की कल्पना एक ऐसे तंत्र की है जो हर स्थानीय स्तर पर अपनी विकास की जरूरतों को समझ स्वयं उनका क्रियान्वन कर सके. इन कार्यों के लिए आर्थिक सहयोग भी स्थानीय स्तर पर प्रजा स्वयं इकट्ठा करे. इसको सुलभ करने के लिए शासनतंत्र को ऋग्वेद 10:155 से निर्देश:

कंजूस और स्वार्थी जनों को समाज में दरिद्रता से उत्पन्न गिरावट, कष्ट, दुर्दशा दिखाई नहीं देते. तेजस्वी राजा इस दान विरोधिनी संवेदना विहीन वृत्ति का कठोरता से नाश करें.


यह संवेदनशीलता शिक्षा का दायित्व होना चाहिए, जिसे विद्यार्थी अपना धर्म समझ ग्रहण करें. "मेरे गाँव अथवा शहर में कोई भूखा न सोये" - ऐसी कामना करने वाला प्रत्येक वानप्रस्थी प्रजातंत्र के निर्माण एवं उसकी रक्षा में अपना समय दे. संस्कारों के माध्यम से ब्राह्मण प्रत्येक परिवार के हर सदस्य को संवेदनशीलता की शिक्षा ही देते थे. गाँव अथवा शहर के प्रत्येक घर में सम्मानित सन्यासी यही काम करें. इस प्रकार वर्णाश्रम पूरे राष्ट्र का तंत्र है, जिसके अंतर्गत शासनतंत्र एवं प्रजातंत्र मिलकर "पूर्ण" विकास कर सकते हैं.  


आज देश में प्रजातंत्र के नाम पर केवल एक वोट देने का अधिकार है. अभी हाल में श्री मोदीजी ने यह घोषणा की है कि उनकी सरकार "सबका विकास" तो चाहती ही है; उसमें "सबका साथ" भी चाहती है. आज देश का एक बड़ा युवावर्ग सभी राजनीतिक पार्टियों से जुड़ा हुआ है. बिना किसी भेद-भाव के यदि वे इस युवावर्ग को वास्तविक प्रजातंत्र के निर्माण में लगा सकें तो गरीब एवं युवा वर्ग की सेवा के लिए यह "भागीरथ प्रयत्न" से कम नहीं होगा.


Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National University of Journalism and Communication 
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