सर्वे भवन्तु सुखिनः

१.      राजा एवं प्रजा

दिनांक १६ मई २०१४, स्थान भारत देश. देश में आम चुनाव संपन्न हो गए हैं. कुछ ही दिनों में देश के नए प्रधानमंत्री और सभी सांसद संविधान के अनुसार देश-सेवा की शपथ लेंगे. पिछले एक वर्ष में सभी पार्टियों के छोटे-बड़े सभी नेताओं ने एक दूसरे के प्रति खूब विष-वमन किया है. परंतू अब यह सब बंद होना चाहिए. अगले पांच वर्षों में विधानसभाओं आदि के और भी अनेक चुनाव होंगे. अच्छा तो यही होगा कि प्रधानमंत्री समेत सभी सांसद यह भी शपथ लें कि वे एक दूसरे के प्रति सभ्यता से व्यवहार करेंगे. सभी इस कहावत को जानते हैं कि छुरी की अपेक्षा वाणी के घाव ज्यादा गहरे होते हैं.

सत्ता अथवा विपक्ष - आप सभी को अगले पांच वर्ष मिलकर काम करना है. इस देश की भोली-भाली जनता आपसे बहुत आशाएं लगा कर बैठी है. जब आप किसी दूसरे को गाली देते हैं, तो जनता को भी  आपके अन्दर झांकने का मौक़ा मिलता है, और उसे कुछ बहुत अच्छा महसूस नहीं होता. जनता चाह कर भी आपसे एक राजा एवं प्रजा का रिश्ता नहीं बना पाती.

भारत एक प्राचीन देश है. आज भी विश्व में भारतीय सभ्यता के प्रति श्रद्धा है. देश में भी जनता   रामराज्य जैसे शासन तंत्र को आदर्श के रूप में मानती है. इस धारणा के अनुसार जनता के लिए प्रत्येक चुने हुए सांसद में अगले पांच वर्ष के लिए उन्हीं देवी अथवा देवताओं का अंश है, जिनकी इस देश की असंख्य सम्प्रदायों में बंटी हुई जनता नियमित रूप से पूजा करती है.

प्राचीन भारतीय मान्यताओं के अनुसार राजा में सभी देवी-देवताओं का वास माना गया है. उन्हीं मान्यताओं के अनुसार संसद में सर्वोच्च पद पर आसीन प्रधानमंत्री राजा का ही रूप हैं. प्रत्येक सांसद से यह अपेक्षा है कि, पार्टी-पौलीटिक्स से ऊपर उठकर, जनता को सर्वोपरि मानते हुए नए प्रधानमंत्री को अपना निश्छल एवं व्यक्तिगत सहयोग दें.

विकास के लिए विश्वास की उपरोक्त धरती का तैयार होना बहुत आवश्यक है. आम-चुनावों ने आप सभी सांसदों को अगले पांच वर्षों के लिए विश्वास की नयी धरती तैयार करने का मौक़ा दिया है.

प्रजा के नाम 
अनेक सदियों से इस देश में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन आदि विभिन्न पूजा पद्वतियों को अपनाने  वाले लोग एक साथ रहते रहे हैं. देश के त्रिकाल-दर्शी ऋषियों ने इस देश का नाम हिन्दुस्तान नहीं बल्कि शकुन्तला-पुत्र भरत के नाम पर भारत रखा था, जबकि उस समय भी इस देश में बहुसंख्यक हिन्दू धर्म को मानते थे.

प्राचीन काल से ही इस देश की जनता "एकं सत्य विप्रे बहुधा वदन्ति" को मानकर अपना "प्रजा-धर्म" निभाती रही है. उसकी मान्यता रही है कि ईश्वर एक है, परंतू देश, काल, परिस्थितियों के कारण विभिन्न सम्प्रदाय, जातियाँ आदि अपने महापुरुषों, ईश्वर-पुत्रों, अवतारों आदि का अनुसरण कर सच तक पहुँचने का अपना मार्ग तय करने के लिए स्वतंत्र हैं. 

यही कारण था कि ब्रिटिश काल में १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम में भारत के बाहर से आये मुस्लिम भी सभी के साथ एक होकर लड़े. इसके बाद भी गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलनों में मुसलमानों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. अंग्रेजों की मिली भगत से कुछ मुसलमानों ने अपनी एक अलग व्यवस्था बनाई, परंतू वहाँ के हाल सर्वविदित हैं.

मई २०१४ के चुनावों में आप सभी लोग अपना मत किसी भी राजनीतिक पार्टी को देने के लिए स्वतंत्र थे. बाद में भी आप किसी भी राजनीतिक पार्टी से इच्छा अनुसार संबंध रखने के लिए स्वतंत्र हैं. परंतू विकास के लिए क्षेत्र के चुने हुए सांसद के माध्यम से प्रधानमंत्री एवं उसके शासन तंत्र को ईश्वर मान उसमें विश्वास बनाये रखना आपका कर्तव्य है. यह विश्वास ही आपको "आम जनता से प्रजा" में परिवर्तित कर राजा से सम्बन्ध बनाने के योग्य बनाएगा.
राजा एवं प्रजा के सम्बन्ध में कुछ वेद-वचन:

वह राजा नहीं जो प्रजा को पीड़ा दे, वह विद्वान् नहीं जो औरों को विद्वान् न बनाए, वह प्रजा नहीं जो नीतियुक्त राजा की सेवा न करे.

प्रजा कभी भी एक राजा की अधीनता स्वीकार न करे, क्यंकि एक व्यक्ति से बहुतों के हिताहित का विचार कभी नहीं हो सकता. शिष्ट पुरुषों की जो सभा हो उसके अधीन ही समस्त राज्य कार्यों को रखा जाए.

देवताओं के राजा इंद्र अपने उद्देश्यों की पूर्ती के लिए पारंपरिक मार्गों से हट भी सकते हैं. शिष्ट पुरुषों की सभा का कर्तव्य है कि नीति, विवेक एवं धर्म द्वारा उनके मार्ग को प्रशस्त करें. 

२. धर्म क्या है ?

पिछले चुनावों में आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेताओं पर स्याही फैंकना, मुंह पर थप्पड़ मारने आदि जैसी घटनाएं भी हुई. जिस पर ट्विटर आदि अनेक ब्लोग्स पर अनेक लोगों ने नेताओं की खिल्ली भी उड़ाई. आम चुनाव असभ्य जनता के लिए खिलवाड़ हो सकते हैं लेकिन भारत जैसे प्राचीन सभ्यता वाले देश की प्रजा के लिए खिलवाड़ नहीं थे. प्रजा ने जिन सांसदों को चुना है वे उनके इष्ट देवी-देवताओं से किसी भी द्रष्टि से कम नहीं हैं. प्रजा के मत भिन्न हो सकते हैं परंतू नव-निर्मित संसद में विश्वास रखना उनका धर्म है. 

भारत अन्य सभी राष्ट्रों से भिन्न है. इस देश ने कभी भी अपने हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि मतों  को दूसरों पर थोपने की कोशिश नहीं की. प्रजा में विभिन्न मतों के होते हुए भी राजा निष्पक्ष रहे हैं. ऐसे "राज धर्म" को निभाने की इस देश में परम्परा रही है. आज कोई भी पार्टी किसी भी राज्य अथवा केंद्र में दुभांत कर राज्य नहीं चला सकती. इसलिए सेकुलरिज्म की बहस निरर्थक है. यदि आज राम मंदिर बनाने की बात चलती है तो उसे देश के असंख्य हिन्दुओं की "मत स्वतंत्रता" समझा जाये.

मत और धर्म में बहुत बड़ा अंतर है. मत का सम्बन्ध पूजा-पद्वति आदि से होने से व्यक्तिगत है, जबकि धर्म का अर्थ "धारण" होने से इसका सम्बन्ध राष्ट्र से है. सन १९९१ में डाक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित "चाणक्य" नाम से एक सीरिअल दूरदर्शन पर दिखाया गया था. यद्यपि यह सीरिअल उस समय की घटनाओं का एक काल्पनिक वर्णन है, परंतू राज-धर्म, प्रजा-धर्म आदि विषयों पर भारतीय चिंतन को समझने में सहायक है. इन्टरनेट से इस सीरियल के आठों भागों बिना किसी शुल्क के डाउनलोड किये जा सकते हैं. 

"चाणक्य" (भाग २/८, समय १:१०:३४) में एक ज्ञानसभा का दृश्य है जिसे मगध के राज-दरबार द्वारा आयोजित किया है. इसमें देश के विभिन्न गुरुकुलों से आये छात्रों से आचार्य राजनीति से सम्बंधित प्रश्न पूछते हैं. राजा घनानंद ज्ञानसभा में जाने के प्रति बहुत उत्साहित नहीं थे. उनके अनुसार, "आचार्य एवं छात्र मुझपर अपने खोखले आदर्शों एवं नीतियों को थोपने का प्रयास करेंगे." परंतू अपने अमात्य (Administrator) के कहने पर वे उस सभा में उपस्थित हुए. 

आचार्य: धर्म और अर्थ का स्रोत क्या है ?
  छात्र: धर्म और अर्थ का स्रोत राज्य है.

धर्म का सम्बन्ध किसी जाती, सम्प्रदाय अथवा पूजा-पद्वति विशेष से नहीं होता. गुरुकुल छात्रों को धर्म की शिक्षा दे शेष जीवन यापन के नियमों का ज्ञान कराते थे.  

आचार्य: राज्य का मूल क्या है ?
      छात्र  : राज्य का मूल राजा है.

छात्र ने आगे राज्य की उपमा एक वृक्ष से दी. छात्र ने राजा, मंत्री-परिषद्, सेना आदि शासन के विभिन्न अंगों को प्रजा एवं देश की सम्पन्नता के लिए उत्तरदायी ठहराया. परंतू देश की सम्पन्नता से प्रजा में सभी का सुख सुनिश्चित नहीं होता. 

      आचार्य: सुख का मूल क्या है ?
      छात्र  : सुख का मूल धर्म है.
      आचार्य: धर्म का मूल क्या है ?
      छात्र  ; धर्म का मूल अर्थ है.
      आचार्य: अर्थ का मूल क्या है ?
      छात्र  : अर्थ का मूल राज्य है.

राज्य का मुख्य हेतु देश में स्मृद्धी लाना है. एक स्मृद्ध देश ही अन्य राष्ट्रों से आपसी व्यवहार के मानकों को तय कर सकता है और उनका पालन भी करवा सकता है. एक गरीब देश का कोई धर्म नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो हमेशा अन्य राष्ट्रों की दया पर ही जीवित रहेगा. राज्य में यदि कोई व्यक्ति जाती, सम्प्रदाय, योग्यता आदि किसी भी कारण से अर्थोपार्जन नहीं कर सकता तो वह अधर्म को बढ़ावा देगा और दूसरों के दुःख का कारण भी बनेगा. 

शासन की सहायता के लिए प्रजा में कुल एवं परिवार की परम्परा थी, जिनका धर्म कुल के अपंग एवं असहायों का भरण-पोषण करना था. गृहस्थों का धर्म गुरुकुल एवं उनके शिक्षार्थियों को दान एवं भिक्षा से पालन करना था. शासन की भी इन सामाजिक व्यवस्थाओं पर नज़र रहती थी.
सभा में आगे इन्हीं विषयों पर;

      आचार्य: राजा का  हित किसमें  है ?
      छात्र  : राजा का हित प्रजा के हित मैं है.

इस पर राजा धनानंद ने क्रोधित होकर कहा, "यदि में प्रजा का अहित करूँ तो मेरा भी अहित होगा. तो क्या शास्त्रों के आगे मेरी सामर्थ्य कुछ भी नहीं ?". छात्र के यह कहने पर कि शास्त्रों में राजा प्रजा के लिए केवल एक वेतनभोगी सेवक है, धनानंद क्रुद्ध होगया और छात्र के आचार्य चाणक्य से उसने कहा," क्यों ब्राह्मण, तू शास्त्रों की चर्चा नहीं करेगा, किसी राजपद अथवा धन के लिए धनानंद  के आगे हाथ नहीं पसारेगा ?". इस पर चाणक्य ने कहा:

"मेरा धन ज्ञान है. यदि मेरे ज्ञान में शक्ति रही तो मैं अपना पोषण करने वाले सम्राटों का निर्माण कर लूँगा. मुझे धन एवं पद की कोई लालसा नहीं".

राजा एवं राज्य प्रजा के लिए अर्थोपार्जन सुलभ कराता है. उस धन के अंश से शिक्षा एवं शिक्षकों द्वारा छात्रों में धर्म स्थापित किया जाता है, जो वास्तव में राज्य का एक संचित धन है. यदि शासन में भ्रष्टाचार आदि के कारण प्रजा दुखी होती है, तो यह धर्म रूपी संचित धन ही राज्य की सत्ता को पुनर्स्थापित कर सकता है. शिक्षा एवं शिक्षक की गुणवत्ता एवं सामर्थ्य भी इसी कसौटी पर सुनिश्चित की जा सकती है की वे आवश्यकता उत्पन्न होने पर धनानंद जैसे भ्रष्ट शासक एवं शासन को हटा नए शासन को स्थापित कर पाएं.

ऋग्वेद में इस प्रकार से तैयार किये गए छात्रों को सोम संज्ञा से विभूषित किया है. सोम कोई पीने का पदार्थ नहीं था, परंतू देश के शासक इंद्र हमेशा सोम पीने को आतुर रहते थे. ऋग्वेद से ही इंद्र के बारे में:

मैं  सब से पहले इस शरीर में प्रकट होता हूं. उस के पश्चात विश्व के सारे देवता मेरी ओर खिंचे चले आते हैं.  (ऋग ८/१००)

शास्त्रों के अनुसार शरीर में सबसे पहले मन की उत्पत्ति होती है, जो आत्मा आदि अन्य सभी देवताओं को शरीर में खींच लाता है. इंद्र शरीर में मन की भाँती है, जो मनमानी के लिए जाना जाता है.

राजा इंद्र अपने उद्देश्यों की पूर्ति में लिप्त होकर अ-परम्परागत मार्गों का अनुसरण कर सकते हैं. इसलिए पितरों से यह अपेक्षा है की वे धर्म तथा नीति का ज्ञान करा उसका मार्ग प्रशस्त करें. (ऋग ८/१००)

यह वैसे ही है जैसे शरीर में मन पर बुद्धि के नियंत्रण की बात कही जाती है. राष्ट्र के स्तर पर इंद्र स्वयं शिक्षकों द्वारा तैयार किये गए उस सोम को पीने के लिए आतुर हैं. इस प्रकार शस्त्र एवं शास्त्र के बीच कोई विरोध नहीं है. यदि शिक्षकों द्वारा दी गयी मंत्रणा सैधांतिक के साथ-साथ व्यवहारिक होकर उत्कृष्ट है तो इंद्र उसे प्राप्त करने के लिए आतुर हैं.

यह राजा एवं शासन पर निर्भर करता है की वे केवल एक वेतन धारी सेवक रह पाते हैं अथवा श्रीराम की भांती सदियों तक पूजे जाते हैं. राजा द्वारा प्रजा को ईश्वर मान सेवा करना ही भारतीय राजनीति का लोकतंत्र है. 

३. अर्थ क्या है ?

आज से ५००० वर्ष पूर्व सिन्धु-घाटी सभ्यता के समृद्ध शहरों से मिस्र एवं फारस के शहरों से व्यापार होता था. इन शहरों के व्यापारियों को "पणि" कहा जाता था, जो शायद बाद में वणिक अथवा व्यापारी शब्द में परिवर्तित हुआ. शायद इन्हीं व्यापारियों के कारण भारत को "सोने की चिड़िया" भी कहा गया होगा. परंतू आश्चर्य की बात है कि वेदों एवं पुराणों ने इन पणियों की जगह उन घुमंतुओं की गाथा गाई जिन्हें आर्य कहा जाता है. उन ऋषि-मुनिओं को सत्कार दिया जो देश की सांस्कृतिक एकता के लिए वनों में आदिवासियों के बीच रहते थे और वहाँ आश्रम बना शिक्षा भी देते थे. देश की जनता उस राम को सदियों से पूजती आ रही है जिन्होनें वानप्रस्थ को महत्व देने के लिए राजा होते हुए भी वनवास स्वीकार किया.

अर्थ की गति के बारे में ऋग्वेद १:२४ से:

धनों के प्राप्त करने के संकल्प किसी क्षेत्र की सीमाओं, मर्यादा से नहीं बंधते. आकाश में पक्षियों  की उड़ान, वायु और जल प्रपातों की अबाध हिंसक गति के समान ये निर्बाध गतिमान होते हैं.

अर्थ की "हिंसक गति" पर नियंत्रण के लिए ऋग्वेद १०:१०८ में पणियों तथा इंद्र की चार आँख वाली कुतिया सरमा के बीच एक वार्तालाप है:

पणि: हे सरमा ! तुम यहाँ क्यों आयी हो ? यहाँ आने में तुम्हारा क्या व्यक्तिगत स्वार्थ है ? तुमने बहुत मुसीबतें भोगी होंगी, क्या तुम यहाँ सुविधाओं के लिए आयी हो ?

सरमा: ओ पणि ! मैं राष्ट्र को बनाने वाले इंद्र की दूत हूँ. तुमने क्या छुपाया तथा क्या जमाखोरी की है, मैं वह सब जानना चाहती हूँ. यह सही है कि मैने बहुत कष्ट उठाएं हैं, परंतू अब मैं उस सबकी अभ्यस्त हो चुकी हूँ.

पणि: ओ सरमा तुम्हारा मालिक इंद्र कितना शक्तिशाली एवं संपन्न है ? हम उससे दोस्ती करना चाहते हैं. वह हमारे व्यापार को स्वयं भी कर सकता है और धन कमा सकता है.
सरमा: इंद्र जिसकी मैं दूत हूँ, उस तक कोई पहुँच नहीं सकता, उसे कोई डिगा नहीं सकता. भ्रमित करने जल-प्रवाह उसे बहा के नहीं ले जा सकते. वह तुम्हारा मुकाबला करने में सक्षम है.

पणि: ओ सरमा ! हमारे साथ तुम भी संपन्न होने की कगार पर हो. तुम जो चाहो हमसे ले सकती हो. कौन बिना झगडा किये अपनी दौलत से बेदखल होता है. हम अपनी दौलत की वजह से बहुत शक्तिशाली भी हैं.

सरमा: ओ पणि ! तुम्हारे सुझावों को ईमानदार नौकरशाह पसंद नहीं करते. तुम्हारा व्यवहार कुटिल है. अपने को इंद्र के दंड से बचाओ. यदि तुम आत्म-समर्पण नहीं करोगे तो बहुत मुश्किलों मैं आ जाओगे.

पणि: ओ सरमा ! तुम्हारे मालिक भी हमसे डरते हैं. हम तुम्हें बहुत पसंद करते है. तुम जब तक चाहो यहाँ रह सकती हो और हमारे ऐश्वर्य में से हिस्सा ले सकती हो.
सरमा: ओ पणि ! तुम अपने रास्तों को बदलो. तुम्हारे काले कारनामों से जनता दुखी है. शासन तुम्हारे सभी राज जान चुका है. अब तुम पहले की तरह काम नहीं कर पाओगे.

अर्थ एक पुरुषार्थ तभी तक था जब तक कि वह ईमानदारी तथा परिश्रम से कमाया गया हो. अथर्ववेद 7:50:1 से:

जिस प्रकार आकाश से गिरती बिजली बड़े वृक्षों को नष्ट  करती है, उसी भांति बिना श्रम करे  जुए के खेल जैसे जो अर्थोपार्जन करने के साधन हैं, उन्हे नष्ट करो.  

विकास के भारतीय आदर्श में अर्थ अर्जित करने की कोई सीमा नहीं बांधी है. परंतू जब राज्य का उद्देश्य संपन्नता के साथ-साथ सभी का सुख हो तो अर्जित अर्थ को सही गति देना जरूरी था. ऋग्वेद १०:१५५ से:

स्वार्थ और  दान न देने की वृत्ति को सदैव के लिए त्याग दो. कंजूस और स्वार्थी जनों को समाज में दरिद्रता से उत्पन्न गिरावट, कष्ट, दुर्दशा दिखाई नहीं देते. परंतु समाज के एक अंग की दुर्दशा और भुखमरी आक्रोश बन कर महामारी का रूप धारण कर के  पूरे समाज को नष्ट करने की शक्ति बन जाती है और पूरे समाज  को ले डूबती है.

अदानशीलता समाज में प्रतिभा विद्वत्ता की भ्रूणहत्या करने वाली सिद्ध होती है. तेजस्वी धर्मानुसार अन्न और धन की व्यवस्था करने वाले राजा इस दान विरोधिनी  संवेदना विहीन वृत्ति का कठोरता से नाश करें.

४. तीसरा पुरुषार्थ काम

"सर्वे भवन्तु सुखिनः" लेखों की कड़ी के अंतर्गत धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष - वर्णाश्रम के इन चार पुरुषार्थों में से धर्म एवं अर्थ पर चर्चा की जा चुकी है. इससे पूर्व "राजा एवं प्रजा" लेख द्वारा राज धर्म की चर्चा की थी. इस लेख में 'प्रजा धर्म" के अंतर्गत काम पुरुषार्थ की चर्चा करेंगे जो निम्न तालिका के अनुसार क्षत्रिय का पुरुषार्थ माना गया है:

आश्रम       वर्ण         पुरुषार्थ
                  ब्रहमचर्य      शूद्र          धर्म
                  गृहस्थ       वैश्य         अर्थ
                  वानप्रस्थ      क्षत्रिय        काम
                  संन्यास       ब्राह्मण       मोक्ष

जन्म के समय सभी शूद्र है क्योंकि अभी ज्ञान नहीं है. धर्म को भली भाँती समझ तथा अर्थोपार्जन कर पारिवारिक जिम्मेवारियों से मुक्त होकर प्रत्येक व्यक्ति का यह "प्रजा धर्म" है कि वह अच्छे गाँव, शहर, राष्ट्र अथवा विश्व की कामना करे. स्वामी दयानंद पर लिखी एक पुस्तक से:


क्षत अर्थात दुःख से जो त्राण करे वह क्षत्रिय है. वो केवल राजा ही नहीं उसका अंश होकर सब जगह पूरी जनता में विद्यमान हो सकता है.


यदि राष्ट्र की बात करें तो १२० करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले भारत जैसे बड़े देश में शासन को हर गली-कूचे में सुलभ नहीं कराया जा सकता. परंतू जनता यदि "प्रजा धर्म" समझे तभी पिछले दो दशकों में संपन्न हुए भारत देश में सुख भी आयेगा. 

आज़ादी के ६७ वर्ष पश्चात भी देश में अनेक स्थानों पर पीने का साफ़ पानी उपलब्ध नहीं है. गाँवों और शहरों में सभी जगह अनेक समस्याएं हैं जिनका समाधान करने में वहाँ की प्रजा स्वयं सक्षम है. पिछले लेख में अर्थ पुरुषार्थ पर चर्चा करते हुए दानशीलता के बारे ऋग्वेद १०:१५५ से लिखा था:

स्वार्थ और  दान न देने की वृत्ति को सदैव के लिए त्याग दो. कंजूस और स्वार्थी जनों को समाज में दरिद्रता से उत्पन्न गिरावट, कष्ट, दुर्दशा दिखाई नहीं देते. परंतु समाज के एक अंग की दुर्दशा और भुखमरी आक्रोश बन कर महामारी का रूप धारण कर के  पूरे समाज को नष्ट करने की शक्ति बन जाती है और पूरे समाज  को ले डूबती है.

अदानशीलता समाज में प्रतिभा एवं विद्वता की भ्रूणहत्या करने वाली सिद्ध होती है. तेजस्वी धर्मानुसार अन्न और धन की व्यवस्था करने वाले राजा इस दान विरोधिनी  संवेदना विहीन वृत्ति का कठोरता से नाश करें.

शासन के विकेंद्रीकरण का केवल इतना ही तात्पर्य है कि वह प्रजा को प्रजा से ही सभी के "सुख की कामना" करने के लिए धन प्राप्त करने में केवल सहायता करे, और इसके लिए जिस भी व्यवस्था की आवश्यकता हो उसे बनाए, परंतू सीधे कोई धन न दे.

चाणक्य सीरिअल में राजा धनानंद की दरबार में होने वाली ज्ञान सभा की चर्चा पहले के लेखों में कर चुके हैं. उसी ज्ञान सभा में आचार्य के एक प्रश्न पर कि धन की रक्षा किससे करनी चाहिए छात्र उत्तर देता है कि धन की रक्षा चोरों एवं राजपुरुषों से करनी चाहिए. इसी विषय पर चाणक्य ने लिखा है:

"जिस प्रकार जल में रहने वाली मछली कब पानी पी जाती है पता नहीं चलता, उसी प्रकार राज कर्मचारी राजकोष से धन का अपहरण कब कर लेते हैं कोई नहीं जान सकता."

आज देश में २० लाख से अधिक गैर-सरकारी संस्थान काम कर रहे हैं, जिन्हें सरकार देश के गांवों तथा शहरों में अनेक प्रकार के सेवा कार्यों के लिए धन देती है. बीबीसी के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है. मुख्यतः एक हिन्दू संगठन होते हुए भी संघ की विचारधारा राष्ट्रवादी है. किसी विशेष पूजा पद्धति से उसका आग्रह नहीं है. हाँ ! भारत भूमि को पुण्य मानना आवश्यक है. यह संस्थान अपने सेवा कार्यों के लिए अधिकाँश में दान द्वारा खुद ही धन का प्रबंध करता है.

मई २०१४ में शासन संभालने वाली नयी सरकार करों से प्राप्त धन को गैर-सरकारी संस्थानों को ग्राम-विकास आदि कार्यों के लिए धन देने की नीति पर पुनः विचार करे. साथ ही मनरेगा एवं खाद्य सुरक्षा जैसी राष्ट्र-व्यापी योजनाओं के बारे में भी सोचें. इन पर केंद्र सरकार हर-वर्ष अपने बजट से लगभग १२ प्रतिशत खर्च करती है, और उसके दुगने से अधिक राज्य सरकारें खर्च करती हैं. इन सब खर्चों के कारण देश के विकास योजनाओं के लिए (प्लान खर्च) पर्याप्त नहीं हो पाता. यदि चोट उंगली में लगी है तो दवाई भी वहीँ लगे. पूरे शरीर पर दवाई मलना बुद्धिमानी नहीं है.   

इस देश को साधू-सन्यासियों का देश कहा जाता रहा है. अन्धविश्वास आदि बहानों से शासन ने इन्हें राष्ट्र-निर्माण गति-विधियों से दूर रखा. परंतू गांधीजी ने तो इन्हें भी अपनी सामाजिक गतिविधियों में जोड़ा था. सन १९१९ से १९४८ के बीच गांधी जी के आन्दोलन तो कभी-कभी चले परंतू देश-निर्माण कार्य, जैसे हिन्दु-मुस्लिम एकता, छुआ-छूत आदि से हज़ारों कार्यकर्ता एवं करोड़ों लोग प्रभावित रहते थे. देश भर में दूर-दराज के क्षेत्रों में स्थित हज़ारों आश्रमों से ये गतिविधियाँ संचालित होती थीं, जिनमें साधू-सन्यासी भी योगदान करते थे.

आज़ादी से पूर्व आज की ही तरह उस समय भी लोग कहते थे," काश ! एक बार सत्ता अपने हाथ में आ जाए". गांधीजी का जवाब आज भी उतना ही प्रासंगिक है:

"इससे बड़ा अंधविश्वास और कोई नहीं हो सकता. जैसे बसंत के समय सभी पेड़-पौधे, फल-फूल युवा नजर आते हैं, वैसे ही जब स्वराज आयेगा तब राष्ट्र के हरेक क्षेत्र में एव युवा ताजगी होगी. किसी भी परदेसी को जन-सेवक अपनी क्षमता के अनुसार जन-सेवा में कार्यरत नज़र आयेंगे."

स्वराज की कामना के लिए प्रजा अपना क्षत्रिय धर्म निभाये तथा शासन उसे उचित मदद करे.

५. मोक्ष क्या है

वर्णाश्रम का चौथा स्तम्भ मोक्ष है जो कि ब्राह्मण वर्ण के लिए संन्यास आश्रम का पुरुषार्थ है. जैसा  पहले के लेखों में लिखा जा चुका है कि जन्म के समय ज्ञान न होने से सभी शूद्र हैं. पूर्व के तीन आश्रमों में, क्रमशः धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थों में प्रवीण होकर ही कोई "ब्रह्म" अर्थात पूरे विश्व को जान पाता है. इसीलिये महात्मा मनु ने भी ब्राह्मणों का कर्म शास्त्रों का पठन-पाठन निश्चित किया था. "सर्वे भवन्तु सुखिनः" लेखों की कड़ी के इस भाग में मोक्ष पुरुषार्थ के द्वारा शिक्षा तंत्र में योगदान पर चर्चा होगी.

इसी कड़ी के धर्म संबंधी लेख में सोम का सम्बन्ध शिक्षा तंत्र से दर्शाया गया था.

"राजा एवं राज्य प्रजा के लिए अर्थोपार्जन सुलभ कराता है. उस धन के अंश से शिक्षा एवं शिक्षकों द्वारा छात्रों में धर्म स्थापित किया जाता है, जो वास्तव में राज्य का एक संचित धन सोम है".

शिक्षा तंत्र द्वारा तैयार किये गए उत्कृष्ट छात्र ही सोम हैं. ऋग्वेद में एक और प्रकार के सोम का वर्णन है जिसे पावमानी सोम कहा गया है. श्री सुबोध कुमार ने अपने ब्लॉग (http://subodh-vedainspirations.blogspot.in/2014/04/soma-what-it-is.html) में इसका विस्तार से वर्णन किया है. संक्षेप में:

"न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के आविष्कार के पीछे उनका रोजमर्रा होने वाली घटनाओं को पैनी नजर से लगातार देखते रहना था".

पावमानी सोम का सम्बन्ध शोध प्रक्रिया से है, जिसके लिए धैर्य एवं उत्साह दोनों चाहियें. सन्यासी ब्राह्मण में धैर्य है. इनके पुरुषार्थ मोक्ष के बारे में गांधीजी ने लिखा था:

"जिसे मोक्ष चाहिए उसमें उतना धैर्य हो जितना एक समुद्र किनारे बैठे व्यक्ति में, जो एक सींख से एक-एक बूँद जल निकाल पूरे समुद्र को खाली करने में लगा है."

यह सन्यासी, ब्राह्मण, शोध-कर्ता यदि सोम का पान कर ले अर्थात उसे उच्च कोटि के युवा छात्र मिल जाएँ तो:

"वह पूरे उत्साह तथा निस्वार्थ-भाव से जन-कल्याण में लग जाता है. उसकी हालत ऐसी ही होती है जैसे की एक गाय की जो दूध देने के लिए अपने बछडे को देख रंभाती रहती है. अपनी विस्तृत हुई दूर-दृष्टी से वह ब्रह्मांडों से परे भी देख सकता है. साथ ही पैनी हुई सूक्ष्म-दृष्टि से कोई कोई भी विवरण उसकी निगाह से बच नहीं सकता."

आज के विज्ञान एवं टेक्नोलोजी के युग में शोध (research) का बहुत महत्व है. अधिकाँश शोधों पर पेटेंट्स आदि से अपना वर्चस्व बना अमरीका विश्व का सबसे संपन्न राष्ट्र बना हुआ है. आज़ादी के बाद भारत ने भी शोध के लिए अनेक राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं बनाईं, परंतू परिणाम बहुत संतोषजनक नहीं आये हैं. अभी हाल में भारत-रत्न से समानित श्री सीएनआर राव ने भारतीय शोध के बारे में कहा था:

"हमारे राजनीतिज्ञ हमें शोध के लिए इतना कम धन क्यों देते हैं ? हमें जितना मिला है, हमने उससे कहीं अधिक किया है."

चीन के शोध के बारे में उन्होनें कहा:

"हमारे वैज्ञानिक मेहनत नहीं करते. अधिक धन के लालच में विदेश चले जाना पसंद करते हैं. चीनी वैज्ञानिक मेहनती हैं, फिर उनमें राष्ट्रीय भावना भी अधिक है."

लगभग १४०० शोधपत्र एवं ४५ पुस्तकें लिखने के पश्चात भी अस्सी से अधिक उम्र के श्री राव के मन   में वेदना है, क्योंकि शायद उन सन्यासी, ब्राह्मण शोधकर्ता को उत्कृष्ट सोम पीने को नहीं मिला.

जैसे शरीर का सत्व वीर्य है उसी प्रकार देश का सत्व सोम है. राष्ट्र के संन्यास में आये ब्राह्मणों को या तो यंत्रवत रिटायर कर दिया जाता है, या अनेक उपाधियों, पुरस्कारों से सम्मानित कर उनको मान दिया जाता है, या सेवा में उनका कार्यकाल बढ़ा दिया जाता है. परंतू संस्कारित छात्रों के रूप में सोम देकर उन्हें युवा नहीं बनाया जाता. 


६.  विकास की भारतीय दिशा

आम-चुनाव २०१४ के दौरान विकास के गुजरात मॉडल, बिहार मॉडल, आम-आदमी पार्टी का स्वराज मॉडल, आदि चर्चा में रहे. परंतू चुनाव की गहमा-गहमी में शायद उनमें से किसी पर भी गंभीरता से विचार नहीं किया गया. अब कुछ ही राज्यों में वोट पड़ने रह गए हैं तथा पिछले एक वर्ष की गतिविधियों से सत्ता में आने वाली पार्टी भी लगभग तय है. इसलिए इस मई के महीने में, नयी सरकार बनने से पहले देश को विकास के बारे में अवश्य सोचना चाहिए.

इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए "सर्वे भवन्तु सुखिनः" कड़ी के पूर्व के पांच लेखों में वेद-सम्मत विकास की भारतीय दिशा के आधारभूत सिद्धांतों का वर्णन किया गया था. विकास के लिए शासन एवं जनता के बीच विश्वास बहुत जरूरी है. चुनाव द्वारा सरकार बना लेने से जनता का शासन के प्रति विश्वास सिद्ध नहीं होता. और ना ही शासन हर निर्णय के लिए जनता के समक्ष उपस्थित हो सकता है.   पक्ष एवं विपक्ष दोनों को ही जनता के विश्वास के लिए, अगले पांच वर्ष के अपने मुद्दों की स्पष्ट चर्चा के लिए, मीडिया अथवा रैलियों का उपयोग करना चाहिए. इन कार्यों से जनता भी जल्दी ही निश्चिंत हो अपने कामों में लगेगी.

संसद में प्रधानमन्त्री अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों, अन्य सांसदों आदि की तुलना में First among Equal हो सकते हैं, परंतू जनता की निगाह में उनका एक विशेष दर्ज़ा है. यह विश्वास प्रधानमन्त्री की आड़े वक्त में काम आने वाली व्यक्तिगत पूँजी है, परंतू उनकी ज़रा सी असावधानी से यह काफूर भी हो सकती है. सभी अपने होते हुए, अगले पांच वर्ष संसद उनके लिए सतत कुरुक्षेत्र है. अपने या पराये - गलती कोई भी करे, जनता उन्हीं पर प्रश्न चिन्ह लगाएगी. विकास में बाधा न आये, इसके लिए उन्हें मंत्रिमंडल एवं विपक्ष के साथ बैठ सभी पर समानता से लागू होने वाले कुछ मानक तय करने होंगे. पिछली सरकारों के कार्यकलापों को लेकर एक दूसरे पर आक्षेप करना भूतों को दावत देना होगा. जनता के बीच भ्रम फैलाने के सन्दर्भ में मीडिया के प्रमुख लोगों से बात करना भी जरूरी होगा.

हर चुनाव की तरह इस बार भी प्रत्येक क्षेत्र में लोगों ने अपने जातीय, व्यक्तिगत आदि अनेक समीकरणों के आधार पर वोट दिए होंगे. परंतू जनता के लिए चुनाव के बाद उन सभी समीकरणों को भुलाने में ही भलाई होगी. तभी शासन स्वतंत्र होकर विकासोन्मुख हो पायेगा. 

पिछली अनेक सदियों से भारत भूमि में रहते हुए सभी मतों के लोग यहाँ के प्राचीन शास्त्रों को श्रद्धा से देखते रहे हैं. इसलिए विकास की भारतीय दिशा अथवा मॉडल में सभी की श्रद्धा होनी चाहिए. इस कड़ी के अगले भागों में प्रचलित विकास दशा के बदलावों पर चर्चा की जायेगी.


७. विकास के भारतीय मॉडल में अर्थ

"सर्वे भवन्तु सुखिनः" कड़ी के दूसरे भाग "धर्म क्या है" में शासन का मुख्य उद्देश्य अर्थ बताया है. विकास के गुजरात मॉडल पर छपी पुस्तक के पृष्ठ २ पर चाणक्य का कथन "अर्थस्य मूलह राज्यम" उद्धृत किया है. परंतू इस उक्ति का सही भावार्थ तो चाणक्य सीरिअल (भाग २/८) की ज्ञान सभा से मिलता है, जहाँ पर छात्र एक प्रश्न के उत्तर में कहता है:

"राजा राज्य रुपी वृक्ष का मूल है, मंत्री-परिषद् उसका धड़ है, सेनापति उसकी शाखाएं हैं, सैनिक उसके पल्लव हैं, प्रजा उसके पुष्प हैं, देश की सम्पन्नता उसके फल और समस्त देश उसका बीज है."  

राजा अथवा वृक्ष के मूल का काम फल अर्थात देश में सम्पन्नता लाना है. इस सन्दर्भ में देश में प्रचलित विकास धारा का, उद्गम अर्थात आज़ादी से अभी तक का विश्लेषण करना जरूरी है. विकास की इस धारा को पूंजीवादी अमरीका तथा साम्यवादी रूस ने अपने-अपने तरीकों से आकर्षित करने की कोशिश की. परंतू विश्व के कुछ राष्ट्रों के साथ नैम (Non Aligned Movement) बनाकर हमने "दोनों ही गायों के दूध को चखा".

विकास के ये दोनों मॉडल साथ-साथ चलाने से कुछ अजीब सी परिस्थितियाँ पैदा हुईं. आज़ादी के कुछ ही वर्षों बाद आज के छत्तीसगढ़ के भिलाई शहर में रूसी सहायता से सार्वजनिक क्षेत्र में एक स्टील प्लांट (बीएसपी) लगाया गया. इसके साथ ही आस-पास के क्षेत्रों में स्थानीय उद्योगपतियों ने अपनी अनेक यूनिट्स लगाईं. निजी क्षेत्र के मजदूरों को स्थायी जॉब, रिहाईश, बेहतर भुगतान आदि अनेक सुविधायें उपलब्ध नहीं थीं जो बीएसपी के मजदूरों को मिलती थीं. निजी क्षेत्र लाभ के आधार पर आगे बढ़ता है, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र बजट सहायता से विकसित होता है. जाहिर है की निजी क्षेत्र अपने मजदूरों को चाह कर भी वह सुविधायें नहीं दे सकता था जो सार्वजनिक क्षेत्र के मजदूरों 
को उपलब्ध थीं.

शासन के लिए असमंजस की स्थिति थी. वोट्स के लिए मजदूर चाहियें थे, जबकि विकास के लिए उद्योगपति. लिहाजा सत्तर के दशक से ही इस क्षेत्र में राजनीतिक पार्टियों से जुड़ी ट्रेड-यूनियन गतिविधियाँ शुरू हो गयीं. छत्तीसगढ़ को लेकर अलग राज्य की मांग होने लगी. अनेक मजदूर नेताओं ने अपनी जान पर खेल कर इन आन्दोलनों में भाग लिया. स्थिति यहाँ तक बिगड़ी कि सन १९९१ में एक प्रमुख मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी की रात में सोते समय ह्त्या कर दी गयी, जिससे मजदूर आन्दोलन और अधिक उग्र हो गए. यही सब कारण थे जिनसे १९८९ तक की आर्थिक विकास दर कम रही और १९९१ में सरकार को वैश्विक संस्थाओं के पास अपनी सोना गिरवीं रखना पड़ा.

देश में सुख तो तभी आयेगा जब पहले सम्पन्नता आएगी अर्थात विकास के लिए उद्योग धंधों को बढ़ावा देना शासन का पहला कर्तव्य होना चाहिए. यदि उद्योगपति स्वयं मजदूरों को अधिक सुविधायें देने में असमर्थ हैं, तो शासन अपनी तरफ से भी कुछ सुविधायें मजदूरों को दे सकता है.
विकास की भारतीय दिशा सबके सुख के लिए केवल शासन-तंत्र पर निर्भर नहीं है. शासन अर्थ पुरुषार्थ को पोषित कर देश में सम्पन्नता लाये. अन्य तीन पुरुषार्थों - धर्म, काम एवं मोक्ष द्वारा उस सम्पन्नता को सुख में बदलने का दायित्व "प्रजा-तंत्र" का है.

"सर्वे भवन्तु सुखिनः" कड़ी के आठवें भाग में १९९१ से चालू नव-उदारवाद के सन्दर्भ में "प्रजा तंत्र" के दायित्व की चर्चा की जायेगी.  

८.  विकास के भारतीय मॉडल में यज्ञ

देश की सम्पन्नता को सुख में बदलने का दायित्व प्रजा का है, जिसका मुख्य साधन यज्ञ है. प्राकृतिक रूप से सम्पन्नता का लक्षण केन्द्रित होने का है. यज्ञ द्वारा उस केन्द्रित हुई सम्पन्नता को विकेंद्रीकृत कर सुख में बदला जा सकता है. यज्ञ एक स्थानीय क्रिया है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति से भाग लेने की अपेक्षा होती है. यज्ञ का मतलब उपलब्ध धन को गरीबों में बांटना नहीं है. यज्ञ में देवताओं का आवाहन किया जाता है, जिनका कर्तव्य प्राप्त दान को शतगुणित कर वितरित करना होता है. यज्ञ के भौतिक रूप में ही उसका अर्थ छिपा है.

सन १९८९ में रूस में साम्यवादी व्यवस्था का अंत होने से नव-उदारवाद के रूप में पूंजीवाद सन ९१ से पूरे विश्व पर हावी होगया. भारत ने भी तुरंत लाईसेन्स-परमिट राज ख़त्म कर निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना शुरू किया. पिछले दो दशकों के प्रयासों से सम्पन्नता तो आयी, परंतू कुछ गिने-चुने लोगों तक सीमित होकर रह गयी है. शासन ने विषमता को दूर करने के लिए सन १९९३ में ७३ तथा ७४ वें संविधान संशोधन से शासन को पंचायतों एवं नगरपालिकाओं द्वारा विस्तृत किया. इसके अलावा शासन ने मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन आदि सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए भरपूर धन उपलब्ध कराया. वित्त-वर्ष १२-१३ में केंद्र तथा राज्यों द्वारा इन योजनाओं के लिए ५.३ लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था. परंतू इस सबसे कोई बहुत भला होने की आशा नहीं है, क्योंकि शासन को यदि गली-कूचे तक फैलाया जाएगा तो करों से प्राप्त राशि का रिसाव भी बढेगा.

लेखों की इस कड़ी के चौथे लेख में वानप्रस्थी क्षत्रियों के पुरुषार्थ "काम" पर चर्चा करते हुए बताया गया था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है. यह संस्थान अपने सेवा कार्यों के लिए धन का प्रबंध खुद ही करता है. इसके अलावा देश में २० लाख से अधिक गैर-सरकारी संस्थान हैं. ये भी अपने सेवा कार्यों के लिए आरएसएस की भाँती धन एकत्रित कर सकते हैं. यह देश प्राचीन काल से "दान" की महिमा को जानता है.

यदि कोई स्वयंसेवी व्यक्ति अथवा संगठन समाज में अपना विश्वास बनाए रख सकता है तो सामाजिक कार्य के लिए संसाधनों की कभी कमी नहीं होगी. जैसे यज्ञ वेदी में लगाई जाने वाली लकड़ियाँ तथा घृत उसके स्वरुप को बनाये रखते हैं, उसी प्रकार यह आवश्यक है कि सामाजिक कार्य के लिए स्थानीय स्तर पर सभी पुरुष एवं स्त्री उस कार्य का सतत अनुमोदन करते रहें.

भौतिक यज्ञ में विशेष जड़ी-बूटियों की आहुति दी जाती है. वैदिक ज्योतिष में १२ राशियों में समाये २७ नक्षत्रों में से प्रत्येक का सम्बन्ध एक विशेष जड़ी-बूटी से है, तथा प्रत्येक नक्षत्र चारों में से किसी एक पुरुषार्थ से जुड़ा है. स्वयंसेवक अर्थात यज्ञ के यजमान पर सामजिक कार्य के लिए जरूरी तकनीकी ज्ञान एवं कर्म की व्यवस्था करने का दायित्व होता है. आज के युग में ये विशेष व्यक्ति ही यज्ञ के देवता बन सकते हैं. वेदों के अनुसार देवता यज्ञों में आने के लिए आतुर रहते हैं. ये विशेष तकनीकी ज्ञान वाले व्यक्ति समाज के प्रति अपना दायित्व मान स्वयं सहायता के लिए आतुर हों, तभी तो वो समाज में देवता कहलायेंगे.

सुख लाने का स्थायी समाधान वर्णाश्रम में है, जिसपर इस श्रंखला के नवें भाग में चर्चा की जायेगी.  

९.  सुख के स्थायित्व के लिए वर्णाश्रम

जब देश संपन्न है, तथा शासन "दान विरोधिनी संवेदना विहीन वृत्ति" का कठोरता से नाश करने में तत्पर है तो यज्ञ से प्रजा में सुख वितरित किया जा सकता है. परंतू यदि प्राकृतिक कारणों से, अथवा विश्व-मंदी के लगातार चलते रहने से, अथवा शासन के अकर्मण्य होने से देश का कुल उत्पाद गिरता जा रहा है, तो यज्ञ कारगर नहीं हो सकते. ऐसी स्थिति में अर्थ-जगत की प्राथमिकता स्वयं को सुरक्षित करने की होगी, और वे हर प्रकार से धन बचाने का प्रयास करेंगे. यज्ञ कार्यों के लिए स्थानीय स्तर पर विश्वास की धरती निश्चित करने में बाधाएं उत्पन्न करेंगे. वास्तव में सुख वितरण का स्थायी समाधान वर्णाश्रम में है.

वर्णाश्रम दो शब्दों वर्ण एवं आश्रम से मिल कर बना है. आश्रम व्यक्ति की विभिन्न अवस्थाओं का श्रम अथवा पुरुषार्थ है. यह ज्ञान ईश्वरीय अथवा आकाशीय है, क्योंकि यह भारत की प्राचीनतम विद्या ज्योतिष में निहित है. किसी भी जन्मकुंडली में चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष में से प्रत्येक के तीन घर निश्चित हैं. लग्न (१) से जीवन का आरम्भ होता है. फिर क्रम से अर्थ (१०), काम (७) तथा अंत में मोक्ष (४) पुरुषार्थ आते है.  


चुंकि वर्णाश्रम एक शब्द है, इसलिए वर्णों का सम्बन्ध आश्रमों से होना चाहिए, न की जन्म से. वर्णों को जन्म से निश्चित करने का विधान महात्मा मनु ने दिया था. उनका उद्देश्य वेदों को कंठस्थ कर सुरक्षित रखने का रहा होगा, जिसका प्रमाण एक कहानी से भी मिलता है. प्रलय के पश्चात महात्मा मनु वेदों को लेकर एक नाव द्वारा सुरक्षित स्थान की तलाश पर निकल पड़े थे. आज के युग में वर्णों को जन्म से जोडने का कोई औचित्य नहीं है.  इस प्रकार वर्णाश्रम की निम्न तालिका बनती है, जो इस श्रंखला में पहले भी दी जा चुकी है: 

आश्रम       वर्ण         पुरुषार्थ
                  ब्रहमचर्य      शूद्र          धर्म
                  गृहस्थ       वैश्य         अर्थ
                  वानप्रस्थ      क्षत्रिय        काम
                  संन्यास       ब्राह्मण       मोक्ष

वर्णाश्रम प्रजा का तंत्र है, इसलिए यही भारतीय प्रजातंत्र है. प्रत्येक व्यक्ति एक निश्चित आयु होने पर स्वयं ही अपने पुरुषार्थ के अनुरूप अपने को ढालता है. इसलिए यह एक स्वचालित व्यवस्था है, और शासनतंत्र से भिन्न इसकी अपनी एक अलग सत्ता है. पूजा-पाठ आदि मत के चिन्हों से इसका कोई सरकार नहीं, इसलिए प्रत्येक भारतीय इसे अपनाकर देश के प्रजातंत्र में योगदान दे सकता है.

मनुष्य के शरीर पर चर्बी तो सुख-दुःख के हिसाब से कम-बढ़ती होती रहती है, परंतू कंकाल तो वोही रहता है. वर्णाश्रम राष्ट् का कंकाल है. राष्ट्र के विपतकाल के लिए श्रीमद्भागवत में जो लिखा है वह सन्यासियों के लिए ही नहीं बल्कि सभी वर्णों के लिए है:

"व्यक्ति भोग-विलासों में उतना ही डूबे जितना उपयोगी है. यदि फर्श पर सोया जा सकता है तो महंगे पलंगों की क्या आवश्यकता है. यदि चुल्लू से पानी पीया जा सकता है तो बहुत बरतन क्यों खरीदे जाएँ. यदि बहुत ही मुश्किल में हो और कहीं से कोई मदद नहीं आ रही तो क्या भगवान् भी साथ छोड़ देंगे !"  (श्रीमदभागवत २:२:३ से ५ तक)

देश में सरकार यदि उधार लेती है तो योजनाओं के लिए ले, न कि वेतन आदि नान-प्लान खर्चों के लिए. अच्छे समय में यदि सरकार से भरपूर वेतन पाया है तो मंदी के समय प्रजा शासन का सहयोग कर कम वेतन लेने के लिए सहर्ष राजी होगी.

वैसे तो सरकार को केवल श्रम द्वारा अर्जित अर्थ की ही आज्ञा देनी चाहिए. अथर्ववेद 7:50:1 से:
जिस प्रकार आकाश से गिरती बिजली बड़े वृक्षों को नष्ट  करती है, उसी भांति बिना श्रम करे  जुए के खेल जैसे जो अर्थोपार्जन करने के साधन हैं, उन्हे नष्ट करो.  

परंतू चालू खाते के घाटे की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी निवेश के लिए आतुर होना शायद सही नहीं है. प्रजातंत्र के सुद्रढ़ होने पर प्रजा अपने भोगों को नियंत्रित कर स्वयं ही सरकार की सहायता कर सकती है.

मई २०१४ का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया है. आज़ादी से अभी तक अपनाई गयी विकास की धारा देश की सभ्यता के अनुरूप नहीं थी. "सर्वे भवन्तु सुखिनः" श्रंखला में भारत की प्राचीन सभ्यता पर आधारित "भारतीय विकास धारा" का वर्णन किया है. श्रंखला के आखिरी तथा १० वें लेख में विषय का उपसंहार किया जाएगा.

१०.   विराट भारत

संस्कृत के शब्द विराट का अर्थ है "एक ऐसा विशाल जिसमें सब चमकते हैं". इसी शब्द से जुड़े अन्य शब्द सम्राट, एकराट (मनुष्य), राष्ट्र आदि हैं. अर्थात विराट भारत की कल्पना एक ऐसे राष्ट्र की है जिसका तंत्र सभी को सुख देने में समर्थ है. "सर्वे भवन्तु सुखिनः" श्रंखला के पिछले ९ लेखों में दो मुख्य तंत्रों - शासन तंत्र एवं प्रजा तंत्र के बारे में विस्तार से चर्चा की गयी है.

वेदों में हर समय परिवर्तित होने वाले विश्व को "अग्निसोमात्मक जगत" कहा है, अर्थात एक "पूर्ण" कल्पना के लिए इसमें दो तत्वों अग्नि एवं सोम का होना जरूरी है. नीचे लिखे श्लोक से पूर्ण के बारे में:

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम पूर्णात पूर्णमुदच्यते ! पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिश्य्ते !! ( ईशोपनिषद )

पूर्ण से पैदा हुआ है इसलिए जगत पूर्ण है. पूर्ण से यदि पूर्ण लें तो जो शेष बचेगा वह भी पूर्ण होगा. पूर्ण घटता है न बढ़ता, एक रस रहता है. अग्नि-सोम के प्रतीक पति-पत्नि के उदाहरण से पूर्ण को समझा सकता है. एक पूर्ण राष्ट्र की कल्पना में अग्नि एवं सोम के प्रतीक क्रमशः शासनतंत्र एवं प्रजातंत्र हैं.

वर्णाश्रम में ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ आग्नेय हैं, जबकि वानप्रस्थ एवं संन्यास अनुभव से परिपक्व होने के कारण सोम के प्रतीक हैं. इस प्रकार वर्णाश्रम अग्निसोमात्मक होने से पूर्ण है. विकास शासन एवं प्रजा के लिए पुत्रवत है. यदि विकास दोनों ही तंत्रों के सम्मिलित प्रयास से होगा तभी पूर्ण होगा. पूर्ण विकास की कल्पना को साकार करने के लिए इस श्रंखला में जो सिद्धांत प्रतिपादित किये  हैं वे इस प्रकार हैं:
1.   
    विकास का आधार शासन एवं प्रजा के बीच का विश्वास है. चुनाव द्वारा सरकार बना लेने से जनता का शासन के प्रति विश्वास सिद्ध नहीं होता. और ना ही शासन हर निर्णय के लिए जनता के समक्ष उपस्थित हो सकता है. चुनाव के तुरंत बाद पक्ष एवं विपक्ष दोनों को ही जनता के विश्वास के लिए, अगले पांच वर्ष के अपने मुद्दों की स्पष्ट चर्चा करनी चाहिए.

2.       प्रत्येक चुनाव में लोग अपने जातीय, व्यक्तिगत आदि अनेक समीकरणों के आधार पर वोट देते हैं. परंतू चुनाव के बाद उन सभी समीकरणों को भूल प्रजा को अनेक भ्रमों से बचते हुए शासन में विश्वास बनाए रखना होगा. साथ ही वर्णाश्रम को समझ एवं गृहण कर चारों पुरुषार्थों को विकसित कर प्रजातंत्र को सुदृढ़ करना होगा.

3.    शासन राष्ट्र की सम्पन्न्ता के लिए अर्थोपार्जन के केवल साधन सुलभ कराये, न कि स्वयं भूमि, उद्योगों आदि का मालिक बन वाणिकी में संलग्न हो.  साथ ही पैनी नजर के ईमानदार एवं बफादार अफसरों द्वारा उनकी प्रजा के प्रति "हिंसक गति" पर नियंत्रण भी रखे.

4.    भारत की एक विशेष सभ्यता रही है. "एकं सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति" सिद्धांत को मानते हुए   हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि अनेक मतों के होते शासन निष्पक्ष रहे हैं. प्रजा में भी सभी अपने मतों को मानने के लिए स्वतंत्र रहे हैं. परंतू साम्प्रदायिक दंगे ना हों, इसके लिए प्रजातंत्र को स्थायी समाधान निकालना होगा.

5.       शिक्षा एवं शिक्षक में सामर्थ्य हो कि वे शासन की परख कर उसे सुधार के सुझाव दे सकें तथा शासन के पूरी तरह भ्रष्ट हो जाने पर नए शासन का निर्माण कर सकें. शासन शिक्षा के लिए उचित आधारभूत ढांचा सुलभ कराये, तथा प्रजातंत्र शोध के महत्व को ध्यान में रखते हुए अनुभवी सन्यासियों द्वारा शिक्षा तंत्र से "सोम" की रचना कराये.

6.    प्रजा का वानप्रस्थी एवं सन्यासी वर्ग यज्ञों द्वारा सुख का विस्तार करे. आज समाज में अज्ञानता के कारण महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. शासन की उचित दंड-व्यवस्था से इस जघन्य अपराध की रोक-थाम तो अवश्य हो सकती है, परंतू स्थायी समाधान के लिए सन्यासी समाज को शिक्षित करें.

7.    देश के २० लाख से अधिक गैर-सरकारी संस्थान यज्ञ विधि से सामाजिक कार्यों को कर प्रजातंत्र का हिस्सा बने, न कि उन कार्यों के लिए शासन से धन की अपेक्षा करें. 

मई २०१४ के चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़े गए हैं. शासन "पूर्ण विकास" की कल्पना को प्रजा के सहयोग के बिना कार्यान्वित नहीं कर सकता. भारत देश में प्रजा द्वारा सेवा कार्यों को करने की परम्परा रही है, परंतू आज के तकनीकी प्रधान युग में प्रजा को भी वर्णाश्रम के अलावा किसी तंत्र का निर्माण अवश्य करना होगा. इसके अलावा, शासन स्वयं में पूर्ण कैसे बने, ये दोनों विषय विचारणीय हैं.  

इस श्रंखला का समापन करते हुए लेखक एक नयी श्रंखला "नयी विकास नीति" नाम से प्रारम्भ कर रहे हैं. नई श्रंखला में विकास के विभिन्न आयाम जैसे ऊर्जा, उद्योग, शिक्षा, ग्रामीण एवं शहरी विकास, आदि के लिए उपयुक्त नीति की चर्चा की जायेगी. यह चर्चा पूर्व-प्रसारित "सर्वे भवन्तु सुखिनः" श्रंखला में प्रतिपादित सिद्धांतों के आधार पर होगी.     

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