महंगाई के कारण यह भी हैं!

भारत में पिछली शताब्दी के प्रारम्भ से ही अनाज के व्यापार में आढती शामिल हो गए थे. फसल आने से पहले ही ये किसानो से तथा खाद्यान प्रोसेसर  जैसे  कि बिस्कुट आदि के उत्पादक, आदि से सौदा कर लेते थे. इससे किसानों को भी उचित दाम मिल जाता था तथा खाद्यान प्रोसेसर भी निश्चित मूल्य पर अपना सामान बेच पाते थे. परंतू सन 1990 से अनाज मार्केट के वेश्वीकरण होने से अनाज के स्थानीय एवं वैश्विक दामों में अंतर कम होने लगा तथा सटोरिये भी इस व्यापार में अपना पैसा लगाने लगे. भारत सरकार ने सन 1993 में काबरा कमेटी बनायी जिसकी रिपोर्ट के आधार पर 17 मुख्य खाद्य पदार्थों को सट्टा गतिविधियों के लिए खोल दिया गया, परंतु गेहूं, दालें, चाय, चीनी आदि घरेलू उपयोग की वस्तुओं को प्रतिबंधित ही रखा.

सन 1996 में विश्व बैंक तथा अंकटाड (UNCTAD) की एक संयुक्त रिपोर्ट ने सटोरिओं के इस व्यापार को सरकार के नियंत्रण से बाहर रखने की सलाह दी. सन 2003 में खाद्य पदार्थों के सट्टाबाज़ार को जबरदस्त बढ़त मिली जब भारत सरकार ने घरेलू उपयोग की वस्तुओं गेंहू आदि के लिए भी इस व्यापार को छूट दे दी. इस सदी के शुरू में अमरीकी सरकार ने वित्तीय सेवाओं को अनाज व्यापार में पैसा लगाने के लिए मुक्त कर दिया था. डॉट.कॉम बाज़ार के फेल होने से मुख्यतः पश्चिमी देशों के बड़े बैंक, विश्व विद्यालयों के पेंशन फण्ड आदि अपने पैसे को अनाज के व्यापार के सट्टे में लगाने लगे. अमरीकी कांग्रेस के सामने दिए गये एक बयान के अनुसार सन २००३ से २००८ के बीच १९०० प्रतिशत की वृद्धि होकर अनाज के सट्टे में लगने वाले वाला पैसा २०० बिलियन डालर हो गया था.

इस व्यापार के ७० प्रतिशत भाग को अमरीका के  केवल चार संस्थान नियंत्रित करते हैं. निवेश को लम्बे समय तक रोके रखने की क्षमता की वजह से यह अनाज की जमाखोरी ही है, जो हमेशा से घरेलु बाज़ार में दाम बढ़ने का मुख्य कारण होती रही है. अनेक अध्ययनों से भी यह पुष्टि हुई है कि विश्व स्तर की इस सट्टाबाजरी से अनाज के दामों में तेज़ी से वृद्धि हुई है (EPW July 9, 2011). देसी बाज़ार में अनाज की किल्लत पैदा कर दाम बढाने में हमारे अपने निर्यातकर्ता भी सहयोग करते हैं, जो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेज़ी होने का फायदा उठा कर निर्यात करते रहे हैं.  

यही हाल विश्व के पेट्रोलियम मार्केट का भी हुआ है. सन 2000 में अमरीका सरकार ने ऊर्जा तथा धातु के सट्टा बाज़ार में पैसा लगाने के लिए भी अपने वित्तीय संस्थानों को मुक्त कर दिया था. पेट्रोलियम मार्किट की सट्टाबाजारी से दामों में इतने उतार-चढ़ाव आये जितने सन 1973 के झटके के समय भी नहीं आये थे. संयुक्त राष्ट्र संघ की एक संस्था के अध्ययन से भी यह सिद्ध हुआ है कि सटोरिओं की गतिविधिओं से पेट्रोलियम के दामों में तेज़ी आती है.

भारत सरकार ने भी देशी तथा विदेशी सटोरिओं की सुविधा के लिए सन 2003 में मुंबई तथा अहमदाबाद    में तीन इन्टरनेट सुविधा से लैस इलेक्ट्रॉनिक्स एक्सचेंजेस स्थापित किये थे. तब से अनाज का यह व्यापार 0.67 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर सन 2010 में 9.02 लाख करोड़ रुपये हो गया था. मध्यप्रदेश के सोयाबीन पैदा करने वाले धार क्षेत्र के लिए किये गए एक अध्ययन में इन नए एक्सचेंजेस का वहां के आढती व्यापार पर प्रभाव जाना गया (EPW July 31, 2010). इन नए एक्सचेंजेस के साथ व्यापार करने के लिए इन्टरनेट सहित केवल एक कंप्यूटर की जरूरत होती है. शुरू में लोगों में बड़ा उत्साह था, परंतू एक बड़े लगभग १० करोड़ के झटके ने आढती व्यापार की कमर तोड़ दी.
आढती व्यापारियों को सोया प्रोसेस करने वाली कम्पनिओं से माल का बाज़ार मूल्य मिल जाता था. बाज़ार में माल के आने पर अपने लाभ को ध्यान में रखते हुए बोली लगाकर वे माल खरीदते थे. सरकारी अफसर की निगरानी के कारण आढती दामो को ज्यादा नीचे नहीं गिरा सकते थे. अब आढती इन नए एक्सचेंजेस के साथ व्यापार करने के लिए बिलकुल भी इच्छुक नहीं हैं. यदि माल की गुणवत्ता में जरा से भी फेर-बदल होती है तो सटोरी माल को रिजेक्ट कर देते हैं, जबकि पहले प्रोसेस कम्पनियां  कुछ पैसे काट कर इन्हें पेमेंट कर देती थी.


देश में सोयाबीन की कुल पैदावार लगभग 70 हज़ार टन है, जबकि सट्टा बाज़ार में रोज़ ७२ हज़ार टन का कारोबार होता है. सटोरिये बाज़ार की उठा-पटक से कहीं ज्यादा मुनाफा कमाते हैं, न की माल के लेन-देन से, ओर अपनी हरकतों से बाज़ार को अन्य सभी के लिए खराब कर देते हैं. बाज़ार को सटोरिओं के नियंत्रण पर छोड़, अपने हाथ कटा कर, सरकार महंगाई को कैसे नियंत्रित कर सकती है.   

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University, Bhopal, Madhya Pradesh
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