इंडोनेशिया का असफल विकेंद्रीकरण - भारत के लिए सबक

      जनवरी 2014 में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति ने 2009 में पारित एक क़ानून के तहत ताम्बे की कच्ची धातु के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. उनका कहना है कि देश में शुद्ध धातु उद्योग (Smelting) को विकसित करने के लिए कच्ची धातु के निर्यात को बंद करना जरूरी है.  कच्ची धातु के निर्यात यह क़ानून भी उन्हीं की सरकार ने पारित किया था, संभवतः वे इसे लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. राष्ट्रपति द्वारा  की गयी इस घोषणा का इंडोनेशिया में काम कर रही  विदेशी खनन कंपनियों ने तीखी प्रतिक्रया की. खनन से जुडी स्थानीय उद्यमी संगठनों ने भी कोर्ट का दरवाज़ा खट-खटाने की धमकी दे डाली. यह समय इंडोनेशिया के राष्ट्रपति के लिए मुश्किल का समय है क्योंकि विदेशी मुद्रा व्यापार घाटे (Current Account Deficit) की पूर्ती खनन की  कमाई से होती है. खनन उद्योग कुछ ही दशकों में बिखरे तथा छोटे पैमाने के उद्यम से बढ़कर केंद्रीभूत, तथा दानवाकार हो गया है. वहां पर अब बड़ी पूंजी के साथ बहु-राष्ट्रवादी कम्पनियों का वर्चस्व है. अधिकांश में इनका खनन कार्य विकासशील देशों के जंगलों से घिरे आदिवासी क्षेत्र में होता है.
      अनेक टापुओं से बना इंडोनेशिया अपने अपार खनन भण्डार के लिए विश्व प्रसिद्ध है. सन 1938  में जब इंडोनेशिया एक डच कालोनी था उस समय खनन द्वारा कुल निर्यात का 31 प्रतिशत था. जिनमें मुख्य पदार्थ कोयला, तेल तथा निकिल थे. आज़ादी के बाद साठ के दशक से ही बहु-राष्ट्रवादी कम्पनियों ने इंडोनेशिया के खनन उद्योग में पूंजी लगानी शरू कर दी थी. 90 के दशक में भारत की ही तरह इंडोनेशिया पर भी भूमंडलीकरण, नव-उदारवाद आदि का असर आया. देश में विदेशी निवेश की एक प्रकार से बाढ़ सी आ गयी. सरकार ने बैंक, खनन तथा टेलीकोम क्षेत्रों में राष्ट्रीय कंपनियों के शेयर बाज़ार में बेचे. सन 1998 में वहाँ के रुपिये (IDR) का मूल्य रसातल में पहुँच गया.  अपार खनन भण्डार से संपन्न होने के बावजूद इंडोनेशिया बर्बादी की कगार पर आ खड़ा हुआ. लम्बे समय से सत्ता पर काबिज़ राष्ट्रपति सुहार्तो की सरकार का पतन हुआ. आर्थिक मुसीबत से निकलने के लिए विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से मदद तो मिली किन्तु पूर्वी तिमोर जो की 1975 से देश का एक प्रांत था, संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की देख-रेख में वहाँ पर सितम्बर 1999 में जनमत संग्रह कराया गया और वह एक अलग राष्ट्र बन गया.
                राष्ट्रपति सुहार्तो के समय में ही वहाँ पर खनन एवं कृषि संबंधी उद्योगों में बड़ी पूंजी अथवा 'कोंग्लोम्रेट्स' (Conglomerates) ने अपना वर्चस्व बना लिया था, जिसमें अधिकाँश भाग विदेशी निवेश का था. इंडोनेशिया की नयी जनतांत्रिक सरकार ने सत्ता में विकेंद्रीकरण का रास्ता अपनाया. प्रान्तों को अपने राज्य के प्रबंधन के लिए अधिक अधिकार दिए गए. 22 बहुराष्ट्रीय खनन कंपनियों के पास सुहार्तो के समय के 'जंगल काट' कारोबार बढाने के लाईसेंस थे. क़ानून 41/1999 पारित कर जब उन्हें कारोबार बढाने के लिए मना किया गया तो अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता (arbitrage) की समस्या पैदा हो गयी.
                देश के एक बहुचर्चित सहकारी मंत्री ने छोटे उद्योगों एवं छोटी पूंजी को बढ़ावा दिया. इन सहकारी संस्थाओं को राज्य का संरक्षण प्राप्त था. इस योजना को उन्होनें 'जनता का अर्थशास्त्र' कहा क्योंकि इन छोटे उद्योगों में स्थानीय इण्डोनेशियाई लोगों की पूंजी लगी थी. बड़ी पूंजी की प्रतिक्रया स्वाभाविक थी. वाशिंगटन पोस्ट ने सहकारी मंत्री को इंडोनेशिया के सबसे खतरनाक व्यक्ति की संज्ञा दी.
                सन 1999 से 2004 के दौरान 4 राष्ट्रपति बदले गए जिससे देश में राजनीतिक अस्थिरता बनी रही. फिर सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए बनाये गए क़ानून भी ठीक तरह से लागू नहीं हुए. लिहाजा पुराने 'कोंग्लोम्रेट्स' ने पुनः अपना वर्चस्व बना लिया है. इंडोनेशिया में केवल 7 'कोंग्लोम्रेट्स' का 90 लाख हेक्टेयर जंगलों पर अधिकार है. खनन के अलावा पाम आयल तथा लुगदी के लिए खेती भी जंगलों की कटाई के मुख्य कारण हैं. इनपर 'जंगलात सुरक्षा' क़ानून 41/1999 भी लागू नहीं होता जिसके तहत जगलों में केवल छोटे उद्योग ही लगाए जा सकते थे. जून 2013 में जंगलों की आग से इतना अधिक धुआँ उठा कि पास के अन्य देश सिंगापुर तथा मलयेशिया के विरोध पर इंडोनेशिया को हेलिकोप्टर आदि से हस्तक्षेप करना पड़ा.
                इंडोनेशिया का अनुभव भारत की मई 2014४ में आने वाली सरकार के लिए भी उपयोगी होगा. यहाँ भी अनेक राज्यों के जंगलों में वैध तथा अवैध खनन जोरों-शोरों से हो रहा है, जिसमें सीधे अथवा स्थानीय कम्पनियों के माध्यम से विदेशी पूंजी भी लगी हुई है. विदेशी व्यापार तो भारत का भी घाटे का ही है.

      जनता को भी चुनावों से पहले कुछ सोचना चाहिए. साझा सरकारें देश की अपेक्षा पर पूरी तरह से खरी नहीं उतरी हैं.  एक मजबूत केन्द्रीय सरकार ही सफल विकेंद्रीकरण द्वारा 'जनता का शासन' स्थापित कर सकती है. 

Kanhaiya Jha
(Research Scholar)
Makhanlal Chaturvedi National Journalism and Communication University,
Bhopal, Madhya Pradesh
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